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*छत्तीसगढ़ी रंग नाटक*
(हिंदी आलेख)
यहां मैं दो अति विशिष्ट नाटकों का जिक्र करना चाहूंगा । उनमें प्रथम है डॉक्टर नंदकिशोर तिवारी द्वारा लिखित और डॉक्टर योगेंद्र चौबे द्वारा निर्देशित,और रँगदल ' गुड़ी 'द्वारा प्रदर्शित नाटक - रानी दई (रानी दई डभरा के )
नारी विमर्श के चरमोत्कर्ष को अपने आप में सहेजे इस नाटक की कथावस्तु ,नारी के ह्रदयऔर प्राण दान, और पुरुष के द्वारा उसे भोगवादी एक वस्तु (कमोडिटी) माने जाने के बीच संघर्ष की कथा है । अत्यंत संक्षिप्त में कथा सूत्र के रूप में कहा जा सकता है- डभरा रियासत का जमीदार या राजा, अपने संबलपुर प्रवास के दौरान वहां किसी रूप लावण्यवती तरुणी के साथ संबंध स्थापित कर लेता है ।और अपना काम समेट कर वापसी के समय उसे 'भोग्या' मानकर वहीं छोड़ देना चाहता है । पर वह साथ चलने के लिये अड़ जाती है । राजा कुटिलता के साथ उसे लाते हुए बीच रास्ते में तलवार से गर्दन काटकर उसकी हत्या कर देता है। किंतु वापसी में अपराध बोध या (?)से उसकी दस्तक- धमक हर जगह सुनाई देती है ।और उसे वह दिखती भी है। सचमुच में देवी के रूप में उसका डभरा में आगमन हो चुका था । मगर उसने किसी भी प्रकार का प्रतिशोध नहीं लिया ।उसकी बस एक ही सोच थी कि मैं जिसको अपना कह चुकी हूं । वह मेरा है। भले ही उसने मुझे इसके बदले मौत दिया पर वह मेरा अपना है ।और उसका प्रत्येक अपना भी मेरा अपना है।
और वह माता आज आराध्या होकर डभरा में जाग्रत देवी के रूप में विराजमान हैं ।उसका संकल्प वही है... तुम मेरे अपने हो ।तुम्हारा हर चीज मेरा अपना है। ना केवल आज बल्कि आने वाले सभी समय में भी । जहां जो व्यक्ति इस धरा को स्पर्श करेगा ,वह मेरा अपना अपमान है । इस घटना को लेखक द्वारा अत्यंत सरलता के साथ दृश्यों में उसे उकेरा है । उसे तो गुड़ी के द्वारा मंचित और डॉ योगेंद्र चौबे द्वारा निर्देशित इस नाटक को प्रत्यक्ष देख कर ही अनुभव किया जा सकता है।
' रानी दई डभरा के ' एक सम्पूर्ण नाटक है।इसमें नाटक के सभी तत्व मौजूद हैं
1.कथावस्तु-
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नाटक में तीन प्रकार की कथाओं का उल्लेख किया जाता है –
१ प्रख्यात
२ उत्पाद्य
३ मिश्र प्रख्यात कथा
इस विश्लेषण में यह उत्पाद्य होते हुए भी ' मिश्र- प्रख्यात ' कथानक है।जनश्रुति और किवदंती को सहारा लेकर लेखक की कल्पना का भी योगदान है।
इन कथा आधारों के बाद इस नाटक में 'मुख्य' तथा 'गौण ' अथवा 'प्रासंगिक ' भी मौजूद है, जो मुख्य कथानक को अभिसिंचित करते हुए चलता है । इसमें प्रासंगिक के भी आगे 'पताका ' और 'प्रकरी ' भी हैं । है। इसके अतिरिक्त नाटक की कथा के विकास हेतु कार्य व्यापार की पांच अवस्थाएं -प्रारंभ ,प्रयत्न , प्रत्याशा, नियताप्ति और कलागम सभी मौजूद है।
इसके अतिरिक्त इस नाटक में पांच संधियों को भी चिन्हित किया जा सकता है।
2.पात्र और चरित्र चित्रण
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' रानी दई डभरा के ' एक नायिका प्रधान नाटक है । प्रतिनायक या खलनायक की जगह पारंपरिक जमीदार है जिसके समक्ष स्त्री -वीर भोग्या वसुंधरा की तर्ज पर वसुंधरा ही बन कर खड़ी है , जिसे जो चाहे अपनी बाजूओं के बल पर भोग ले ।
नाटक में पताका और प्रकरी के प्रचलन के लिए बहुत सारे पात्र आते- जाते रहते हैं ।पर राजा के बेटे के रूप में एक सह नायक भी उपस्थित होता है जिसके ह्रदय में नारी के प्रति श्रद्धा का प्रथम अंकुरण होता है । क्योंकि वह उसके वात्सल्य से अभिभूत है ।पात्रों का संयोजन अत्यधिक समीचीन है जिसे योग्य निर्देशक ने अपनी कल्पना प्रवणता के बल पर थोड़ा मोड़ा फेरबदल भी कर लिया है ।
3.संवाद
