Monday 3 May 2021

लघुकथा- श्लेष चन्द्राकर

 लघुकथा- श्लेष चन्द्राकर

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*मतलबिहा*

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महामारी के सेती शहर मा लॉकडाउन घोषित होय रिहिस। चारो मुँड़ा सन्नाटा पसरे रिहिस। बाजार चउक मा दू-चार पुलिस वाला मन ड्यूटी बजावत रिहिस। ओमन देखिन एक झिन मनखे मुँहु मा मास्क लगाय अउ हाथ मा लौठी धरे, ओकरे मन डहर आवत रिहिस। एकझन पुलिस वाला ओला रोकिस अउ कहिस - ‘तँय कहाँ घूमत हस जी, लाॅकडाउन मा घरेच मा रहिना हे भुलागे हस का?'

‘साहब! मँय अपन गाय मन ला खोजत हँव। इही बाजार तीर पइधे रहिथें। बाजार बंद हे तभो ले कोठा मा नइ लहुटे हें।' ओ मनखे कहिस।

‘हव! ठीक हे, जा खोज ले।' पुलिस वाला ओला जावन दिस।

ओकर जाय के बाद दूसर पुलिस वाला कहिस -‘ओ-हर अपन गाय-गरुवा ले अब्बड़ मया करथें जी।'

‘मया करतिस ता आवारा पशु असन किंजरन नइ देतिस। ओकर गाय मन दुधारू होही तभे खोजे बर आये रिहिस। बपुरी गाय मन सब्जीवाला मन जे सरे-गले साग-भाजी ला फेंकथें ओला खावत होहीं। अउ ओ-हर चारा के पइसा बचा लेथे।' पहिली पुलिस वाला असली बात बताइस।

‘हव, ठउका गोठ कहे हव। मनखे कतका मतलबिहा होथे।' अब दूसर पुलिस वाला ओ मनखे ला मने मन कोसत रिहिस।


श्लेष चन्द्राकर,

महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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