. *अहसास*
(तीन छत्तीसगढ़ी लघुकथायें : वृद्धजनों की
व्यथा-कथा)
-डाॅ विनोद कुमार वर्मा
( 1 )
बिलासा कला मंच के दीपावली मिलन कार्यक्रम इतवार के दिन मँझनिया तिलक नगर स्कूल मा होवत रहिस। मँय उहाँ सपत्नीक पहुँचे रहेंव। स्कूल के मैदान मा कतकोन छोटे-छोटे खेल बिलासा कला मंच के डहर ले आयोजित रहिस..... फूगड़ी, गेड़ी दौड़, रस्सी खींच,नरियर फेंक अउ कतकोन ठिन। नारियर फेंक मा महूँ शामिल रेहेंव, देखेंव कि कतको झन अधेड़ संगवारी मन के नरियर 15 - 20 फुट ले जादा दूरिहा नि गिरत रहिस। तभे एक झिन कच्चा उमर के टूरा नरियर ला 50 फुट दूरिहा फेंक दीस! एक-दू झिन के नारियर 30 फुट दूरिहा मा घलो गिरिस। मने-मन मैं बहुत खुश रहेंव कि कम से कम दूसरा नंबर तो अइच्च जाहूँ। इनाम ले कोई मतलब नि रहिस, मतलब रहिस सिरिफ ये कि उहाँ अपन-आप ला साबित करना हे। कालेज मा नरियर फेंक मा मैं हमेशा अव्वल आवँव। तभे एक झिन नरियर ला 40 फुट दूरिहा फेंक दीस। एकर बाद मोर नंबर रहिस। मने-मन भगवान ला सुमरेंव अउ नरियर ला पूरा जोर लगा के फेकेंव। मोला उम्मीद रहिस कि नरियर 40 फुट ला नहाक जाही। फेर देखेंव त 15 फुट दूरिहा मा नरियर हा गिरे-परे रहे! एक झिन संगवारी पाछू ले कमेंट करिस- ' बुढ़ापा आ गे हे सर जी! नरियर फेंक ला जीतना हमर-तुँहर बस के बात नि हे!'
तब मोला पहिली बार अहसास होइस कि सचमुच बुढ़ापा आ गीस हे,..... तभो ले ये बात ला माने बर मन हा तियार नइ हे!
. ( 2 )
पूस के महीना। संझाती 06 बजती बेरा। ठंड बढ़ गे रिहिस। स्वेटर पहिने अउ कनटोप लगाये स्कूटर मा नेहरू चौक के पेट्रोल पंप मा पहुँचेंव। आघू वाला अपन स्कूटर मा पेट्रोल भराय के बाद मोबाईल म बात करे लगिस। तुरते पेट्रोल पंप के कर्मचारी मीठा आवाज मा बोलिस- ' भाई साहब! उमर के चेत करव....पाछू मा कोन हवय।अतका उमर मा तो आप रेंगे तक नि सकिहव! '
आगू के स्कूटर वाला ' साॅरी ' बोलिस अउ तुरते हट गे। ओ दिन सचमुच मोला अहसास होइस कि अब मैं सत्तर पार हो गे हवँ! बुढ़ापा आ गीस हे,....... तभो ले ये बात ला माने बर मन हा तियार नि हे!
. ( 3 )
ट्रेन मा आज भीड़ रहिस। जनरल बोगी मा चढ़ना मुश्किल रहिस त मैं स्लीपर कोच म चढ़ गेंव। रायपुर ले बिलासपुर के सफर दू घंटा के रहिस। मैं जगा के तलाश बर आघू बढ़ेंव.... ट्रेन मा दू घंटा खड़े रहना मुश्किल रहिस। कालेज के जमाना मा पसिंजर ट्रेन मा कतको बखत चार-पाँच घंटा तक खड़े-खड़े सफर करे रहेंव, फेर अब बात अलग हे। आज ट्रेन मा सबो सीट फुल रहिस। थोरकुन अउ आघू बढ़ेव त देखथों कि दू झिन टीसी कुछ हिसाब-किताब निपटावत सीट मा बइठे रहिन। जी धक् ले करिस!..... कहीं फाइन झन ठोंक दें! एमन के का भरोसा..... रेल्वे के नावा-नावा नियम अउ चेकिंग करइया नावा पीढ़ी के कच्चा उमर के लइका!
एक टीसी के नजर मोर उपर परिस। ओ खड़े हो गे। मोर जी धक्-धक् करे लगिस.....पता निहीं कतका फाइन ठोंकही?
' दादा जी आप बैठ जायें! '- टीसी के मीठा बोली सुन के मन ला ठंडक जुड़वास मिलिस।
' नहीं, आप लोग बैठें। मैं यहीं ठीक हूँ! '
' दादा जी आप बैठें। आपकी उमर सत्तर पार है। आपके सामने हमारा बैठे रहना शोभा नहीं देता! '
मैं ऊँकर सीट मा बइठ गें। फेर ये अहसास आज फेर होइस कि सचमुच अब बुढ़ापा आ गीस हे। आज मोर उमर ला देख के फाइन करना तो दूर टीसी अपन सीट ला घलो दे दीस! देखव तो समय के फेर! आज पहिली बार अहसास होइस कि बढ़ती उमर के घलो अपन अलग दबाब होथे। शायद एहा हमर देश के एक साँस्कृतिक पहिचान घलो हे। नई तो कतकोन पच्छिम के देश मा बूढ़ा मन ला परे-डरे मनखे समझ के परिवार अउ समाज ले दूरिहा टार देथें! ..... तभो ले ये बात ला माने बर मन हा अभी घलो तियार नि हे कि बुढ़ापा आ गे हे!
Story written by-
डाॅ विनोद कुमार वर्मा
व्याकरणविद्, कहानीकार, समीक्षक
मो- 98263 40331
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