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*अगमजानी/लघुकथा*
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*अगमजानी माने अगम के जानकार।अउ बाप ले बढ़के अगमजानी अउ कोन हो सकत हे।अइसन एक अगमजानी बाप के जीवन के नानकुन फेर बड़े प्रसंग। संग म छत्तीसगढ़ म बउरे जात बईला- भैसा गाड़ा के नंदावत जात शब्दावली भेंट म*
बारा हाथ के बरही ले, गाड़ा के ठाठ म जुड़ा ल दुनों बाप -बेटा बांधत रहिन ।अभी ले घलव ददा के बहां -भुजा म अतेक ताकत भरे हे । येला देखत अनुभव करत बिहारी हर ,आज फेर ददा के बल अउ बुद्धि के थहा पा गय । नहीं त नानपन म , वो खुद अउ छोटे बहिनी कमला , ददा के कांवर के दुनों कोती जबतक बईठथिन नहीं, तब तक आज कुछु होइस हे, अइसन लागबेच नई करय...
"कइसे का हो गय बेटा, नई बनिस का ?अब बुढ़ाती शरीर आय, भूल -चूक होवत देरी नइये ।" ददा मालिकराम कहिस ।
" बुढ़ाय तोर बैरी -दुश्मन ! तँय काबर बुढ़ाबे ।" बिहारी अपन ददा कोती ल बनेच देखत कहिस ।
"बस बेटा !मैं वोइच जिनिस ल नई जांनव, जउन ल तँय कहत हावस ।"
"वो का कह देंय मंय, ददा !"बिहारी थोरकुन अकबकात कहिस ।
"अभे कहत रहे न बैरी -दुश्मन..."
"हां...!ददा , हमन तोला कभू काकरो करा तीरा -घिंचा होवत नई सुने अन !"
"बस बेटा!भगवान अब अइसनहेच संकेल लेय ।"
"ये ददा घलव अब का न का कहत रहिथे ।" बिहारी तुरतेच कहिस ।
"ले बेटा ,ठीक ! अब नई कहंव ,फेर तँय अब गाड़ा के गोलर अउ वोकर ऊपर वाला खाप ल लान । वोहू मन ल बांध के राखी ।"ददा कहिस ।
अब वोमे वोहू मन बंधा गिन , तब जइसन गंवतरी जाय बर तियार हो गय ये बइला गाड़ी हर !
"बेटा !गाड़ा बइला के छेवर बुता ?"ददा कहिस ।
"हां ...ददा !"बिहारी कहिस अउ आगु घर कोती चल दिस । जब वो फिरिस तब वोकर हाथ म सिंघोला -जोतार अउ ओंगन -तेल के पोतनी -डब्बा मन रहिन । दुनों बाप -बेटा सिपईहा म गाड़ा के धोखर ल उठा- उठा के दुनों चक्का म तेल ओंगिन ।
"ले चल अब गाड़ा के ये छेवर बुता घलव हो गय ।" ददा कहिस ।
" हाँ, ददा !"बिहारी ओझी दिस ।
आधा रात ल वो पार हो गय रहिस बेरा हर । बहु के खोली कोती ल किल्ली -गोहार परे के शुरू हो
गिस । वोकर देंहे उसल गय रहिस ।
"सुनत हव ...!" बिहारी के महतारी आके वोकर ददा मालिकराम ल कहिस।
"हाँ...सुन डारें !जल्दी करव... गाड़ी हर तियारेच हे। दउ ल कह बइला मन ल फाँदे बर !" ददा कहिस।
"फेर कहाँ जाये बर !"
"अउ कहाँ ! तीर के सरकारी अस्पताल...!" वो जोर से कहिस ।
ददा हर अगम जानी ये...अस्पताल ल घर फिरत बिहारी ग़ाडी ल खेदत ये गोठ गुनत रहिस । गाड़ी हर अब बनेच गरू लागत रहिस।लक्ष्मी माता हर अवतर के येला गरू कर देय रहिस ।
मुचमुच हांसत ददा हर तो अपन लाठी खाँद म बोहो के गाड़ा के पिछु म रेंगतेच रहिस ।
*रामनाथ साहू*
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