Wednesday, 8 January 2025

पुस्तक : ठग अउ जग, दुर्लभ छत्तीसगढ़ी हास्य लोककथा संग्रह”

 “पुस्तक : ठग अउ जग, दुर्लभ छत्तीसगढ़ी हास्य लोककथा संग्रह”


लेखक - वीरेंद्र सरल


प्रकाशक - कल्पना प्रकाशन, बी - 208 / ए, गली नं - 2, मजलिस पार्क, आदर्श नगर, दिल्ली 110033


मूल्य - ₹450/-


ISBN 978-81-19366-09-2


प्रथम संस्करण - 2023


                      “समीक्षा”


समीक्षक : अरुण कुमार निगम, आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़


“लोककथा” - 


साहित्य की दो प्रमुख विधाएँ हैं, गद्य विधा और पद्य विधा। मुझे ऐसा लगता है कि गद्य विधा का जन्म लोक कथाओं से और पद्य विधा का जन्म माँ की लोरियों से हुआ होगा। दोनों ही विधाएँ वाचिक परम्परा की हैं। लोक कथा की बात करें तो पुरातन काल में कृषि ही मुख्य व्यवसाय हुआ करता था और कृषि कार्य के उचित निष्पादन के लिए संयुक्त परिवार हुआ करते थे। युवा और अधेड़ तो दिन के समय में खेतों में चले जाते थे और घरों में रह जाते थे वृद्ध जन और बच्चे। इनके पास समय ही समय होता था। तब खाली समय में परिवार के दादा-दादी और नाना-नानी बच्चों के मनोरंजन के लिए उन्हें काल्पनिक कथाएँ सुनाया करते थे। इन कथाओं में नीतिपरक संदेश भी शामिल हुआ करते थे ताकि बच्चे संस्कारवान बन सकें। लोक कथाओं के पात्र प्रायः ग्रामीण परिवेश के ही होते थे। कुछ कथाओं में राजा-रानी होते थे तो कुछ कथाओं में भूत-प्रेत, दैत्य-परी जैसे काल्पनिक पात्र भी होते थे। इनके अलावा पशु-पक्षी, जीव-जंतु, वनस्पति और निर्जीव वस्तुओं का मानवीकरण भी हुआ करता था। लोक कथाओं के महत्व को किसी भी काल में नकारा नहीं जा सकता। नयी पीढ़ी को सुसंस्कृत करने के लिए लोक कथाएँ एक सशक्त साधन हैं। छत्तीसगढ़ में एक लोक मान्यता यह भी है कि अधूरी लोक कथा कहने या सुनने से उनका मामा रास्ता भूल जाता है। 


“जीवन शैली में बदलाव” - 


मानव समाज ज्यों-ज्यों विकसित होता गया, जीवन-शैली बदलती गयी। मनोरंजन के अनेक साधन बनते गये। संयुक्त परिवार, एकल परिवारों में टूटते गए। दादा-दादी, नाना-नानी और नाती-पोते एक दूसरे से दूर होते गये। दादा-दादी और नाना-नानी को छोड़ कर सभी के पास समय का अभाव होता गया। लोक कथाएँ स्मृति-पटल से धुँधलाती हुई लुप्त होने के कगार पर पहुँच गईं। आधुनिक जीवन की भागमभाग में लोक कथाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। हाँ, कुछ विचारशील और प्रबुद्ध लोगों ने लुप्त होती हुई लोक कथाओं को संकलित कर संरक्षित करने का बीड़ा अवश्य उठाया है। ऐसे ही विचारशील और प्रबुद्ध लोगों में मगरलोड के साहित्यकार वीरेंद्र सरल का नाम अग्रणी पंक्ति में आता है। 


“लोक कथाओं पर वीरेंद्र सरल की किताबें” -


वीरेंद्र सरल ने “कथा आय न कंथली” शीर्षक से एक किताब प्रकाशित करवाई जिसमें छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं का संकलन है। इस किताब के प्रकाशन के बाद भी उनका मन नहीं माना तो उन्होंने अब “ठग अउ जग” शीर्षक से एक किताब और प्रकाशित करवा ली है। इस किताब में बत्तीस लोक कथाओं का संकलन है।

वाचिक परम्परा की लोक कथाओं का संकलन अत्यंत ही कठिन कार्य है क्योंकि लोक कथाएँ सुनाने वाली पीढ़ी के अधिकांश लोग इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं, कुछ लोगों की स्मरण शक्ति समाप्त हो चुकी है। बस गिनती के कुछ लोग ही बचे हैं जिन्हें वे लोक कथाएँ याद हैं। दूसरा सबसे कठिन काम है, मौखिक लोक कथाओं को लिपिबद्ध करना। सुनने के साथ-साथ लिखते जाना व्यावहारिक रूप से संभव भी नहीं हो पाता। सुनाने का एक प्रवाह होता है, बस सुनकर याद रखते जाओ और बाद में उसे लिखित स्वरूप प्रदान करो। वीरेंद्र सरल जी ने अपने उपनाम को सार्थक करते हुए, अत्यंत ही कठिन कार्य को सरल करके बताया है, इस हेतु वे साधुवाद के पात्र हैं। प्रत्येक वृद्ध के पास अलग-अलग लोक कथाएँ होती है। वे न जाने कितने वृद्धजन से मिले होंगे, उनसे लोक कथाएँ सुनी होंगी, याद रखा होगा फिर लिखा होगा। निस्संदेह वीरेंद्र सरल जी का यह कार्य सराहनीय है। 


