Saturday 1 October 2022

व्यंग्य - पंडाल सजाए चंडाल

 व्यंग्य - पंडाल सजाए चंडाल

उप्पर वाले हँ एसो अइसे बरसइस के भूइँया के संगे-संग तन-मन-धन सबो के मइल बोहा-धोवागे। ‘छकछक-ले’ धोवाए मन म ‘भकभक-ले’ धरम के बिरवा फूटगे। कुंवार म ‘चकचक-ले’ देवी दरसन के चुलुक ‘खबखब-ले’ ठढ़ियागे। 

‘धन-दोगानी के बाढे ले साध अउ साधन दूनों के गोटानी बाढ़ जथे।’

अइसे साध अउ साधन दूनों के साँठगाँठ होए ले ही धरम के रद्दा पोठ होथे।

साध अउ साधन के अगिनकुंड म कहूँ सुविधा अउ सहयोग के समिधा मिलगे ताहेन मनखे के मुक्ति म कोनो दुविधा-बाधा नइ रहि जाय।

साध ल धर-पोटार फटफटिया उठाके चलेन सहर कोति। अभीन के समे म सहर के देवीमन सँऊहत जागरित अउ अबड़े फुरमानुक होथे कहिथे। जाके फटफटी ल खड़ा भर करे पाए रहेन, दूझिन कुंवारामुँहा टुरामन लाहकत तीर म आ गे। उन लाल-पिंयर परची के जीभ ल लमावत कहिन- ‘गाड़ी स्टेण्ड के परची कटा।’

‘गाड़ी स्टेण्ड के परची।’ हम अकबकाए-बकबकाए पूछेन-‘गाड़ी स्टेण्ड के का-कइसन परची भाई ?’

‘तुँहर देवी दरसन के करत ले गाड़ी के रखवारी हम करबोन।’

‘रखवारी के का जरूरत हे ?’

‘निच्चट भोकवा हस यार। तुमन ओति देवी दरसन म भुलाए रहू अऊ एति गाड़ी ल कोनो लेगे त ?’

‘अरे ! कइसे ले जही जी। सबो दरसन खातिर आए हे। इहाँ कोन गाड़ी के पीछू परे रहिही भई।’

‘श्रद्धालुमन सब दरसन करे म भुलाए रहिथे, चोर-ढोरमन ल थोरे दरसन-वरसन से मतलब रहिथे। हम ये मेरन फोकट छाप काबर खडे हन ?’

मोर ‘ठकठक-ले’ खलपट्टा मन म ‘खटखट-ले’ खपटहा विचार ‘खलबल-ले’ खलबलइस - ‘ये मन काबर खड़े हे ?’

मोला उन्कर मन के खड़े होए के कारण समझ म आ गे।

कउवाके दूठिन गुटका के पइसा वो कुंवरहामन ल देके फटफटी के परची कटाएन। फटफटी के ‘फटफट-ले’ जी छोड़ाके आगू बढ़ेन। अतका भीड़ कि मुड़ी-पूछी के चिन्हारी नइ रहय। 

उहाँ सिवजी के बराती बरोबर एक ले बढ़के एक जीव रिहिसे। गेंड़ी कस ‘ढंगढंग-ले’ दू पाँव के रहिते मन से विकलांग। ‘बटरंग-ले’ बड़े-बड़े आँखी के रहिते देखब के अँधरा, नीयत के निच्चट खोटहा अउ अबड़े छोटे आँखी के मनखे। तन ‘फकफक-ले’ ओग्गर अउ मन निच्चट बिरबिट करिया। किसम-किसम के सुरहा-बैसुरहा मनखे गा, अब काला बताववँ।

देवी के सुन्दर अउ सुग्घर रूप के दरसन खातिर सुर म जस गीत गावत मनुज तुल्य कुछ असुर-बैसुर। देवी के अँगना म नाचत-इतरावत-झूमत-गावत-रिझावत मनखे तुल्य लंगुर, सबो पधारे राहय।

