Sunday 13 November 2022

तइहा के सुरता-सीला बिनई


 तइहा के सुरता-सीला बिनई


               कभू पाँव म चप्पल, त कभू बिन चप्पल के झिल्ली नही ते झोला धरे स्कूल जाय के पहली अउ स्कूल ले आय के बाद, संगी संगवारी मन संग मतंग होके, ये खेत ले वो खेत म भाग भाग के सीला बिनन। मेड़ पार ल कूदत फाँदत, बिना काँटा खूंटी ले डरे, धान लुवई भर जम्मो धनहा खेत म भारा उठे के बाद, छूटे छाटे धान के बाली ल टप टप बिनत झोला ल भरन। सीला केहेन त धान के लुवत, भारा बाँधत अउ डोहारत बेरा म गिरे या छूटे धान के कंसी आय। सीला बीने बर  लइकापन म,एक जबरदस्त जोश अउ उमंग रहय, बिनत बेरा भूख प्यास, कम जादा, तोर मोर ये सब नही, बल्कि एके बूता रहय, गिरे छूटे धान ल सँकेलना।  सीला उही खेत म बिनन, जेमा के धान  उठ जाय रहय,कतको खेत के धान लुवाये घलो नइ रहय,न डोहराय। तभो मन म भुलाके घलो लालच नइ आय। वो खेत म जावत घलो नइ रेहेन। फेर कोन जन आजकल के लइका मन का करतिस ते? 

                      हप्ता दस दिन धान लुवई भर सीला बिनई चले,  ज्यादातर बड़े भाई बहिनी मन धान ल डोहारे के बूता करे अउ छोटे मन गिरे धान ल बीने के। संगी संगवारी मन सँग सीला बिनत बेरा काँटा गड़े के दरद तो नइ जनावत रिहिस, फेर घर आय के बाद बबा के चिमटा पिन म काँटा निकालत बेरा के पीरा बड़  बियापे। हाँ, फेर सीला बिनई नइ छूटे, चाहे कतको काँटा खूंटी गड़े। एक दू का?  कोनो कोनो संगवारी मन के गोड़ म, आठ दस काँटा घलो गड़ जावय, तभो कोनो फरक नइ पड़े। रोज रोज सीला बीने म, छोट मंझोलन चुंगड़ी भर  घलो धान सँकला जाये। जेला खुदे कुचर के दाना ल फुन-फान के अलगावन। जेन उत्साह अउ उमंग म सीला बिनन, उही उत्साह  ले वोला घर म लाके सिधोवन, अउ सब चीज होय के बाद नापे म जे आनंद मिले, ओखर बरनन नइ कर सकँव।  कभू कभू ददा दाई मन पइसा देके सीला के धान ल रख लेवय त कभू दुकान म बेच देवन, त कभू हप्ता हप्ता लगइया हाट बाजार मा, धान के बदली मुर्रा अउ लाडू लेवन। का दिन रिहिस, कतका पइसा -धान सँलाइस ते मायने नइ रखत रिहिस, पर बढ़िया ये लगे कि सीला बिने के पइसा या धान मिले अउ मन भर उछाह। सीला के पइसा ल मंडई हाट बर घलो गठियाके रखन। 

                सीला बिनइया संगवारी मन म बनिहार घर के लइका संग गौटिया घर के लइका घलो रहय, पहलीच केहेंव पइसा कौड़ी धान पान मायने नइ रखत रिहिस, बल्कि धान फोकटे झन पड़े रहे अउ जुन्ना समय ले चलत आवत हे, कहिके सब मिलजुल सीला बिनन। ऋषि कणाद के सीख के निर्वहण करन। फेर आज ये बूता जोर शोर म नइ दिखे, न पहली कस सीला बीने के माहौल हे, न कखरो सँऊख। आजकल खेत म ही मिंजई हो जावत हे। थ्रेसर हार्वेस्टर के लुवई मिंजई म सिर्फ कंसी(बाली) नही, दाना  घलो गिर जाथे, उहू बहुत ज्यादा, ओतना तो चार पाँच खेत ल किंजरे म मिले। ये सब देख के दुख होथे, फेर का करबे नवा जमाना के ये बदले रूप रंग ल बोकबाय सब देखते हन। काम बूता नवा नवा तकनीक ले भले तुरते ताही हो जावत हे, फेर मनखे, बचे बेरा के बने उपयोग नइ कर पावत हे, येमा न लइका लगे न सियान। हमर संस्कृति अउ संस्कार मा अन्न धन ला जान बूझ के कोनो नइ फेके, बल्कि ओला अन्न देव मानत सँकेले जाथे, इही भावना ले ओतप्रोत रहय सीला बिनई। जे आज कमसल होवत हे।

ना थारी मा भात छूटे, ना खेत मा अन्न।

फेर आज के गत देख, मन हो जाथे सन्न।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


फ़ोटो-साभार फेसबुक( श्री सौरभ चन्द्राकर)


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