Saturday 19 November 2022

बियंग - ट्राफिक सिगनल

 बियंग - ट्राफिक सिगनल

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ही सील पर होत निसान।।


जे मनखे जे काम म रत रहिथे। ओकर गत ओइसने हो जथे। ओहँ ओमा दक्ष हो जाथे धीरे-धीरे, हलू-हलू । येमा कोनो तीन मत के बात नइए। दू के तीन  मत ये सेती काबर के जइसन दुगोड़िया प्रानी हँ ऊपर लिखे बात ल कहे हे, ओइसनेच् किसम के मानुस हँ इहू कहे हे कि -

जदपि सुधा बरसही जलद, फूलहिं फरहिं न बेंत।

जो गुरू मिले बिरंचि सम, मूरख हिरदय न चेत। 

फेर देखब म मिलथे कि पहिली वाले गोठ हँ हर मनखे के मुड़ म कुकरा कस कलगी गजब सोभायमान होथे। त दूसरइया गोठ हँ मनखे के नाक कान बर चिथायमान सिध होथे। ये शोभायमान-चिथायमान के बीच एक चलायमान सब्द तको हे, जिहाँ दुविधा उहाँ बीच के सुविधा ल सधायमान करना चाही। एकरे सेती हम दू मत नइ कहेन। तीन के जगा अढ़ाई भले कहि सकथन। हम चाहे दू काहन के तीन, हमर मरजी।

हाँ, त हम बात करत रेहेन दक्षता के। मनखे हँ जे लाइन रद्दा म चलथे ओमा ओहँ दक्ष हो जथे। जइसे लइकामन ल पढ़ावत-पढ़ावत गुरूजीमन घला लइका हो जथे। उहूमन कुछ दिन के बाद, अउ नहींते कम से कम रिटायर होवत तक लइकेमन बरोबर बेवहार करे लगथे। जेला परिभासिक रूप म ‘सठियाना’ कहे जाथे।

वोमन लइकन ल चरावत-चरावत, उन्कर बात-बेवहार, उन्कर मानसिकता के अवलोकन करत उन्करे सम्मुख गुन ल ग्रहन कर लेथे। लइकामन के गुन-ग्रहणी प्रभाव से गुरूजीमन के मति हँ खीरे-खियाए लगथे। जेकर ले गुरूजीमन गुर के गुर रहि जाथे अउ चेला-चाँटीमन सक्कर फेर सक्कर ले मिसरी हो जथे।

गुरूजी मन अपन जिनगी म घर बनाए के छोड़ आने करमचारी मन कस दूसर बिकास नइ कर सकय। घर ले स्कूल, स्कूल ले घर। उन कूआँ के मेचका बरोबर दुनियादारी ल जानबे नइ करय। त काय घंटा बिकास कर सकही ?

कूआँ के मेचका मंदरसा के मास्टर।

अँड़हा के बैदई अउ झोला छाप डाक्टर।

पाकिटमार, चोर-उचक्कामन धन-दौलत, रूपिया-पइसा ल सूँघ डरथे । नेतामन नेतागिरी करत, चुनाव लड़त जनता के मति ल पढ़-टमर डरथे। मत माँगत -माँगत जन-जन के मति ल मता डरथे। इही गियान के सीढ़िया म चढ़के आज के टुटपूँजिया काली मंतरी बन बइठथे। जन-जन के मति ल अपन मंतर के राख तरी दबाके रखे सकय उही मंतरी।

इही किसम ट्राफिक वालेमन के कहिनी होथे। उनमन दूरिहा ले गाड़ी चलइया के सकल-सूरत, हाव-भाव अउ गाड़ी के दसा-दिसा ल देखके जान डरथे कि कते वाहन चालक चालाक हे अउ कते हँ जोजवा। अंधरा मन के पढ़ई बर जइसे ब्रुएल लिपि होथे तइसे देहाती गँवार अउ बिन लइसेंस के गाड़ी चलइयामन के हालत-डोलत मुड़ी कान, उन्कर चमकई-झझकई अउ गाड़ी के रंगरूप हँ ट्राफिक पुलिसवाला मन बर सिगनल के काम करथे।

