# एक ठिन मध्यमवर्गीय परिवार के व्यथा-कथा #
*बीस रूपिया के झूठ* (छत्तीसगढ़ी कहानी)
-डाॅ विनोद कुमार वर्मा
( 1 )
' भाई तोला एक खुशखबरी सुनावत हौं! ' मोबाईल मा मनीष के आवाज ला सुनके सुमित बड़ खुश हो गे।
' का बात हे भाई! बड़ दिन बाद फोन मा तोर आवाज सुने ला मिलत हे। का खुशखबरी हे? '
' भाई मोर सुकुमा ले बिलासपुर ट्रांसफर हो गे हे। '
' अरे वाह, मैं तो समझत रहेंव कि तैं उहें मर-खप जाबे! नक्सली मन के बड़ जोर हे तुँहर इहाँ? '
. ' नहीं, कुछु जोर नि हे नक्सली मन के। ओमन आम लोगन मन ला कुछु नइ करें। ओमन के झगड़ा पुलिस अउ मुखबिरी करने वाला मन सो हे! अउ जेन बड़े ठेकेदार मन ओमन ला जबरिया उगाही नइ देवँय ओमन सो झगरा-लड़ाई करथें। बाकी सब ठीक हे। '
' अपन ट्रांसफर कइसे कराये भाई? बस्तर क्षेत्र तो अगम दरहा हे, उहाँ ले निकलना बड़ मुश्किल काम हे! '
' का बात बताओं भाई, तीन बछर ले लगे रहेंव तब ले-दे के ये साल ट्रांसफर होइस हे। पुरा किस्सा बिलासपुर आये के बाद सुनाहूँ! बड़ पापड़ बेले ला परिस। ..... भाई एक ठिन किराया के मकान ढूँढ दे- वन बीएचके या फेर टू बीएचके। तीन हजार रूपिया मंथली तक चल जाही। ओकर ले जादा देय के मोर कूबत नइ हे। '
. ' टू बीएचके खाली हे हमरे मोहल्ला मा। मोर पहचान वाला हे, सस्ता मिल जाही! मैं आजे बात कर लेवत हौं। तुमन कब तक आवत हव ? '
' जुलाई पहिला हप्ता मा आ जाबो। '
' ठीक हे, तैं अपन बोरिया-बिस्तर ला बाँध। एती ला मैं देखत हौं। '
. ( 2 )
मनीष उइके अउ सुमित साहू बचपन के खाँटी मितान रहिन। स्कूली पढ़ाई के बाद दुनों सीएमडी कालेज के होस्टल मा एके संग रहिके गणित विषय मा ग्रेजुयेशन अउ फेर कम्प्यूटर के डिप्लोमा कोर्स पूरा करिन। साल-दू-साल के भीतर प्रतियोगी परीक्षा देहे के बाद क्लर्क के पद मा मनीष के नौकरी सुकुमा के पंचायत आफिस मा अउ सुमित के नौकरी बाल विकास विभाग बिलासपुर मा लग गे। दुनों मितान के पाछू 12 साल ले कोई भेंट-मुलाकात नि होय रहिस फेर फोन मा कभू-कभू गोठ-बात होवत रहिस। ये बीच दुनों संगी के बर-बिहाव अउ लोग-लइका घलो होगे। दुनों अपन-अपन परिवार के संग राजी-खुशी रहिन अउ अइसने दिन बीतत-बीतत 12 साल गुजर गे।
अब बिलासपुर मा दुनों मितान के सुख-दुख मा साथ देवत दिन ठीके-ठाक गुजरत रहिस। एक दिन सुमित कमीज खरीदे बर मनीष के संग मोटर साइकिल मा बाजार जावत रहिस। त मनीष पुछिस- ' भाई, तोर कमीज बड़ सुग्घर दिखत हे। एला कहाँ ले खरीदे रहेव? '
' अरे झन पूछ भाई, मोर पिछले साल के बर्थ डे मा तोर भाभी एला सरप्राइज गिफ्ट देहे रहिस। ब्राँडेड कमीज हे, 1200 रूपिया के! '
एकर बाद दुनों एक ठिन कपड़ा दुकान मा कमीज देखे लगिन। तभे दुकानदार पुछिस- भाई साहब, ये कमीज ला कहाँ ले खरीदे हौ? ब्राँडेड लगत हे! '
' हाँ, ब्राँडेड कमीज हे, पाछू साल 1200 रूपिया मा खरीदे रहेंव। '
थोरकुन देर बाद ठीक ओइसनेच्च कमीज दुकानदार भीतर ले ला के दिखावत कहिस- ' भाई साहब, ये कमीज ला मैं सात सौ रूपिया मा बेंचत हौं! कलर भर के फरक हे, ले जावव! ..... साहब आपमन फालतू ब्राँडेड के चक्कर मा पड़े रहिथा। ओमन नावा लेबल लगा के दुगुना कीमत वसूल लेथें ! '
वोही कमीज ला खरीदे के बाद दुनों सुमीत के घर मा चाय पीये बर रूक गीन। सुमित अपन घरवाली ला कहिथे- ' देख तो, ओइसनेच्च कमीज खरीद के लाने हौ॔। '
' कतका मा मिलिस? '
' अरे, एक सौ रूपिया सस्ता मिलिस। 1100 रूपिया मा खरीदे हँव! '
' हाँ हाँ ठीक हे! ब्राँडेड दुकान म कुछ मंहगा मिलथे ना!'
