. *अभिशापित बस्तर : एक चिन्तन*
*संदर्भ : छत्तीसगढ़ी साहित्य*
डाॅ विनोद कुमार वर्मा
छत्तीसगढ के सुदूर दक्षिण म फैले घना पेड़-पौधा अउ वन्य पशु-पक्षी के शरणस्थली अउ सबले बड़े आदिवासी जनजीवन लोक संस्कृति के ध्वजवाहक ' बस्तर के पठार ' आज विकास के नाम म अंधाधुंध पेड़ मन के कटाई अउ नक्सलवादी मन के कहर ले कराहत हे। हिन्दी साहित्य म बस्तर उपर कहानी, उपन्यास अउ कविता ढेर सारा लिखे गे हे। अब छत्तीसगढ़ी साहित्य म घलो बस्तर के उपर साहित्यकार मन के कलम बेबाक होके चलत हे अउ नवा-नवा कहानी, कविता आवत हे। अभी हाल-फिलहाल म छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य म *चंद्रहास साहू* के कहानी ' *सरई*, ' *कमलेश प्रसाद शर्मा बाबू* के कहानी ', *मास्टर झड़ीराम* 'अउ *डाॅ विनोद कुमार वर्मा* के दू ठिन कहानी ' *अग्नि संस्कार* ' अउ ' *डोकरी दाई मर गे* ' नक्सलवाद समस्या के जड़ से पड़ताल करत हे अउ नक्सलवाद के उपर प्रहार घलो करत हे।
ठीक वइसने *वसन्ती वर्मा* के प्रलंब काव्य ' *बस्तर* ' घलो नक्सलवाद के जड़ से पड़ताल करत हे। -
इहाँ जंगल म अब,
बम बारूद के जोर हे।
कोनो डहर,
बारूद के कचरा,
कोनो डहर,
कचरा म बारूद के ढेर हे!
बस्तरिहा मरे,
या नक्सली,
या पुलिस अउ सेना के जवान,
होही कोनो विधवा,
फेर होही कोनो अनाथ!
छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ साहित्यकार *मुरारीलाल साव* के प्रलंब काव्य ' *हम चुप काबर रहिबो*' म नक्सली उपर प्रहार करे के अपील करत हे-
चुप रहे म बनय नहीं,
चिल्लाये बर परही।
सिधवा रहे म बनय नहीं,
अटियाये बर परही।
बस्तर म घात लगाके,
खेलत हें खून के होली।
कतका बहिनी के माँग उझारिस,
गिन के उंकर गोली।
रार मचावत हें कइसे सहिबो,
*ठाढ़े-ठाढ़े भूंजे ला परही!*
कवि *राजकुमार चौधरी* नक्सलवादी मन के द्वारा बस्तर के सांस्कृतिक वैभव ला लगातार नष्ट करे के उदिम अउ विनाश ला रेखाँकित करत लिखे हें-
कायर मन छिप-छिप के, घात करत रहिथें।
फौजी निर्दोष मन हा, रोज भरत रहिथें।
कोरी-कोरी रोज गिनके, लाश उठाव हन।
हरियर बस्तर हा नरक भुँई पलाल होगे।
रोज हमर धरती हर,लाले-लाल होवत हे।
कवि अउ समीक्षक *पोखन लाल जायसवाल* अपन कविता ' *नवा बघवा*' म नक्सलवाद के दुःखद अउ घृणित कारनामा के भर्त्सना करत कहत हें-
मशाल धर के
जब ले आय हे नवा बघवा
सरी जंगल ल दंदोरत हे!
.............................
लहुलुहान हे
इंद्रावती के निर्मल धार
छाती म रोज लदावत हे
दुःख के पहार।
एक तरह से देखे जाय त बस्तर म वन के विनाश अउ नक्सली आतंक नासूर के घाव बन चुके हे। छत्तीसगढ़ी के सुप्रसिद्ध कवि *बुधराम यादव* के गीत ' *अखमुंदा भागत हे* ' म नक्सलवाद के समस्या ला संजीदगी से रेखाँकित करे हे-
बघवा भलुवा चितवा तेंदुआ,
सांभर अउ बनभैसा!
रात दिन बिचरंय जंगल मं,
बिन डरभय दू पैसा।
नक्सलवादी अब इंकर बीच,
डारत हाँवय डेरा।
गरीब दुबर के घर उजागर के,
अपने करंय बसेरा।
तीर चलइया ल गोली बारूद
भाखा ओरखावत हें!
...........................
बेटा बेटी अगवा करके,
सौंपय फौजी बाना।
हमर घर भीतर घुसरके,
हमरे मुड़ ल फाँकय!
कांकेर,बस्तर,जगदलपुर का
सरगुजा दहलावत हें।
. *सचमुच आज छत्तीसगढ़ महतारी के अँचरा बस्तर के पठार म जलत हे। बस्तर म पर्यावरण के बिनाश अउ नक्सलवादी आतंक थमही कि निहीं? आज साहित्यकार कवि अउ लेखक मन के चिन्ता एही हे कि समस्या के समाधान हिंसा से तो हो नि सकय, फेर समस्या के समाधान कइसे होही- ये सतत् चिन्तन अउ चिन्ता के विषय हे।* 🙏🌹
- विनोद कुमार वर्मा
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