Monday 6 September 2021

साहित्य के इमारत*

 *साहित्य के इमारत*


आखर के माटी ला जब ज्ञान के भट्ठी मा तपाये जाथे तब शब्द के ईंटा तैयार होथे। भाव के गहिर गड्ढा मा अनुभव के पखना पाट के नेंव बनाये जाथे। नेंव जतका गहरा रही, इमारत वतके मजबूत रही। ये नेंव ऊपर शब्द के ईंटा के दीवार खड़े करे जाथे। ईंटा ला जोड़े बर नम्रता के गारा चाही। नम्रता बिना, नमी नइ आवै। बिना नमी के जोड़ तको पक्का नइ बन सके। दीवार खड़े होगे तहाने छत के ढलाई के पारी आथे। ढलाई बर धीरज के सेनट्रिंग, विषय-वस्तु के सीमेंट, नवापन के गिट्टी अउ ईमानदारी के लोहा के जरूरत पड़थे। अतका उदिम के बाद ढाँचा तैयार हो जाथे। एमा सहनशीलता के प्लास्टर होए के बाद आलोचना के खिड़की अउ सद्भावना के दरवाजा लगाए जाथे। रस, छन्द, अलंकार, लोकोक्ति, मुहावरा, लक्षणा अउ व्यंजना के सतरंगी रंग मा इमारत ला सजाए जाथे। अतका पिचकाट करे के बाद, साहित्य के इमारत तैयार होथे फेर ये इमारत के बनइया एमा नइ रह सके। ये इमारत मा रहे के अधिकार पाठक-पहुना मन ला मिलथे। अब ये पाठक-पहुना ऊपर रहिथे कि वो ये इमारत मा अपन ठियाँ बना लेथे कि दूसर दुवारी ले निकल के उदुप ले चल देथे। इमारत बनाये मा जउन-जउन जिनिस के उपयोग होथे, उनकर गुणवत्ता बढ़िया रही तो पाठक-पहुना उही इमारत मा अपन जिनगी पहा देही। विचार करव, हमन पाठक बर कइसन "साहित्य-इमारत" बनावत हन।


*अरुण कुमार निगम*

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