कते रंग के सिगनल ल कब बारना हे, कते ल कब बुताना हे ट्राफिक वालेमन खूबे जानथे-समझथे।

लाइन गोल रहय के चालू रहय। इन्कर दिमाक म ये तीनांे लाइट आठो काल बारा महिना बंगाबंग बरत रहिथे। ओकरे सेती वोमन ल तीन रंग के सिगनल दे गे हवय- लाल, हरियर अउ पींवरा। 

हरियर रंग माने धर्रा दऊड़ा देना हे- ‘जावव ददा भइया हो। तुँहरे राज हे। परजातंत्र ये।’

येहँ हरहर-कटकट, लफड़ा-झंझट ले परे जाए के मंत्र ये। टोंके-टाँकेवाले कामे नइ करना हे।

लाल म रोकना-छेंकना, फाइन ठोंकना हे। लाल बत्ती माने -‘‘अबे रूक। लायसेंस देखा।’

‘दूपहिया माने दू सवारी ले उपरहा नइ होना चाही। तीन सवारी काबर बइठे हव ? तुँहर बाप के राज ये का रे ? चल फाइन निकाल। कम से कम इही बहाना राजस्व के वसूली होही। हमरो जेब गरम होही। गरम नइ होही त कुनकुनाही तिहू।’

सुनसुनहा मनखे जिनगी म फुस्का विकास नइ कर पावय। विकास खातिर ताते-तात नहीं त कुनकुना सही।

पींवरा बत्ती माने-सक भर संका करना हे। अइसे तो संका करना उन्कर जनमजात सुभाव होथे। ये सुभाव के अभाव हँ टेªनिंग के प्रभाव ले पूरा हो जथे। भूले-भटके कभू कोनो वर्दीधारी बर सलाम पटके, माने तैं सटके। सलाम देख उन्कर माथा ठन्न के छटके -‘‘स्साला कोन-से धारा वाला ये यार ! चलो झपटे-झटके।’’

धारा नइ मिलही तभो धार निकाल के धारे-धार बोहवा देबोन, बाँच के कहाँ जाही।

तेल देख तेल के धार देख।

सलाम फेंक, सलाम के लाम-लाम दाम देख।

अइसन अक्सर टेक्स महीना अर्थात मार्च-अप्रैल म होथे। मार्च के महीना सब बर मार्च पास्ट ले कम नइ होवय। ददा भइया मुहरन अउ साहेब सहरिया टाइप के मनखे मन बर निसदिन हरियर बत्ती बरत रहिथे। गँवार टाइप के मनखे मन बर हमेशा लाल, माने रोका-छेंका-टोंका के बत्ती बरथे। जिहाँ टेक्स महीना माने मार्च-अप्रैल आइस तहाँ सबो बत्ती पींवरा पर जथे।

एक पइत अइसने एक ठन फिलिम म चऊक के दृश्य उभरथे। सड़क के तीर म  एक ठो बेंवारस बंबरी पेड़ हे। पेड़ म तक्ती टंगाए हे -‘‘येला अव्वल दर्जा के भ्रस्ट अधिकरी द्वारा लगाए गे हे।’’ उही पेड़ तरी साहेब जोगी बाबा बने ध्यान-मुद्रा म बइठे मुद्रा-ध्यान म मगन हे। ट्राफिक जवान बीच चऊक म ‘बगुला-भगत’ कम स्वामी-भगत’ बने रिंगी-चिंगी कोतरी-मछरी अगोरत एक टाँग म खड़े हे।

‘रिंगी-चिंगी’ माने निच्चट गँवखरहा, गरीब-गुरबा, मेहनत-मजूरी करत घाम-प्यास झेलत झोल खाए मुँहवाले झोइलाए-झुर्रियाए झोला छाप ड्राइवर। 

एक झिन ईमानदार गाड़ीवाला हँ हरियर सिगनल ल पींवरावत देखके गाड़ी ल रोक दिस। 

जवान अपन अंतर्दृष्टि ले गाड़ीवाला के चाल-चलन अउ स्वभाव ल पढ़ डारिस। 

‘हाँ, ये हे झोलझोलहा-डरपोकना मनखे। जेन हँ नियम-धरम के पालन करत हे।’

