Thursday, 9 January 2025

अन्न हे त टन्न हे, नइते सना सन्न हे !!

 अन्न हे त टन्न हे, नइते सना सन्न हे !!


भीड़ के कोनो चेहरा नइ होवय, अभाव के चेहरा भलुक आरूग चुकचुक ले होथे। अभाव के दर्षन करे बर होवय त किसान के थोथना ल देख लेवय। चिरहा चेंदरा के आड़ ले पोचकत पेट ल झाँक लेवय। भारत गँवइहा अउ किसनहा देष हरे। इहाँ गाँव के मनमाड़े भीड़ हवय अउ गाँव-गँवई म किसान मन के भीड़ हे। भीड़ माने अभाव के मेला हे। ते हिसाब ले देखबे त भारत के कोनो चेहरा नइहे, मुड़कट्टा हे, फेर भारत ल तो सोनचिरइया ये कहिथे। माने देष दूमुँहा हे, देष के वासीमन दूमुँहा हे। संगे-संग हाथी बरोबर दूदँत्ता तको हे, एक दाँत कुकुर कस सपटके मुसर-मुसुर खाए के, त एक गिजिर-गिजिर करत खबखब ले देखाए के। जब ये हाथी एके ठन हे, देष एके ठन हे त ये चेहरा अउ दाँत दू किसम के कइसे ? सोन के चिरइया दाना-तिनका के मोहताज काबर ? जगमग चमचमावत महल-अटारी बनइया के कुरिया कुलुप अंधियार काबर ? जम्मो बिपत जाँगर टोर जग के पेट भरइया भूँइया के भगवान बर काबर ? 


जगत के जम्मो प्राणी, चाहे वोह रिंगीचिंगी होवय कि साँगर मोंगर, पेट म अन्न परे ले टन्न रहिके अँटियाथे। कतको बड़े पहलवान हो जाय, चार दिन लांघन-भूखन रख दे, जम्मो नस-बल राई छाँई हो जथे। अगास उड़इया के तको एक दिन भूँईया म पाँव माढ़थे अउ छोटे-बड़े सबो ह भूँईया के भगवान के ओगारे पसीना के नून ल चाँटके जीथे। महल के रहइया गुनहगरा, अप्पत अउ घेक्खर मन भले उन्कर अभार ल झन मानय। फेर नून सबो ल लगथे। ये बात अलग हे के कोनो ल जादा लगथे कोनो ल कमती। कोनो नममहलाल हो जथे त  कोनो नमकहराम। ये कमती अउ जादा के निर्वार भगवान नई करय। वो तो जम्मो ल एके आँखी ले देखथे, एकेच लाठी म हाँकथे। भावना के आँखी, मेहनत के लाठी। 


ये भूइँया के भगवान हर खेती अपन सेति कहिथे भर अउ भाव सर्वे भवन्तु सुखिनः के रखथे। इन अपन मेहनत ले कभू जी नई चोरावय। इन कभू जाँगर चोराए बर जानबेच नइ करय, तभे तो कुला खाय माटी तब मुँह खाय भाती के ददरिया गावत-अलापत दिनरात खेत म जीव ल देय जीपरहा बरोबर कमावत रहिथे। ये बात अलग हे कि खैटाहा, गरकट्टा अउ बइमान मन इन्कर संग नियाव नइ कर सकय। 


आज के मनखे करमछँड़हा, नीयतखोर अउ लतखोर होगे हावय। नाक ल ऊँच करके चमकत चमचमावत माँहगी गाड़़ी म चढ़के बाजार जाथे। दस रूपिया के झोला धरे म उन ल नाक कटाए अस लगथे। बेषरमी, बेकदरी अउ अउ बेअदबी के हद तो तब हो जथे जब दस रूपिया के बंगाला ल सात रूपिया म मलोवन माँगथे अउ उपराहा म बंगाला धरे बर झिल्ली तक ल तँही दे कहिथे। किसाने के भीख के दिए धनिया म अपन राषन, आसन अउ भाषण ल महकाथे। इन जीछुट्टा मन के चलय त इन बंगाला के चटनी पसरे म पिसवा के घर लानय। उल्टा कहि देवय - हम तोला पोंसत हन, तैं हमर बर का करे। पद पाए, ताहेन पाद मारे। तभो इन ल लाज नइ लागय। अतेक दुख ल सहिके तको बपुरा बिचारा किसान टूटहा करम के टूटहा दोना, दूध गँवागे चारो कोना कहिके अपन आप ल समझा समोख लेथे। 


डार के चूके बेंदरा, असाड़ के चूके किसान। डार अउ खार दूनो के बेंदरा अपन लक्ष्य ल बिलकुल जानथे-समझथे। तभे तो इन जी परान देके कमाए बर नइ छोड़य। खेती म बने उपज होना इन्कर सौभाग्य होथे अउ फसल के नास होना मऊत बरोबर दुखदायी। जिनगी कतकोन अभाव, बिसम अउ बिपत म बीतय इन जुगजुगावत आसरा के फूचरा अँचरा ल छिन भर नइ छोड़य। आसरा भले चेंदरा-चिथिया जावय, अपन मेहनत के चकमक पथरा ल घिसके उहू म चिनगारी जगो लेथे। ये चिटिक चिनगारी अनन्त-अनन्त उर्जा अउ ऊष्मा के दाहकत रगरगावत भट्ठा होथे। इही चिनगारी संसार ल गति, मति अउ शक्ति देथे। जीत के मुकुट मुड़ म भले नइ परिरै फेर हार काला कहिथे उहू ल नई जानय। बिन मुकुट, बिन खडग, बिन ढार के ये स्वयंभू राजा, अपन हौसला अउ हिम्मत ले हार के रार मता देथे। 