मनीष आश्चर्य से अपन मितान के चेहरा ला देखत रहिगे! ...... कतका सफेद झूठ भाभीजी ला आज बोलिस हे!
बाहर निकले के बाद मनीष अपन मितान ले बोलिस- ' झूठ बोले के का जरूरत रहिस भाई! '
' एला अभी नि समझाय सकौं भाई। सही बखत म कहूँ त समझ पइबे। '
. ( 3 )
एक दिन शनिच्चर के बिहनिया 10 बजे सुमित अपन मितान के घर पहुँचिस। काल बेल दबाय नि पाय रहिस कि भीतर ले भाभीजी के तल्ख आवाज सुनाई परिस- ' का जरूरत रहिस कि 40 रूपिया पाव मा तिंवरा खरीदे के? अतका मा तो दू किलो पताल आ जातिस! तिंवरा साग बने मिठाथे का कहि पारेंव 40 रूपिया पाव मा खरीद के ले आया! 20 रूपिया पाव मा मिलतिस त कोनो बात नि रहिस! अतका मंहगी साग कोनो खाथें का? मैं एक-एक पैसा बचा के घर चलाथौं अउ तूँ एके पँइत सब ला फूँक देथव ! ' - भाभीजी के गुस्सा सप्तम मा रहिस। मनीष सफाई देवत रहिस फेर भाभीजी ओला सुने बर बिलकुल भी तियार नि रहिस!
सुमित काल बेल ला दबाईस त भाभीजी दरवाजा खोले आइस। भाभीजी के हाव-भाव अउ चेहरा मा अभी घलो गुस्सा छलकत रहय अउ आँखी मा आँसू। घर के भीतर जाय के बाद सुमित बोलिस- भाभीजी ये 20 रूपिया ला धरव। सब्जी वाली 40 रूपिया के आधा किलो तिंवरा बेचत रहिस अउ मनीष एक पाव खरीद के 40 रूपिया दे के आ गे। ओ तो अच्छा होइस कि सब्जी वाली हमन दुनों ला पहिचानथे त मोला 20 रूपिया वापिस करिस त वोही ला पहुँचाय आय हौं! ..... अच्छा भाभीजी लाल चाय पियावव। तुँहर बीस रूपिया बचा देय हवँ आज! '
भाभीजी के चेहरा म मुस्कुराहट आ गे! एती मनीष अपन मितान के चेहरा ला अबक हो के ताके लगिस। सुमित के झूठ हा कालीमाई कस प्रचण्ड प्रकोप ले आज मनीष के रक्षा कर दीस!
