Monday 3 May 2021

साहित्य लेखन म अनाप-शनाप शब्द ले बाँचन*

 *साहित्य लेखन म अनाप-शनाप शब्द ले बाँचन*

   

           साहित्य अउ संस्कृति हमर धरोहर आय। सभ्य समाज के निर्माण म दूनो जरूरी हे। कहे घलो जाथे कोनो राष्ट्र अउ सभ्यता के संस्कृति अउ साहित्य ल नाश करे ले वो राष्ट्र अउ सभ्यता के समूल नाश करे जा सकथे। साहित्य अउ साहित्यकार संस्कृति के संरक्षक होथे। साहित्य सामाजिक मूल्य के स्थापना करथे। लोक जीवन के आचार - विचार , परम्परा , मान्यता , जम्मो लोक जीवन शैली के एक लिखाय सरूप जेला दस्तावेज कहि सकथन, साहित्य होथे। जेकर रचना वो लोक जीवन के बुधियार वर्ग मन करथें। साहित्य एक रपट बस नोहय। साहित्य म समाज के उत्थान के उदीम अउ उहाँ व्याप्त कुरीति, विसंगति अउ अमानवीय व्यवहार मन ल अपन शालीन भाषा म लिखे जाथे। जे रूढ़ीवाद, आडंबर, कुरीति, जात-पात के भेदभाव, ऊँच-नीच के भेद ले शोषित मन ल लड़े के साहस देथे। लोक जीवन के भाषा मुँअखरा परम्परा ले चलथे, फेर साहित्य के भाषा लिखित अउ मानक होथे। साहित्य के भाषा म लालित्य लाय बर लोक जीवन के व्यवहार के शब्द मन के प्रयोग करई गलत तो नोहय फेर ओकर मर्यादित होना जरूरी हे। मुँअखरा भाषा के शब्द बोलइया-सुनइया के कहे सुने के बाद गँवा जथे। ओकर कोनो ओर-छोर नइ मिले। कतको शब्द अइसे रहिथे जे सबो के बीच कहे नइ जा सके, फेर उही हँसी-मजाक करत नता ल गहिर ले जोड़े राखथे। सँगेसँग मन के गोठ कहे के मौका देथे। ठेसरा मार के रस्ता म लाय के उदीम घलव करथे। ए गोठबात ठग-फुसारी के नता तक रही जथे। मर्यादा घलव बाँचे रहिथे। फेर लिखे म ए शब्द शोभा नि दय। अइसन शब्द मन बर मोह रखना साहित्यिक दृष्टि ले बने नोहय।        

       आज हमर छत्तीसगढ़ी भाषा के बहुत अकन शब्द चलन म नइहे। आज वो शब्द मन नवा पीढ़ी बर कठिन होगे हे। आज के साहित्यकार मन सरल अउ सहज शब्द ले अपन बात कहे म विश्वास करथे। नवा शब्द मन ल अपनाना गलत नइ हे, फेर छत्तीसगढ़ी के नँदावत शब्द मन ल सहेजे के उदीम करे जाय। एकरे ले छत्तीसगढ़ी साहित्य ल पहिचान मिलही। निचट बोलचाल के भाषा साहित्य के भाषा नि हो सके, यहू बात के धियान रखे परही। साहित्य समाज के उत्थान बर होथे, अइसन म लोक जीवन म प्रचलित अनाप-शनाप शब्द मन ल का साहित्य म प्रयोग करना उचित रही ? का समाज म घटत घटना मन ल हूबहू साहित्य म लिखई साहित्य के दिशा बदलना नइ होही ? का अइसन शब्द मन ल साहित्य म जगा दे सहेजई सही रही ? का वइसन शब्द मन ल छोड़े नइ जा सकय? का समाज के सच्चाई के नाँव म अइसन अमानक  शब्द ल एक साहित्यकार के रूप म खुद अपनाना सही होही ? आज इही सोचे के बेरा हे। कतको मन साहित्य म आँचलिकता के नाँव म ठेठ देहाती शब्द प्रयोग करना चाहथे, जउन ल सभ्य समाज न सुनना चाहय अउ न मान्यता दय। समाज म गारी के रूप म स्थापित अइसन शब्द कभू साहित्य म नइ आना चाही।

    साहित्यकार ल अपन समाज के  अपन बेरा के साहित्य लिखना होथे, फेर समाज के विसंगति ल, विद्रुपता ल सेम टू सेम लिखे के पहिलीच दस घउ सोचना चाही। साहित्य म कोनो बात ल कहे के अपन तरीका होथे। एकर कतको तरीका हे। अइसन म अइसे शब्द मन ल छोड़ देना चाही जउन ल साहित्य अउ समाज दूनो बर सही कहे नइ जा सकय। लिखनच हे त अपन दमखम म लिखन। कोन्हों बहाना झन करन। भाषा नदिया के पानी बरोबर बोहात रहिथे। निर्मल रहिथे। समे के संग भाषा अपन सरूप बदलत रहिथे। इही बदलाव के चलत कतको शब्द मन कठिन जनाथे। उँखर अर्थ/मायने के जानबा नइ होय। धीर लगा के इही शब्द नँदाय लगथे। बदलाव प्रकृति के नियम हरे। भाषा म बदलाव ह नवा-नवा शब्द के आय अउ कतको शब्द के नँदाय ले स्वाभाविक हे। इही बदलाव म बोलचाल म जतका गाली-गलौज हे, उन ल कहानी मन म लिखे ले छोड़े म कोनो ल तकलीफ नइ होना चाही। तभे तो बेरा के बहाव म अइसन शब्द मन बोहा जही अउ सभ्य समाज के निर्माण होही।

        

   *पोखन लाल जायसवाल*

पलारी बलौदाबाजार छग.

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