*शहर वाला/छत्तीसगढ़ी कहानी*
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*चंपा उठिस अउ घर कोती गिस। उहाँ जाके अपन महतारी ल कहिस -दई ! मोला वो शहर वाले ल दे दे !*
(1)
चंपा ल आज ये जउन सगा पहुना आय रहिस,तउन हर बिल्कुल एको नई भावत रहिस । कइसन तरी मुड़ कर के बइठे रहिस । वोकर तो गोठ -बात घलव नई सुने बर मिलिस । एकदम किसनहा बानी के दिखत रहिस । अभी के समय के चलागत वाले जीन्स -टी शर्ट तो धुरिहा... झलँग -झपट करत ढीला ढाला वोकर कमीज -पेंट मन रहिन । दाढ़ी -मेंछा घलव वोइच लरंग-जटँग ! अरे, लइका देखे आथस, तब वोकरो कुछु नियम-कायदा हे, फेर अइसन इहाँ कुछ नई रहिस । हां, एकठन जिनिस जउन हर वोला बने लागत रहिस,वोहर ये वोकर लइका कस निर्दोष चेहरा !
वोकर बारे म सगा उतारने वाला मोसा कहत रहिस कि अपन पुरता चाकचौबंद हे। पोठ एक नांगर के किसानी हे ।कुँवा -बावली, कोला -बारी निस्तारी के कुछु समस्या नई ये । अभी दु झन ल दे के खात हे। काकरो आगु म हाथ लमाय के बेरा नई आय ये।
फेर छेवर म आय किसनहा तो ,गांव वाला ...
थोरकुन दिन पहिली परोस के फिलफिली भौजी वोला...थोरकुन आ तो ननदिया ! कहत बला के अपन घर ले गय रहिस। वोकर घर म सूट -बूट जीन्स टाई वाले दु झन पहुना पहिली ले बइठे रहिन । वोहर वोकर बलई ल समझ गय , अउ रंधनी -कुरिया म जो समाइस कि वो पहुना मन के जाय के बाद ही निकलिस । फेर उहाँ के झेंझरी ले बाहिर हर पांच -परगट दिखत रहिस । भौजी कहिस लाल कमीज... तब तो वो सब समझ गय। साफ चिक्कन दाढ़ी -मेंछा वाले मुचमुच हाँसत चेहरा ,पिंधई -ओढ़ई साहेब पीला मन कस । चंपा तो वोला बड़ बेर ल देखतेच रहिस ।
"चल आधा बुता पूरा हो गय।"वोमन के जाय के बाद फिलफिली भौजी हाँसत कहिस।
"वो का ओ!"
"तँय वोला बढिया देख डारे न। वोमन काली ले तुँहर घर सीधा सगा उतरहीं ।"
" येकरे बर तँय ठग के बलाय रहे ।"
"देख तो धुरिहा के लाग -मानी, रिश्तेदार आय । लोग -लइका के हाल-चाल पूछत येती हमर घर आईन, तब मंय तोला बता देंय।" फिलफिली भौजी कहिस।
"बढ़िया करे।ले अब जांव ।"
"हां, अब जा सकत हस, फेर एकठन बात हे नोनी ।"
"वो का वो ?"
"येमन मोर बहुत धुरिहा के लाग- मानी आँय ।आजकल शहर म रथें । येमन के बारे म मंय जादा कुछु नई जानत अंव । सगा -पहुना बन के आहीं- जांही , तब बढ़िया देख -परख लिहा, तब फेर कुछु करिहा ।"
"कुछु भी कह भौजी , बने हे वोहर ।"
"तोर मन आ गय ।"
"हां,शहर वाला आय...!"चंपा कहिस अउ तरी मुड़ करके भाग पराइस उहाँ ले।
( 2 )
सिरतोन अगाहु दिन वोमन पाँच -सात आदमी चंपा घर सगा-पहुना उतर आईन ।देखे -ताके के सब चलागत चहा, नाश्ता -पानी होवत रहिस,बारी -बारी ले । वोमन बतात रहिन कईसन बाप पीढ़ी मन गांव ल छोड़ के शहर म आ गय रहिन ।
"धंधा -पानी बाबू?"कका पूछे रहिस।
"येई बस मनखे सवारी मन ल शहर के ये मुड़ा ले वो मुड़ा पहुंचाना !"
"बने आमदनी होथे ।"
"घर चलत हे, चार पईसा हाथ म सदाकाल नाचत रहिथे..."
चंपा सब ल कान लगा के सुनत रहिस । ये सब वोला रमायन-पोथी कस सुहान लागत रहय ।आखिर शहर म जो रइथे ।
( 3 )
घर म तीरा- घिंचा फदके रहय ।दुनों जगहा के सगा मन लइका ल मनवा डारे हांवे अउ बलाय हांवे । गय माने लइका ल हार के आ । वोकर पहिली भेद लगा के सब कुछ देख ताक ले।
अउ अइसन बुता ल कका हर ही करथे। कका पहिली वो खेत -खार वाला के शोर -पता लानिस अउ कहिस - जतका कहे सुने हे, तेकर ल अउ जादा पोठ हे। देय के लइक हे।
तीसरावन दिन कका मंझनिया सब झन ल फेर जोरिस अउ बताइस -शहराती बाबू के घर ,शहर के तरिया- पार के झाला -झोपड़ी अउ वोकर सवारी रिक्शा ! अब कइसे कहत हव तउन ल बताव ।
चंपा उठिस अउ घर कोती गिस। उहाँ जाके अपन महतारी ल कहिस -दई ! मोला वो शहर वाले ल दे दे !
*रामनाथ साहू*
***
[9/11, 1:07 PM] पोखनलाल जायसवाल: शहर के चकाचौंध म आज नवा पीढ़ी मन के आँखी कइसे चौंधियाय हवे, एकर परछो देवत सुग्घर कहानी।
ए कहानी अपन पाछू कतको सवाल छोड़त जाथे। एक कि आज के बेरा म किसानी अउ गाँव दूनो ले शहर के मोह काबर?
का नवा पीढ़ी ए भुलागे हे कि बइठे बइठे तरिया के पानी नइ पुरय कि हम उन ल खेती ले दुरिहा रहे के गोठ म भरमा डरे हन?
दूसर, मिहनत के डीजल बिगन जिनगी के गाड़ी नइ चलय, अपन नवा पीढ़ी ल कब सिखाबो। घरु गोठ म सुख के छइहाँ बर शहर के पहुना मिलत ले गँवइहाँ सजन के नइ सोचना, कहूँ भविष्य बर जी कालकूत तो नइ हो जही?
सीरिफ शहर भर म घर होय के पैमाना ले ऊपर उठ के गोठ घर म करे बर परही। नइ तो चंपा सहीं हमर दुलौरिन तय नइ कर पाहीं कि का ओकर बर भल/अनभल हे?
तीसर कि परोसिन भौजी का सिरतोन म अपन परोसिन ननद के हित बर सोचे हे? अइसन सवाल एकर सेती कि दुरिहा के सगा होय म चंपा ल दिखाय के पहिली ओकर दाई ददा मन ले मिलाना रहिस।
सुग्घर भाषा शैली संग समाज ल चिंतन करे के उद्देश्य ले लिखे बढ़िया कहानी बर आदरणीय रामनाथ साहू जी ल हार्दिक बधाई अउ शुभकामना💐🌹😊🙏
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