( 4 )
लाल चाय पिये के बाद दुनों मितान घर ले बाहर निकल के घुमत-घुमत गाँधी गार्डन के बेंच मा आ के बइठ गीन। एही बेरा मनीष बोलिस- ' भाई तैं झूठ काबर बोले अउ 20 रूपिया लौटाये? '
सुमित कहिस- ' भाई परिवार ला चलाय बर कलह-क्लेश अउ शाँति के बीच संतुलन बनाय बर परथे। तैं लाल चाय पीथस अउ महूँ पीथौं काबर कि खरीदे दूध ला लइका मन पी सकें। कालेज मा तो हमन दूध के चाय पीयत रहेंन न! सही बात हे कि निही? '
' तोर बात तो सही हे भाई। नानकुन नौकरी के भरोसा मा परिवार चलाना बहुत मुश्किल हे। लइका मन के पढ़ाई-लिखाई, देखभाल, परिवार के भरन-पोषण के खर्चा उठा पाना ये मंहगाई के जमाना मा अलकर कठिन हो गे हे। हमन सारा जीवन नौकरी करके लोग-लइका मन के परवरिश करे के बाद छोटकुन घर ला खरीद पाबो त बहुते बड़का बात होही। कार खरीदना तो हमन के सपना हो गे हे! '
' देख भाई, ये सब तो जीवन म चलतेच रइही। बड़े नौकरी पातेन त बात अलग रहितिस। ...... मैं आज 20 रूपिया के झूठ बोलेंव त तुमन के आपस के लड़ाई बन्द हो गे अउ भाभीजी के चेहरा मा खुशी आगे। तिंवरा ला बीस रूपिया पाव मा खरीदे हौं कहिके झूठ बोल देते त तोर का बिगड़ जातिस? का तोर धरम भ्रष्ट हो जातिस ? ..... उल्टा भाभीजी खुश हो जातिन कि सस्ता मा तिंवरा खरीद के लाने हस। तोर झूठ या सच बोले ले तोर घर के आर्थिक स्थिति मा कोई बदलाव नि हो जातिस। घर मा कलह-क्लेश होना ठीक बात नोहे भाई! कतका दिन के जिनगानी हे! दाल मा नून के बरोबर झूठ तो बोले जा सकत हे। द्वापर जुग मा युधिष्ठिर कस न्यायवादी घलो एक बार आधा सच अउ आधा झूठ बोले रहिस! ..... एमा भाभीजी के घलो गलती नि हे भाई, ओमन एक -एक पैसा बचा के अउ सहेज के रखथें। अलकरहा संकट के बेरा मा तो ओही हा काम आथे! '
' फेर ओ दिन भाभीजी ला कमीज के रेट ला जादा काबर बताय तैं ? मोला समझा तो। '
' देख मनीष, मैं सही रेट ला बता देतेंव त तोर भाभी पहिली तो खुश होतिस। फेर जादा कीमत मा मोर शर्ट ला ब्राँडेड दुकान ले खरीदे के पछतावा वोला कई महीना तक घोरतिस! ..... हमन तो नुकसान ला सहि सकत हन मनीष, काबर कि नौकरी ले दू पैसा कमाके लावत हन, फेर पाँच सौ रूपिया के नुकसान गृहणी मन बर बहुत बड़े होथे, जेमन घर-गृहस्थी ला तो पैसा बचा-बचा के सुचारू रूप ले चलावतेच हें मगर पैसा बर हमर उपर आश्रित हें! पैसा के नुकसान ला सोच के ओमन या तो चिड़चिड़ा हो जाथें या डिप्रेशन मा आ जाथें! '
मनीष ला आज समझ मा आइस कि सच-झूठ तो सापेक्षिक होथे, ओकर जादा महत्व नि हे। महत्व ए बात के हे कि घर मा शाँति के पलड़ा भारी रहना चाही। गिलास मा आधा पानी भरे हे- एहा सकारात्मक सोच हे। गिलास हा आधा खाली हे- एहा नकारात्मक सोच हे। हालाकि दुनों बात एकेच हे, पानी के मात्रा मा कोई बदलाव नि होवत हे।
' ठीक हे सुमित, भाई तोर बात ला मैं सबो दिन सुरता राखहूँ। '- मनीष के आँखी डबडबा गे। वइसे रोये वाला तो कोई बात रहिस निहीं फेर आँखी के का करी,ओहा तो अपन कन्ट्रोल मा नि रहे! ...... सही मायने मा जीवन के एक छोटकुन सूत्र हा आज मनीष के पकड़ मा आ गे जेकर ओला बहुतेच जरूरत रहिस। शायद वोहा अपन सच बोले अउ पैसा के तंगी के कारण रोज-रोज के घर के कलह-क्लेश ले हलाकान रहिस, फेर आज ओकर चेहरा मा डर या खीझ के भावना लेशमात्र घलो नि रहिस बल्कि निश्चिंतता अउ संतोष के भाव झलकत रहिस।
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Story written by-
*डाॅ विनोद कुमार वर्मा*
व्याकरणविद्,कहानीकार, समीक्षक
मो- 98263 40331
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