Thursday 18 March 2021

रचनाकार अउ प्रकाशक-सूर्यकांत गुप्ता कांत

 रचनाकार अउ प्रकाशक-सूर्यकांत गुप्ता कांत


सबले पहिली पटल के संस्थापक, छंदगुरु श्रद्धेय अरुण निगम भैया, पू० सरला शर्मा दीदी, पू० सुधा वर्मा दीदी, श्रद्धेय डॉ. विनोद वर्मा सर, डॉ. सुधीर शर्मा सर संगे सँग जतका ए पटल ले साहित्यविद् अउ विदुषी मन जुरे हें उन सबला पैलगी करत         

गुरुवर  अरुण निगम द्वारा उठाये विषय म अपन नानमुन जउन विचार मन म आए हे;  ओला इहाँ मड़ावत हौं। मोर हिसाब से सबले पहिली रचनाकार के रचना ल परखना चाही। मोर व्यक्तिगत रचना(मोर रचना लिख पारेँव, वास्तव म दाई सरसती के आदेस मानत मोर द्वारा लिखाए रचना मानौ...का "मैं "अउ का "मोर रचना") ल घलो प्रकाशित करे या करवाए म डर्राथौं।  आज तो साहित्यकार मन के बाढ़ आ गे हे। ओ बाढ़ म ए  विचार लिखइया ल झन मिलाहौ, काबर के ए हा साहित्यकार नो है।  क्षमा करिहौ, बाढ़ ह उतरथे त  पानी मतलहा नई रहय जम्मो कचरा काँड़ी एक जघा तिरिया के माड़ जथे। अउ फरियाये पानी के रंग, जेला हमन निर्मल जल कहिथन, अलगे होथे।  ओ पानी के महत्व अलग होथे। असली प्रकाशक त उही ल माने ल परही जउन रचना ल जाँच परख के प्रकाशित करे के लाइक मान के छापथे। हमर गुरुदेव निगम जी जानत हें, एक पइत ए सूर्यकांत के लगभग 40 ठन  कुंडलियाँ ल कोनो प्रकाशक मेर भेजे बर कहिन। भेजे गईस।ओ 40 कुंडलियाँ ले 20 कुंडलियाँ छँट के छपना रहिस। ओतको कुंडलियाँ मानक म खरा नइ उतरिस। ए होथे जाँच परख।


ए बात सोला आना सच ए के साहित्य जगत म छपास रोग फइले हे। इहू रोग दू किसम के हे; एक रचनाकार के ओकर रचना छपे के ललक अउ दूसर प्रकाशक के ओकर माध्यम से दू चार पइसा मिले के लालसा। अच्छा ! अभी साझा संकलन के चलन मरे जियो चलत हे। ११००/- अंशदान लगही तुँहर बर तीन पेज रिज़र्व होगे।  अब अइसन किताबल पढ़ के देखौ त समझ म आ जथे के लछमी दाई के आगू  महतारी सरसती के नइ चलय।

मोला ए बात केहे म एको संकोच नइ होवय के मोरो हाथ के लिखे चार लाइन घलो मानक म खरा उतरे बिन छप जथे।अंशदान देवाय रथे न, खैर !अपन चीज बर काला मया नइ लगै। का चीज बर हमर ममादाई पटंतर देत रहिन सुरता नइ आवत हे, अतके सुरता आवत हे के कोनो किस्सा म  "मोर असन धन राजा के नइये" कहवइया   के जिकर करय।  मैं नइ कहँव के फोकट म छपै। छपाई  बर पैसा त लगबे करथे। प्रकाशक तको दू पैसा कमाये बर  ए बूता म लगे हे।  


अब प्रकाशक छाप तो दिन किताब। सौ दू सौ प्रति निकल गय। जतका बँटना रहिस बँट गय। जउन लेगिन, उंखर अलमारी म सज गय। जब तक ओ किताब ल प्रसिद्धि नइ मिल जाय ओकर बेचाए के त सोचौ झन। 

 

त इही सब बात के ध्यान रखत रचनाकार अउ प्रकाशक ल सोच के रचना प्रकाशन करना अउ करवाना चाही। काँही अंते तंते लिखा गे होही त ओकर बर माफी माँगत....सादर पैलगी सहित


सूर्यकान्त गुप्ता, 

सिंधिया नगर दुर्ग(छ.ग.)

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