रीत-रिवाज, नियम-धरम के पालन करइया ले बड़े बयकूफ, गँवार, डरपोकना अउ रूढ़िवादी ये दुनिया म दूसर कोनो नइ होवय।

आ बइला मोला हुमेल। 

कतको जवान अउ ताकतवार सेर होवय वोहँ झूंड के निजोर से निजोर सिकार ऊपर ही झपट्टा मारथे। जनम के कोलिहामन, सेर के भेस म सिधवा चियाँ मन ऊपर ही गिधवा कस झपटथे। उही किसिम वो जवान हँ गाड़ीवाले ऊपर झपटिस, दबोचिस अउ ‘हर्रस-ले’ हबक लिस। गिस-गिस अउ ‘सट-ले’ गाड़ी के चाबी ल निकाल लिस-

‘चल गाड़ी ल किनारे कर। कागजात हे ?’

‘सर.....।’

‘लाइसेंस हे ?’

‘सर.....।’

‘बीमा करवाए हस ?’

‘ ........।’

वो बिचारा सर सर करते रहिगे अउ वो जवान सर्र-सर्र प्रश्न के पिचकारी मारके ओला चोरो-बोरो कर डारिस।

‘‘हेलमेट काबर नइ पहिरे हस ? चोरी के गाड़ी हरे का रे ?’’

‘‘नहीं साहेब।’’

‘‘अरे मोला मत सीखो। दिखत के गरीब-गुरबा मुरदा मानुस ! तैंहँ कहूँ गाड़ी ले सकबे रे ! हमला मालूम हे स्साले ! जतका छोटे मनखे होथव चोरी के दूचकिया म उदाली मारके मन ल मड़ाथौ।’’

‘‘बड़का मन तो चरचकिया कुदाथे। अपहरन करथे। फिरौती माँगथे। जतका बड़े मनखे ओतके छोटे आँखी के। ओतके बडे़ कांड। सब डंका के चोट म खुले आम करथे। हमर बर उन्कर एके टुकड़ा काफी होथे।’’

‘‘तुम छोटे-मोटे मनखे नान-मुन चोरी-चपाटी करथव। मेहनत जादा लगथे, फायदा कम। चार आना के कुकरी नहीं बारा आना पुदगौनी। माछी मारे हाथ गंदाए। ऊप्पर ले तुंहर कारण बिभाग गंधाथे-बस्साथे। धन जाय त जाय, धरमो जाय। तुम मानबे नइ करव। जब तक तुमन ये नीच धंधा नइ छोड़हूँ। हमन ल नीचे उतरके अँगरी टेड़गा करेच् ल परही। काबर कि लोहा लोहे ल काटथे।’

अतेक अकन सवाल के छर्रा गोटी म कइसनो चलाक चालक होवय बँधा-छँदा जथे। वो बिचारा तो जनम के गँवइहा । ओकर खाँध म गमछा लपेटाए देखिके तो बिधुर बाबा हँ ओला दूरिहे ले चिन्ह डारे रिहिस। 

नवा-नवा अउ गँवखरहा चालक तो वर्दीच् ल देखके बरदी के छँटियाए बछरू कस बिचारा हो जथे। आगू-आगू जवान पीछू-पीछू चालक। साहब कुछू बोलतिस तेकर पहिली चालक कहिथे -‘‘देखौ साहब मोर तीर सबो कागजात हे।’’

चालक ल देखके साहेब मोगंबो खुस हुआ के स्टाइल म मुसकाइस। अपन चिक्कन चेंदवा मुड़के उछलत-बिछलत-खिसलत टोपी ल सोझियाइस। पेट म खपलाए पबरित-अमरित मरकी के पेंदी म हाथ ल फेरिस। जेकर प्रभाव ले घूस खाए ले बने अपान हवा हँ डकार मारके बाहिर होगे - ‘‘बोंअ....अं... ’’

