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*हाँसी (लघुकथा)*
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सुरुज के हाँसे ले, वोकर ये हाँसी हर किरण के रूप म धरती म बगर जाय। अउ ये हाँसी ल अपन अन्तस् म ...अपन गरभ म समोख के ये धरती हर ,अन्न -फल - मूल -कंद-जीव -जनाउर अउ मनखे बना लिस।
सुरुज के हाँसी ले बगरत ,एकठन किरण हर ,सुरुज ले पुछिस -उदित नारायण !मंय धरती जावत हंव। तँय उहाँ वाला मन ल कुछु शोर -सन्देश देत हस का...?
तब सुरुज कहिस - मोर ये हाँसे ले, मोरे कस हाँसी, धरती के नरवा -झोरखी -ताल -तलैया मन हाँसत हें। ये बादर हाँसत हे। खेत म धान के बिरवा हाँसत हे।अउ वन म सबो रुख -राई हाँसत हें। सबो जीव जिनिस मन हाँसत हें। नई हाँसत त बस... एक मनखे भर हर! जा वोहू मन ल मोरे कस हाँसे बर कह देबे।
तब वो हाँसत कुलकत किरण हर आके सबला छुये लागिस। छुवत छुवत वो किरण हर ,जब नानकुन लइका के गाल ल छू दिस। येकर ले लइका हर खलखला के हाँस उठिस। लइका के हाँसे ले फिर तो अकाश -पताल एके हो गय रहिस।
*रामनाथ साहू*
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