Saturday 14 August 2021

विषय : आत्म-प्रशंसा के बीमारी

 🌹 *छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर* 🌹


दिनांक : 12 अगस्त 2021


*विषय : आत्म-प्रशंसा के बीमारी


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          *आत्म प्रशंसा एक बीमारी*


             आत्मप्रशंसा अर्थात् अपनी प्रशंसा स्वयं (आप) ही करना है.इसी को "अपने ही मुँह मियाँ मिट्ठू बनना" कहा जाता है. यह एक मुहावरा है. जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में सहज ही प्रयोग में लाते हैं. आत्मप्रशंसा कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु अपने ही गुणों का गुणगान यदि व्यक्ति स्वयं ही करने लग जाता है तो उसकी गरिमा वहीं पर घट जाती है. आपने देखा होगा या गौर किया होगा कि विद्वान महापुरुष कभी भी अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं बल्कि अपने सारे अच्छे कर्मों का श्रेय भगवान को या अन्य को दे देते हैं. यही उनकी महानता का प्रथम परिचय भी होता हैं.


            ऊँचे या शीर्ष पद पर आरुढ़ व्यक्ति को आपने देखा होगा कि उनके खान -पान, बोल-चाल एवं वेश-भूषा एकदम साधारण होते हैं. उनमें कोई दिखावा नहीं होता है. वे बहुत ही सरल, सहज एवं सादगी से परिपूर्ण होते हैं. ऐसे सरल व्यक्ति ही वास्तव में महामते और महाज्ञानी होते हैं. उनके शब्दों में मिठास होती हैं. वे शांत होते हैं. धीरे से अपनी बातों को सहजतापूर्वक समझाते भी हैं. ऐसे लोग सफलता की चरम सीमा के उस पार हो जाते हैं कि जहाँ कोई भी कार्य उनके लिए असम्भव नहीं होता है वे जीवन के विभिन्न परिस्थितियों से गुजर चुके होते हैं. इसीलिए उनके स्वभाव में स्थिरता आ जाती है. और ऐसे व्यक्ति ही वास्तव में मनुष्यता के वास्तविक स्वरूप को परिभाषित करते हैं अपने नेक और लोकहित के कार्यों के माध्यम से. ये ईश्वर द्वारा भेजे गये परमार्थी और प्रतिनिधि होते हैं. जिनका उद्देश्य ही परमार्थ के कर्मों में जीना होता हैं.


          वर्तमान परिवेश की बात करें तो हमारे आस पास ऐसे सैकड़ों व्यक्ति मिल जाएंगे. जो अपने छोटे -छोटे कर्मों को रिकार्ड, फोटोग्राफी, अखबारों एवं मीडिया में बढ़ा -चढ़ाकर प्रेषित करते फिरते हैं. ऐसे लोगों की वाहवाही भी खूब होती है. आजकल लोगों को स्वयं ही बताना पड़ता है कि मैंने फलां ट्रस्ट या संगठन या फिर अनाथालय को इतना दान किया.... आदि वगैरह वगैरह..... मेरे भाई!ये अच्छी बात है कि आपने अच्छा और अनुकरणीय कार्य किया और समाज के लिए एक सकारात्मक पहल वाले भी है आपके सारे कार्य. लेकिब जरा विचार कीजियेगा और खुद से प्रश्न भी कीजियेगा कि क्या मैं अपनी प्रशंसा करुँगा तभी लोगों को मेरे कर्मों के बारे में पता चलेगा? तब देखिएगा, आपके अंतर से आवाज आएगी कि नहीं अच्छे कर्मों को बखान करने कि आवश्यकता नहीं पड़ती है. बल्कि आपका व्यक्तित्व ही आपके कर्मों की पहचान हैं. इसमें तनिक भी संदेह नहीं कीजियेगा. आजकल तो प्रत्येक क्षेत्र में पुरस्कार रख दिया गया है. जो उस पुरस्कार को पाने की योग्यता रखता है उसे खुद ही आवेदन करना पड़ता है. इसके लिए विशाल मात्रा में लोगों के मध्य अंधाधुंध होड़ सी लगी होती हैं. यही सबसे दुःखद और बड़ी विडंबना है.मुझको बहुत ही कष्ट होता है जब लोगों को खुद ही अपने बारे में बताना पड़ जाता है कि मैं अमुक अधिकारी हूँ. मैंने ऐसा किया.. वैसा किया.... इत्यादि. ये सब चीजें व्यर्थ एवं बाह्य आडंबर को बढ़ावा देने का एक मात्र तरीका है और इसके अलावा कुछ भी नहीं है. आत्मप्रशंसा के भूखे लोग बड़े ही स्वार्थी, चापलूसी और ईर्ष्यालु होते हैं. वे अपने समकक्षी मित्रों के साथ धोखा करने से भी नहीं चूकते हैं. हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने के प्रयास में लगे होते हैं. इस तरह से ऐसे लोग खुद के ही शत्रु बन जाते हैं. दूसरों की नजरों से तो गिरते ही हैं स्वयं की दृष्टि से भी गिर जाते हैं. जब उन्हें अपनी भूल या गलती का एहसास होता है तब तक बहुत देरी हो चुकी होती है.


        अतः भलाई इसी में है कि लोगों को आत्मप्रशंसा नामक बीमारी से बचे जाने की हर सम्भव कोशिश की जानी चाहिए. क्योंकि हम तो मनुष्य शरीर में कर्म करने के उद्देश्य से ही धरती पर अवतरित हुए हैं. ये हमारा परम एवं सर्वोच्च कर्तव्य है. अच्छा कर्म करना हमारा नैतिक धर्म है. फिर क्यों इतनी अपेक्षा करते हैं. यदि हमारा कर्म उत्तम हैं तो उसका मीठा फल हमें ही प्राप्त होगा और यदि हमारा कर्म नीचा है तो उसका कड़वा फल भी हमको ही चखना पड़ेगा. फिर इतनी आतुरता क्यों? क्या  एक पुरस्कारया मेडल ही आपकी योग्यता को सिद्ध करता है? नहीं!बिल्कुल नहीं!! अतः स्वयं से ही विचार मंथन कीजियेगा कि हमारा वास्तविक धर्म क्या है? इसी से आपके सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा.


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      धन्यवाद!! 🌹🙏


दिनाँक

12-08-2021


          सीमा यादव, ps सिंगारपुर, मुंगेली (छ. ग.)

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