‘‘बोंअ....अं... ’’ डकार हँ अवइया घूस के स्वागत सत्कार बर फेर राजी हँव कहिके हुँकारू दिस। 

तेकर पीछू फोकट के खाए पान के बोहावत लार ल हँथेरी म सरमेट्टा पोंछत- चाँटत साहेब कहिथे-‘‘बेटा ! कागज के रहे भर ले का होही ? हम जे चाहत हवन तेन कागज हे के नहीं तेला बता ? बापू छाप कागज के तो दर्शने नइ हे।’’

‘‘रेड सिगनल के पार करौनी फाइन पटा। लालबत्ती ल हरियर पत्ती ही काट सकथे। जब तक तोर कोती ले बापू के असहयोग आंदोलन जारी रिहिही, हमर कोती ले करो या मरो के प्रयास जारी रहिही। सरकार के कुछू फायदा कर । दू सौ नइहे त सौवेच् रूपिया म काम बन जही, फिक्कर झन कर। फेर सौ रूपिया के रसीद नइ मिलय भई ! बताए बात बने होथे। पाछू किरिर- कारर झन करबे।’’

‘कानून ल हटा, नून चटा। नमक कानून के तको हमर देस म गजब महात्तम हे।’

‘हमू ल देश के प्रति नमकहलाली के सुअवसर प्रदान कर।’

ओतके बेरा एक झन जवान हँ एक झिन गाड़ीवाला संग थोरिक दूरिहा म गोठियावत रहय । ओला देखके पहला जवान के सलेंसर पाइप फूट गे। जेमा ले संेका-भूँजा, जर-बरके धुँगिया उठे लगिस । वोहँ भदभदावत चिल्लाइस -‘‘देख तो साहेब, ओहँ उही मेर गाड़ीवाला संग बात करत अकेल्ला कोन्टा म निपटत- निपटावत हे।’’

साहेब ठहिरिस निर्मल बाबा के परम भगत। अपन पद के रोवाब अउ मुँहू के खाज म ओला गज्जब बिस्वास हे। पद हे त कद हे, वरना दू आना के मनखे ल गिराए-पटके के लाखो बहाना। ़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़......कहिस-‘‘कोई बात नहीं पुत्तर ! दस परसेंट एती आहिच्। कहाँ जाही ? हमू घाट- घाट के पानी पीए हन।’’

फेर जादा बेर ले गोठियावत देखके साहबो के कुंडली जागृत होगे। साहेब के छट्ठी इन्द्री टुनटुनाइस-‘‘अरे ! कोन्टे ले खिसकाबे झन।’’

दूसर जवान कहिस -‘‘येहँ कोनो सिकार नोहय साहेब ! एकर संग मैं घरू चर्चा करत हौं।’’

साहेब तिखारिस -‘‘घरू चर्चा ? 

जवान कहिथे -‘‘साहेब ! येहँ मोर जुन्नेटहा भाटो हरे ।’’

साहेब ल ‘झम्म-ले’ लगिस, मन मारके रहिगे। ओकर संका के ठढ़ियाए डंडा हँ ‘लज्झ-ले’ ओरम गे। दिमाग के जम्मो सिगनल ‘चुमुक-ले’ बुता गे।

मुड़ी ल खजुवावत अपन तीर खड़े जवान ल कहिथे -‘‘का करोगे यार ! बिभागीय आदमी का भाटो पूरे बिभाग का भाटो होता है।’’

तेकर पीछू सपड़ाए चालक ल कहिथे -‘‘चल भाई ! अब तँही कुछु निकाल, तभे बात बनही। हमर अटके-फटके अउ सटके-भटके सिगनल के गाड़ी ल तहीं पार लगा। जय होवय तोर अउ जय होवय भारत माता के।’

जवानमन एति थैली-थैली के बीच ‘बापू-सेतू’ के निर्माण म लगे हे। ओति अतका सीन के सूटिंग होवत ले कतकोन चोर-उचक्का गाड़ीवालेमन बजरंगी बन जझरंग-जझरंग उचक-उचकके समुन्दर पार कर डारे हावय।


धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

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