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*अंतिम जात्रा मनखे के कि मनखेपन के...?*
*अंतिम जात्रा*
*(छत्तीसगढ़ी लघुकथा)*
सम्पतलाल अउ धनई दुईक- दुवा रहिन,लइका पिचका ल जिनगी भर अब्बड़ दूर । फेर समे हर सबो दिन एक बरोबर कहाँ रहथे ।
सम्पतलाल काल कर डारिस ।धनई के उप्पर तो जइसन वज्रपात हो गय...
"बई, रोवइ- धोवइ ल छोड़ !येकर क्रिया करम के फिकर कर" परोस के बहादुर कहिस।
हँ...बेटा कहत धनई हर एकठन गांधी पंजा निकालिस अउ वोकर हाथ म दे दिस ।
"अतका हर तो बांस बल्ली अउ ओनहा म खर्चा हो जाहि अउ..."
"अउ का बेटा ...?"
"अउ नि लागही बई डहर खर्चा आनी पानी बर ।"
दहां बेटा... कहत धनई एकठन वसनहेच पंजा अउ लांन के धराइस बहादुर के हाथ म ।
अब तो सम्पत के अंतिम यात्रा हर देखे के लइक रहिस ।
*रामनाथ साहू*
हिंदी रूपांतरण-
*अंतिम यात्रा*
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संपतलाल और धनई दोनों दो ही थे। पूरी जिंदगी भर वे लोग बच्चे -कच्चे की झंझट से कोसों दूर थे। पर समय सब दिन एक जैसे कहां रहता है?
संपत लाल परलोक चला गया। धनई के ऊपर तो जैसे तो वज्रपात ही हो गया।
"माई, अब यह रोना -धोना छोड़ो और आगे इनकी क्रिया कर्म की फिक्र करो।" पड़ोस के बहादुर ने कहा।
हां बेटा... कहती धनई उठी और घर भीतर से एक गांधी पंजा निकालकर उसके हाथों में थमा दी।
"इतना तो बांस बल्ली और कफन में ही खर्च हो जाएगा और..."
"और... क्या बेटा?"
"और नहीं लगेगा माई रास्ते के खरचा पानी लिए ..."
देती हूं बेटा... कहती धनई उठी और फिर एक दूसरा पंजा लाकर बहादुर के हाथों में धरा दी।
अब तो संपत की अंतिम यात्रा देखने लायक थी।
*रामनाथ साहू*
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