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इस नाटक के संवाद सरल , सुबोध , स्वभाविक तथा पात्रअनुकूल छत्तीसगढ़ी में हैं जिसमें मिट्टी की सुगंध आप आसानी से पकड़ सकते हैं ।नीरसता के निरावरण तथा पात्रों की मनोभावों को व्यक्त करने के लिए स्वगत कथन तथा गीतों की योजना भी है।
4.देशकाल और वातावरण-
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देशकाल वातावरण के चित्रण में नाटककार युग अनुरूप चित्रण करने मे विशेष सतर्क रहा है। पश्चिमी नाटक के देशकाल के संकलनत्रय- समय, स्थान और कार्य की कुशलता के बीज भी यहाँ उपस्थित है।
इस नाटक में स्वाभाविकता , औचित्य तथा सजीवता की प्रतिष्ठा के लिए देशकाल वातावरण का उचित ध्यान रखा गया है। पात्रों की वेशभूषा, तत्कालिक धार्मिक , राजनीतिक , सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप है।
पर एक दृश्य में नायिका का दोहरा गेटअप- सधवा और विधवा स्त्री का अद्भुत आकर्षण की उत्पत्ति करता है । वह विधवा की तरह श्वेत वस्त्र धारण किए हुए हैं ,जबकि सधवा की तरह मांग में सिंदूर है ।इस प्रकार निर्देशक और लेखक की आत्मा का एकालाप होते हुए अद्भुत फंतासी की रचना हो जाती है और नाटक अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है ।
5. भाषा -शैली
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नाटक 'रानी दई डभरा के ' की भाषा शैली सरल , स्पष्ट और सुबोध है । जिससे नाटक में विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न होता है। बोलचाल की छत्तीसगढ़ी में रची गयी इस नाटक से प्रेक्षक सहजता से जुड़ जाते हैं।
6. उद्देश्य
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यह नाटक नारी विमर्श को केंद्र में रख कर प्रस्तुत होता है। पुरुष पहले स्त्री को उपभोग की सामग्री मानकर उसका उपभोग करता है। यहां तक कि उसकी हत्या भी कर देता है ।और कालांतर में, उसी को देवी मानकर उसकी आराधना भी करता है । पुरुष के इस दोहरे और दोगले चरित्र को यह नाटक बखूबी उजागर करता है । ना केवल छत्तीसगढ़ अभी तो भारत के कई भूभाग पर ऐसे मिलते -जुलते वृतांत वाले कई किस्से मिल जाते हैं । जिसमें पहले पुरुष अनाचार, दुराचार ,अत्याचार सब करता है। बाद में आराध्या बनाकर उसका उपासक बन जाता है ।आज नारी सशक्तिकरण के इस युग में किसी नारी के प्रति ऐसे अत्याचार की पुनः पड़ताल की जा रही है । और नाटककार का यही प्रतिपाद्य विषय वस्तु भी है । नारी विमर्श को प्रस्तुत करना नाटककार का मूल उद्देश्य है ।
7. मंच-ध्वनि-प्रकाश-अभिनेता
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निर्देशक डॉ योगेंद्र चौबे रूप , आकार , दृश्यों की सजावट और उसके उचित संतुलन , परिधान , व्यवस्था , प्रकाश व्यवस्था आदि का पूरा ध्यान रखते हुए इसे आधुनिकता से लबरेज रखते हैं। लेखक की भी दृष्टि रंगशाला के विधि – विधानों की ओर विशेष रुप से है। इन सब में इस नाटक की सफलता निहित है।
ऐसे ही 'पहटिया ' भी पूर्ण सिद्ध नाटक है।भूमकाल आंदोलन -गुण्डाधुर को जिस सहजता के साथ मंच पर उतारा जाता है वह डॉ0 योगेंद्र चौबे की व्यक्तिगत उपलब्धि है । मिर्जा मसूद के रेडियो रूपक को इसमें उन्होंने अपनी कथा का आधार बनाया है ।और एक नवीन नाटक की रचना की है । 'पहटिया ' के बहाने समग्र छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन का एक सशक्त बानगी हम मंच पर देख लेते हैं ।यह डॉक्टर योगेंद्र चौबे की एक निर्देशक के रूप में निर्देशित की जाने वाली श्रेष्ठ नाटकों में शुमार है । रंगमंच के सभी तत्वों को सभी नोर्मों को पूरा करते हुए अत्यंत सारगर्भित एवं प्रभावशाली प्रस्तुति देखने को मिलती है । या छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों की दास्तान है जिसमें गेंद सिंह , वीर नारायण सिंह से आगे चलकर गुंडाधुर तक कथा विस्तार पाता है पर केंद्र में एक पहटिया है जिसके द्वारा कथा विस्तार होता है ।
