Sunday 13 February 2022

ये दुनिया की रस्म है , इसे मुहब्बत न समझ लेना

 ये दुनिया की रस्म है , इसे मुहब्बत न समझ लेना

                   मेंहा सोंचव के तुलसीदास घला बिचित्र मनखे आय । उटपुटांग , “ भय बिनु होई न प्रीति “ , लिख के निकलगे । कन्हो काकरो ले , डर्रा के , प्रेम करही गा तेमा ...... ? लिखने वाला लिख दिस अऊ अमर घला होगे । मेहा बिश्लेषण म लग गेंव ।  

                  सुसइटी म चऊँर बर , लइन लगे रहय । पछीना ले तरबतर मनखे मन , गरमी के मारे , तहल बितल होवत रहय । सुसइटी के सेल्समेन , खाये के बेरा होगे कहिके , सटर ला गिरावत रहय , तइसने म खक्खू भइया पहुँचगे । गिरत सटर अपने अपन उठगे , खक्खू भइया के चऊँर तऊलागे , पइसा घला नइ दिस । सेल्समेन के चेहरा म , दर्दीला मुस्कान दिखत रहय । भइया ला शरबत घला पियइस । ओकर जाये के पाछू , दुकान के कूलर म टिप टिप ले पानी भराये के बावजूद , हावा गरम गरम फेंके लगिस । सेल्समेन के देंहे , पइसा के भरपाई हिसाबत , पछीना पछीना होगे । लइन म लगे मनखे मनले घला , बिरोध के कन्हो स्वर सुनई नइ दिस बलकि , जम्मो झिन भइया ला हाथ जोर के , नमस्कार तक करिन । ओकर जाये के पाछू , सेल्समेन ला , तैं बिगन लइन लगे कंन्हो ला रासन कइसे दे कहिके बखानिन ..... अऊ अइसन रासन लेगइया बर घला बुड़बुड़इन । यहू तिर , भय दिखिस , फेर पिरीत नइ दिखीस ।

                   मोर गाँव के एक झिन मनखे , अतेक सुंदर लिखय के , जब ओकर रचना छ्पय , बिगन पढ़हे , ओकर संगवारी मन , बहुत सुंदर रचना , बधई हो , अइसे कहय । में सोंचेव , मोरो कभू कभार छपथे , बिया मन एको झिन कहींच नइ कहय । पाछू पता चलिस के , ओकर जम्मो संगवारी मन ओकर ले डर्राथे अऊ उही डर के मारे , बहुत सुंदर रचना कहत , बधई पठो देथे । फेर मोला लागथे , येमा प्रेम कती तिर उपजिस होही ..... ? खैर , बात अइस गिस निपटगे । 

                    लइका के जाति प्रमाण पत्र बर , कतेक दिन होगे रहय , तहसील दफ्तर के चक्कर काटत । बाबू ते बाबू , अर्दली तक ला खवा पिया डरे रहंव । एक दिन तमतमाके आपिस पहुँचेंव , बाबू साहेब ला खिसियाहूँ सोंचेंव । अर्दली मोला बाहिर म छेंक दिस । थोकिन बेर म एक झिन ननजतिया अइस , बिगन रोक छेंक , खुसरिस । आधा घंटा म , हाथों हाथ लइका के जाति प्रमाण पत्र धरके निकल गिस । अर्दली हा आये जाये के दुनो बेरा म नमस्कार ठोंकिस , फेर थोकिन दुरिहइस तहन , फोकट राम कहिके , बखानिस । तुलसीदास जी के , भय बिनु होई न प्रीति , यहू तिर फेल होगे । 

                    तुलसीदास के चौपाई गलत होही त , लोगन येला पढ़थेच काबर । मोर दिमाग चले लइक नइ रहिगे काबर के , चुनई आगे । बड़े बड़े मइनसे मन , नान नान , चाँटी फाँफाँ चिरई चिरगुन कस मनखे मनले , अतेक प्रेम करे लगगे के , ओकर प्रेम गाड़ा म नइ हमावत रहय । नानुक बइगा घर के छट्ठी , पहटिया घर के काठी , रेजा घर के बिहाव , मिस्त्री घर के कथा पूजा , बढ़ई घर के रमायन , चपरासी के लइका के जनम दिन , कोटवार घर के जवारा , कहींच नइ छूटत रहय । इहाँ तक प्रेम उमड़गे रहय के , काकर घर काये होने वाला हे , जेमा जाके , प्रेम बाँट सकन , तेकर तैयारी एडवांस म होये लगगे । कोन ला काये बात के कमी हे अऊ काकर तिर काये बिपदा हे तेला दुरिहाये बर  , एसी म रहवइया बपरा मन , गाँव गाँव , गली गली , जंगल जंगल , धूप छाँव ला झेलत किंजरत रहय । ऊँकर प्रेम के गहराई म .. सागर उथला परगे । उदुपले अतेक प्रेम पाके , मनखे के सुकुरदुम हो जाना स्वाभाविक हे । इही बेरा म , तुलसीदास जी के चौपाई के अर्थ मिलगे । में जान डरेंव तुलसीदास इही बेरा बर लिखे रिहीस होही । चुनई आगे , खुरसी बचाना हे या खुरसी पाना हे । खुरसी गँवाये के या खुरसी तक नइ पहुंच सके के डर हा , बड़का मनखे मन के हिरदे म , अतेक प्रेम भर दिस के , तुलसीदास के चौपाई , अक्षरसह सच होगे के , भय बिनु होई न प्रीति .......। छ्त्तीसागढ़िया का जानय अइसन फरेबी प्रेम ला । प्रेम देवइया अपन मतलब साध के , भेंट लागत , अपन बात कहत , धीरे से मसक दिस –

महफिल में गले मिल के , वो धीरे से कह गए । 

ये दुनिया की रस्म है , इसे मुहब्बत न समझ लेना । 

हरिशंकर गजानंद देवांगन , छुरा .

1 comment:

  1. भय प्रेम ले शुरू कर व्यंग्य के माध्यम से सुकुरदुम वाह

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