ओइसनेहे साहर के देवी मन तको सजे-सँवरे मार लकलक-लकलक, चमचम-चमचम बरत-झूपत रहय। 

कइसनो करके पंडाल के तीर म पहुँचेन। उहाँ जाके देखेन, पंडाल के बाहिरे म दुवार तक जाए बर रस्ता अबड़े घुमावदार रिहिस। ‘चमचल-ले’ बाँस बल्ली बँधाए टेड़गा-बेड़गा साँप सहिन घूम के दुवारी तक पहुँचे रहय। जम्मो मनखे जिनावर उहाँ ओरी-ओरी लगे राहय। हमू सबके पीछू ल धर लेन। मुड़ी ल पेलत घुसरे लगेन। वो मेरन सेउक बने दू झिन अऊ बन के रक्सा बइठे रहय। वो बन के रक्सामन बाँस के अड़ंगा लगाए रहय। भगत अउ साऊ मनखे मन बर हरेक जगा अड़ँगा लगे रहिथे। वो अडँगा नइ होवय भलकुन भगत मन के भक्ति के परीक्षा होथे। वो रक्सा मन हमन ल देखके कहिस-

‘टिकिट देखाओ जी।’

हम सकपका गेन, पूछेन - ‘वो कहाँ मिलत हे भाई।’

‘वो देख, सोझ आगू म मिलत हे’ - वो हँ अंगरी देखावत कहिस।

उहाँ जाके का देखेन ? उहों दू किसम के टिकट। एक सुध्द भक्तमन बर दूसर असुध्द भक्त मन बर। शुध्द भक्त मन के टिकट 100-रू. अषुध्द भक्त मन के 10 रू.। टिकट बेचइयामन संतषिरोमणि-निर्माही महात्मा बरोबर परमभक्त स्वरूप रहय। जब हम उन्कर ले देवी दरसन खातिर टिकट के कारण जानना चाहेन त उन ‘रज्झ-ले’ सोझ कहिस - 

‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दरसन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दरसन दे देही, त ओकर महानता अऊ ओकर रचे माया के का महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोज-साहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक भक्तिभाव, साज-सिंगार अउ विग्यापन के दुकानी के का होही। निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’

‘हम उन परमपुरूष मन के अमृतबानी ले परमग्यान के रसपान करके धन्यवाद देवत आगू बढ़ गेन।

टिकट ल तीन-चार परत मोड़-चिमोटके धरे हम अपन पारी के बाट जोहत लाइन म खड़ा होगेन। हमला खड़े-खड़े आधा ले एक घंटा होगे। पारी आएच् नइ रहय। जी कऊवागे रहय। हमर घुसरे के दुवारी के बाजू म शुध्द भक्त मन के घुसरे बर अलग दूवारी बने रहय। सुद्ध भक्तमन ल पारी लगाके बाट जोहे के जरूरते नइ परय। उन आवय अउ बुलुंग ले बुलक जाय। हम हालत-डोलत खड़े बोटोर-बोटोर देखते रहन।

ओतके बेरा मोला उन सिद्धपुरूसमन के संतवाणी सुरता आ गे- ‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दरसन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दरसन दे देही, त ओकर महानता अऊ ओकर रचे माया के का महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोज-साहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक भक्तिभाव, साज-सिंगार अउ विग्यापन के दुकानी के का होही। निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’


हमर घुसरे के दुवारी मेरन एक ठो बडे जनिक रक्सा के मुड़ी बने रहय। वो रक्सा के मुड़ी हँ अपने-अपन अबड़े जोर-जोर से हाँसत राहय।

हम मुँह फारे सोचत ओला बोक-बाय देखते रहिगेन।

हमर मुँह फारे सोचई-गुनई अऊ मुँह फारके जम्हावत पारी के बाट जोहई ल देखके घेरी-बेरी वो सरलग हाँसत रहय- ही ही हा हा। ही ही हा हा। ओकर अपने-अपन हँसई ल देखके एक झन नानचिन नोनी अपन ददा ल पूछे लगिस-

‘ये घेरी-बेरी अपने-अपन काबर हाँसथे बाबू ?’