राहेर कोदो के कोनो संग नइ बनै तभो इन एक दूसर के पूरक होथे। तभे तो हिजगा के खेती ल भलुवा खाय काहत माटी म माटी मिल कमाथे अउ कहिथे-अधिया के खेती, सहजी के रोजगार, बजारू औरत के संग अउ उधारी कभू नइ करना। सही म देखे बर मिलथे - उत्तम खेती अपन सेती, मध्यम खेती भाई सेती, निक्कट खेती नौकर सेती, बिगड़ गई तो बलाय सेती। 


आसरा, आष्वासन अउ विष्वास ले दुनिया चलत हे। लेगही राम त रखही कोन, रखही राम त लेगही कोन। इही आसरा के नाँगर म जाँगर पेर किसान जिनगी कुसियार के रसा ल निचो-चुहक लेथे अउ उछाह-उमंग के कतरा बनाके खा लेथे। तभे तो कहिथे- खेती तो थोरी करै, मेहनत करै सवाय, राम चहै वा मानुस को, टोटौ कभूअन आय। इन जानथे कि खेती जुआ हरे। पा गे त पौ बारा, नइतो सरबस वारा-न्यारा। आइस कातिक फुलिस गाल, सावन भादो उही हाल। गाँठ बँधाए जोड़ी संग निभना -निभाना कइसे होथे तेला किसान जानथे। सुख होवय के दुख होवय जिनगी के गाड़ी दूनो पाटा के सुमत बिगर अधबीच्चे म धपोर दिही, तेकर सेती संघेर के चलना अपन परम करम धरम मानथे। जिनगी के संगवारी रिसाए ल धरथे त संगी ल अउ किस्मत रिसाए बर धरथे त किस्मत संग ठट्ठा अउ हाँसी-मजाक करत ओकर सुघरई ल सहिरावत मना लेथे। मन मसोस के भले रहि जाय, फेर मया पझराके जिनगी के मजा उड़ा लेथे। ठाढ़े खेती गाभिन गाय, तब जानौ जब मुँह में जाय। सम-बिसम, सुकाल-दुकाल अउ सम्मत-बिपत म सामंजस्य ल बइठारे बर किसाने जानय। उन जानथे कि पंचमी कातिक शुक्ल की जो होवै शनिवार, तो दुकाल भारी परै मचिहै हाहाकार। जब बरखा चित्रा म होय, सगरी खेती जावय खोय।


ये सुकाल के बेरा ल तको जानथे -रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय, कहै घाघ सुनि घाघिनी स्वान भात नही खाय।

आद्रा बरसे पुनर्वसु जाय, दिए अन्न कोई न खाय।

आद्रा के बरसे, महतारी के परसे, जऊन नइ अघाइस तऊन जिनगी भर तरसे। 

गाँव म घर नहीं, खार म खेत नहीं, तभो ले इन जिनगी ले हार नइ मानय। अपन मेहनत के भरोसा खुद संग दुनिया के पेट ल पाल-पोस डरथे। शायद इंकर इही जीवटता ल देख के दुनिया जलथे। ठौं-ठौं म इन ल कमजोर करे के ताना -बाना बुनथे। तरीवाले तो तरीवाले ऊपरवाले तको कभू इंकर नरी ल दबा-चपक के राखे बर दूब्बर बर दू असाड़ लान देथे। 


गँहू संग कीरा रमजाए कहिथे, तेन सोला आना सही हे। करनी कोनो करय, भरय कोनो। बिकास के मुकुट पहिरे मटमटावत वर्तमान पवन, पानी अउ माटी ऊपर कतका अति करत हावय। पखरा के अल्लार जंगल उगावत हे। ठौं-ठौं म बिख बोवत हावय अउ मँगरा के आँसू रोवत हावय। सबो जानत हे तभो बिलई कस आँखी ल मूँदके मुँह मिटकियाए बइठे हावय। आँखी ल मूँदके बिलई भले सोच लेवय कि कोनो ल नई दीखत हे, ये ह ओकर भरम हरे। ये भरम के भूत जब तक नई उतरही दुनिया नई उबर सकय। माटी के मान, पानी के जान अउ हवा के शान ल मितान कस मया समोख के बनाए रखना सबो के कर्तव्य हरे। बिलई के गर म घाँटी कोन बाँधय। भूत के छूत ह किसाने भर ल काबर लगय ? मेहनत करय कुकरा, अण्डा खाय फकीर। ये लकीर जब तक नइ मेटाही बिपत के सुरसा अइसनेहे मुँह बाए दुनिया ल खाए बर दँऊड़ते रहिही। अक्कल के न बुध के, बनिया मारे कूदके। एसी रूम म बइठ के किसान अउ किसानी के गोठ करे भर ले किसान के किस्मत नइ सँवरय। 

पानी म गोबर करही तेन उफलबे करही। ऊँचहा अटारी के रहइया, हवा म उड़इया दुनिया भोरहा म झन राहय कि हमरे भर चिक्कन चाँदर रहे ले जग म सुघरई आ जही। करनी दीखय मरनी के बेर। बिपत बताके नई आवय, न ककरो नेवता झोंकय। जब आ परही त कतको आपत्ति कर वो अतेक अप्पत होथे कि अपन जम्मो सँऊख पूरा कर लेही। छिन भर नइ लगय मनखे के जम्मो सँऊख पूरा हो जही।



धर्मेन्द्र निर्मल 

9406096346

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