इसी क्रम में डॉक्टर योगेंद्र चौबे के द्वारा पं0 द्वारका प्रसाद तिवारी' विप्र ' के कई नाटकों का भी मंचन किया गया है ।
इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी सिद्ध नाटकों की श्रेणी में और कई नाम शामिल हैं। जिसमें राकेश तिवारी द्वारा निर्देशित नाटक- राजा फोकलवा, अजय आठले के प्रसिद्ध नाटक 'बकासुर', घनश्याम साहू का अघनिया प्रमुख है । प्रख्यात रंगकर्मी मिनहाज असद, मिर्जा मसूद ,सुनील चिपड़े जैसे कई रंग निर्देशकों ने कुछ अनुदित छत्तीसगढ़ी नाटकों का भी मंचन किया है और छत्तीसगढ़ी भाषा की श्री वृद्धि की है ।
लोक कथा शैली के अद्भुत रचनाकार श्री विजय दान देथा की मूल कहानी पर आधारित डॉक्टर योगेंद्र चौबे का 'बाबा पाखंडी ' दूसरा 'चरणदास चोर' बनने की राह पर चल निकला है । लोक नाट्य शैली नाचा और पंडवानी गायन को अपने आप में आत्मसात करते हुए यह यह नाटक 70 से भी अधिक बार मंचित किया जा चुका है । नाट्य लेखन, परिकल्पना और निर्देशन प्रसिद्ध रंग निर्देशक और रंगकर्मी डॉक्टर देवेंद्र चौबे का है ।आप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ,दिल्ली के उत्पाद हैं ।
बाबा- पाखंडी ,एक प्रकार से जन नाटक ही है। इसमें रंग जगत की तकनीक कम, कला और कौशल के साथ ही व्यक्ति का जीवन प्रमुखता से उतरा है । बाबा पाखंडी वह नाटक है जो लोग की चिंता करता है ।जन की चिंता करता है ।और राजनीति के चाटुकार प्रवक्ता मीडिया की मुखालफत भी करता है। और बाबा पाखंडी जैसे अवांछनीय तत्व को गधे की सवारी प्रदान करने का दुस्साहस भी करता है । और गधा भी कोई ऐसा वैसा नहीं, परम सत्यवादी , जो अपने हृदय परिवर्तन के उपरांत विद्रोही हो जाता है ।और अपने मालिक बाबा के खिलाफ मुंह खोलता है ।तब- गधे ने किया कमाल, जी सच का लिया है नाम... जैसे गीत की मंत्रमुग्धकारी सामूहिक प्रस्तुति होती है । एक प्रकार सदैव सत्ता से पंगा लेने वाले और आखिरी सिरे पर खड़े हुए 'आदमी ' की तलाश में भटकने वाला- एक्टर इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन का जननाट्य धर्मी तेवर इसमें कहीं ज्यादा प्रखरता से दिखाई देते हैं ।धर्म ,अंधविश्वास और धन को राजनीतिकारों ने अपना हथियार बना रखा है । बाबा पाखंडी की रचना करने वाले ने बाबागिरी के धंधे को कारपोरेट जगत से भी ज्यादा लोकलुभावन और संपन्न पाया । अपने तमाम कूटनीतिक दांव पेंच लगा विश्वास, खेल ,रिश्ता, लोक, भयदोहन ,सत्ता प्राप्त करने की अभीप्सा के बीच -बाबा पाखंडी का अवतार होता है । और एक ही आवाज में यह बहुत कुछ कह जाता है । रामनाथ साहू के नाटक- जागे जागे सुतिहा गो ! में भी यही बुना गया है । गांव का भ्रष्ट कोटवार कोटवानंद बन जाता है । यह नाटक तत्कालीन पढ़े-लिखे ,संभ्रांत कुलीन जैसे बड़े-बड़े शब्दों से विभूषित किए जाने वाले समाज में भी बाबाओं की गहरी पैठ पर सीधा प्रहार करता है कि संबंधित व्यक्ति तिलमिलाने के सिवा और कुछ नहीं कर पाता है । नाटक का मुख्य पात्र रंग बदलने वाला गिरगिट जिसे छत्तीसगढ़ी में 'टेटका' कहा जाता है । यह राजनीति और बाबागिरी की जो दुरभि संधि है,उसे पूरी तरह से परत दर परत उखाड़ता है। जमीन पर पड़े हुए आखरी तृणमूल व्यक्ति से मंदिर के कंगूरे जैसा सत्तासीन होने का जो प्रपंच और छल है उसे यह नाटक प्रदर्शित पूरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करता है ।
यद्यपि सिनेमा नाटक एवं रंगमंच की इतर वस्तु है ।इसके बावजूद भी डॉ योगेंद्र चौबे के निर्देशन चमत्कार को हम 'गांजे की कली ' में देख चुके हैं ।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ी नाटक भी अपनी पूरी क्षमता के साथ किसी भी रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सक्षम हैं ।
*रामनाथ साहू*
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