ओखर ददा कहिस - ‘हमन अपन घर के सँऊहत देवी-देवता, दाई-ददा के सेवई-पुजई ल छोड़के अपन मिहनत के कमई ल इन खखाए-भुखाए रक्सा मन के भूख मड़ाए बर फोकटइहा फेंकत हन तेकर सेति हाँसत हे बेटी। एहँ हमर मूर्खता ऊपर हाँसत हे।’

ओतके बेरा शुद्ध भगत मन के ओरी म खड़े एक झिन शुद्ध भगत पिला हँ तको अपन ददा ल  पूछ परिस - ‘ये घेरी-बेरी अपने-अपन काबर हाँसथे डैड ?’

वो मनखे के बुद्धि तो भ्रस्टाचार म भ्रस्ट होगे रहय। विकास के चक्कर म हँफर-हँफर के दँऊडत, एण्ड-बेण्ड करत वो ह धरम के डेडलाइन ल पार कर डारे रहय, त का जुवाब देवय बिचारा ह।


ओकर बगल म खड़े गरीब, गँवार अउ गदहा टाइप दिखत एक झिन दादाजी कहिस - ‘हमर फोकट अउ चंडाली के कमई हँ थैली म बोजाए-बोजाए अकबका-बकबका जथे। वो अकबकई-बकबकई म हमन झन अकबका-बकबका जान कहिके वोला पंडाल के चंडाल मन ऊपर चढ़ावा चढ़ाथन तेकर सेति हाँसत हे मोर बच्चा ! एहँ हमर महानता अउ अहम ऊपर हाँसत हे।’ 

उन्कर रोंठ-पोठ ग्यान-गोठ ल सुनके मोर अंतस के कुकरा जाग गे। बाँग देवत कहिस  - ‘सिरतोन काहत हे रे येमन हँ, अब तो चेत।’

कइसनो करके गिरत-अपटत झाँकी देखत दाई के दरसन करेन। बाहिर निकलके देखेन भंडारा लगे रहय। काँही बूता बर भले पीछुवा जावन, फेर खाए के नाम हमन अगुवा रहिथन। येहँ हमर भारतीय सोच, संस्कार अउ सभ्यता के परम पहिचान अउ प्रमाण हरे। हम उही कोति दऊड़ गेन। 


उहाँ जाके देखेन उहों मार मरे-जियो चिथो-चिथो माते रहय। कोनो कहय - हमू तो चंदा दे हन। कोनो कहय -हमर बेटा वालन्टियर हे। त कोनो ह खिसियावत रहय - हमर चंदा के चरन्नी के पुरति नइहे अतका खिचरी ह। चोरो-बोरो ल सुनके एक कोंटा म हमू मुड़-कान ल पेलत घुसर गेन। ऊहाँ का देखथन बँटइयामन मनखे चिन्ह-चिन्ह के खिचरी बाँटत हे। बने-बने मनखे ल बला-बलाके उन्कर टिफिन-डब्बा, कटोरा, बाँगा म भरत रहय अऊ हमर असन निजोर, भूखाय अउ गँवइहा मनखे मन ल धुत्कार के भगा देवय। हम सोच म पर गेन। यहा काय धरम ये गा ? जिहाँ भरे पेट ल मरत ले खवावत हे अऊ भूखन ल भगावत हे।


मोर कान म फेर वो संतवाणी गूँजे लगिस - ‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दरसन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दरसन दे देही, त ओकर महानता अऊ ओकर रचे माया के का महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोज-साहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक भक्तिभाव, साज-सिंगार अउ विग्यापन के दुकानी के का होही। निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’


हम फेर एक बेर मुँह फारे सोचते रहि गेन। मैं कान ल धरत बुड़बुडाएवँ - ‘ये पंडाल ले दूसर पंडाल अब जाबेच् नइ करवँ।’

धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

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