“श्रवण और लेखन” - 


कानों सुनी कथाओं को लिपिबद्ध करना भी कोई आसान काम नहीं होता है। कथानक में भाषा का ध्यान रखना होता है। आंचलिक शब्दों के प्रयोग के प्रति सचेत रहना पड़ता है। लोकोक्तियों और मुहावरों का सटीक प्रयोग करना पड़ता है। पात्र अनुसार वाक्य-विन्यास और भावों में संतुलन रखना पड़ता है। इन सबको साधते हुए कथा के प्रवाह को बनाये रखना पड़ता है। 


“इस संकलन में प्रयुक्त कुछ लुप्त होते हुए शब्द देखिए” - 


जीव बिट्टागे, अम्मल, पान रोटी, बेंझहारत, डेरौठी, निझमहा, कुल-बोरूक, मनटूटहा


“इसी तरह से मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी देखिए” - 


हरियर खेती, गाभिन गाय, जभे बियाय तभे पतियाय। दूसर के आँखी मे सपना नइ दिखे।

जिनगी के चिट्ठी चिराना।

टेटका के पहिचान बखरी तक।

उही जबान आ कहिथे अउ उहीच ह जा।

करम के नाँगर ला भूत जोते।

अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान।

दुब्बर बर दू आषाढ़।

खाय बर लरकू, कमाय बर टरकू।

देखा सीखी लागे बाय, चुम-चाँट के सबो जाय।

रोगहा ला छोड़ के बनाये रोगही, तोर करम के भोग ला कोन भोगही।


“लोक कथाओं में छत्तीसगढ़ के खान-पान”-


पान रोटी, चुनी-भूँसी के रोटी, भाजी-कोदई के साग, गुड़हा चीला, मुठिया रोटी, दूध-भात, मछरी-भात, बरा-रोटी, रोटी-पीठा, बरा-भजिया, खीर-सोंहारी, डुबकी-कड़ही, डुबकी-बफौरी, मालपुआ, गुलगुल भजिया, महरी-पेज


“लोक कथाओं में छत्तीसगढ़ का पहनावा”-


बारह हाथ की धोती, खुमरी-कमरा, 


“ठग अउ जग लोककथा संग्रह” : 


इस लोक कथा संग्रह में बत्तीस लोक कथाएँ संकलित हैं। प्रत्येक लोक कथा में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था दिखाई देती है। इनमें ग्रामीण पत्रों के अलावा राक्षस, देवी-देवता जैसे काल्पनिक पात्र हैं। कुछ कथाओं में पात्र को लेड़गा बताया गया है किंतु यही लेड़गा बड़ी चतुराई से बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य करने में सफल होता दिखाई देता है। कुछ लोक कथाओं में प्रकृति, पशु-पक्षी, जीव जन्तु, पेड़ पौधे, कीट पतंगे आदि का भी मानवीकरण किया गया है। कुछ कथाओं में चमत्कार, तिलस्म और जादू जैसी पारलौकिक शक्तियों का भी वर्णन किया गया है। कुछ कथाएँ कमरछठ पर केंद्रित हैं। कुछ कथाएँ श्राप पर आधारित हैं तो कुछ कथाओं में अंधविश्वास भी दिखाई देता है। जिज्ञासा बढ़ाती हुई इन लोक कथाओं का प्रवाह प्रशंसनीय है। ये लोक कथाएँ मनोरंजक, ज्ञानवर्द्धक और शिक्षाप्रद हैं। ये लोक कथाएँ बच्चों में कल्पनाशीलता बढ़ाएंगी जिससे उनमें रचनात्मकता का विकास होगा। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि इस किताब की लोक कथाएँ बच्चों के चरित्र निर्माण में सहायक साबित होंगी।


“कमियाँ” : 


यह एक समीक्षा है अतः किताब की कुछ कमियों की ओर भी ध्यान आकर्षित करना मेरा कर्तव्य बनता है। पहली कमी - मुख पृष्ठ पर “दुर्लभ छत्तीसगढ़ी हास्य” शब्द-समूह निरर्थक लग रहा है क्योंकि संकलित सभी लोककथाएँ हास्य-प्रधान नहीं हैं। दूसरी कमी - व्याकरण की दृष्टि से छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुनासिक (चन्द्र बिंदु) का प्रयोग अपरिहार्य होता है। कुछ स्थानों पर अनुनासिक का प्रयोग ही नहीं किया गया है और कुछ स्थानों पर अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। हालाँकि यह टंकण त्रुटि भी हो सकती है। इन दो त्रुटियों के अलावा मुझे और कोई कमी नजर नहीं आई।


शुभकामनाएँ - 


राष्ट्रीय स्तर पर व्यंग्यकार के रूप में स्थापित वीरेंद्र सरल जी ने छत्तीसगढ़ की लोक कथाओं के संकलन में रुचि दिखाते हुए अथक परिश्रम से छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं को पुस्तक का आकार देकर न केवल नयी पीढ़ी बल्कि छत्तीसगढ़ी साहित्य के खजाने में अपना अमूल्य योगदान दिया है इस उत्कृष्ट कार्य हेतु उन्हें मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। 


शुभेच्छु एवं समीक्षक - 


अरुण कुमार निगम

संस्थापक : “छन्द के छ-ऑनलाइन गुरुकुल”

छत्तीसगढ़

संपर्क - 9907174334

जीमेल - arun.nigam56@gmail.com

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