Thursday 24 March 2022

गाँव के गुड़ी अँव।

 गाँव के गुड़ी अँव।

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मैं गाँव के गुड़ी अँव।उही गुड़ी जिंहाँ आज ले दस-पंदरा बरस पहिली रौनक छाये राहय। बुढ़वा बर अउ पीपर पेंड़ के छँइहा तरी लइका-छउवा मन भौंरा-बाँटी, गिल्ली- डंडा, रेसटिप खेलत राहयँ त संझा बेरा सियनहा मन बइठे सुख-दुख ल गोठियावयँ, अपन अनुभो ल बाँटयँ।

      मैं उही गुड़ी आँव जिंहाँ  बेरा फुलफुलावत ,कुकरा बासत ले --- सोवा के परत ले आवाजाही होते राहय। मैं गवाही हँव वो दिन के जब गांँव के छोटे- बड़े सब समस्या के, झगरा-लड़ई के निपटारा मोरे अँगना म बइठ के होवय।कोनो मनखे ल थाना-कछेरी के डेहरी ल खूँदे ल नइ परत रहिस। पंच परमेश्वर मन इहें दूध के दूध अउ पानी के पानी कर देवत रहिन। मोर अँगना म कभू छोटे-बड़े के भेद नइ रहिस।

    गाँव के राम रामायेन,लीला ,मोरे चँवरा म होवय। गणेश, दुर्गा , गउरी-गउरा इहें बइठय। महमाई ले निकले जँवारा मोर अँगना म थोकुन थिराके, बड़े तरिया म गंगा स्नान करे बर जावय।

        होले  तिहार के सुरता आथे त आँसू निकल जथे। फागुन महिना लगय तहाँ ले होत संझौती नगाड़ा घिड़के ल धरलय। लइका-जवान,सियान सब एकमई होके हरहिंछा झूमयँ, नाचयँ ,गावयँ। तहाँ ले होलहार मन गाँव के बाहिर म होलिका दहन करे बर लकड़ी सकेले बर जावयँ। पेंड़ के सुखाये ,गिरे डारा ल लान-लान के गाँज दयँ।  खेत खार मनमाँड़े बिरछा राहय त कतको झन कच्चा डारा ल तको  टोर के गाँज दयँ। ढीक के ढीक गँजाये होले ह पहाड़ असन दिखय। अब तो खेत-खार म ओइसन पेंड़ ये, न होले गँजइया होलहार।

    होरी तिहार के दिन --का बताँव--कतका उछाह राहय। बिहनिया ले रंग-गुलाल उड़े ल धरलय। जरे होले म पाँच ठन छेना डार के अउ वोकर सात भाँवर परिकरमा करके लोगन वोकर राख ल धरके लावयँ अउ घूम-घूमके ,गाँवभर के देवता-धामी ल उही राख के टीका लगावयँ।खोर-गली म जेन मनखे मिलगे वोला टीका लगाके गला मिलयँ। लइका मन बाँस-पोंगरी बनाये ,नहीं ते प्लास्टिक के बिसाये पिचका अउ फुग्गा म चूड़ी रंग ल भरके जेला पावयँ तेकर उपर छींचत राहयँ।

       ये दिन संझाकुन जब मोर अँगना म फाग मातय त खुशी के ठिकाना नइ राहय। गाँव भर के दीदी-दाई, बहू-बेटी मन तकों देखे-सुने ल आवयँ। 

  गनपति ल मनावँ, प्रथम चरन गनपति को---- गीत ले शुरु होके-- कुंजन म होरी होय ,देदे बुलावा राधे को-----, छोटे से श्याम कन्हइया----, चलो हाँ रे मालिन रख दे धनुस को चँवरा में----, केरा बारी म बिलई टूरी, खोबा गड़ि जाये केरा बारी म, चलो हाँ रे रेलगाड़ी मजा उड़ाले टेशन मा-----जइसे आनी-बानी के फाग गीत ल सुनके हिरदे आनंद म बूड़ जय। 

    झूम-झूमके नाचत- गावत लोगन ल देख के अइसे लागय के सिरतो म इहाँ सरग उतरगे हे। सब ले बड़े खुशी इहें हे जेला अरबों-खरबों रुपिया-पइसा म नइ खरीदे जा सकय।

     कोन गरीब--कोन अमीर ,ये दिन सबो घर  रोटी पीठा ,ठेठरी-खुरमी, चीला ,भजिया बनबे करय अउ सब अपन संगी साथी घर जाके खावयँ--स्वाद लेवयँ। अइसन प्रेम अउ भाईचारा  भला अउ कहाँ मिलही--मोर भारत भुँइया के गाँव-देहात ल छोड़ के। मोर गाँव के नौकरी पेशा अउ पेट बिकाली म कमाये-खाये बर परदेश  निकले जम्मों बेटी बेटा मन ये दिन तिहार मनाये बर जरूर गाँव लहुटयँ त मोर शोभा बाढ़ जावय।

     फेर----फेर -- अब तो सब नँदाये ल धर लेहे। कहाँ होली----, कहाँ होलहार---, कहाँ मिल भेंट---, कहाँ रोटी-पीठा--  , कहाँ तिहार मनाये बर गाँव आना-जाना ,अब तो फोने म हाय-हलो हो जथे----, सब सपना बरोबर होगे हे।  अब तो मोर अँगना सुन्ना अउ उदास रहिथे। होरी तिहार के दिन घलो नगाड़ा के थाप अउ फाग गीत सुने बर मोर कान तरसत रइ जाथे। पिचकारी के धार म अब मोर ओनहा नइ भिंजय, अँगना म चिखला नइ मातय। रंग-गुलाल म तन नइ रँगै। माथा म गुलाल नइ चढय। रोटी पीठा के  महक मोर नाक म नइ जनावय उल्टा घरो-घर चूरत मछरी, कुकरा, बोकरा के गंध आथे। लोगन ल दारू पीके झूमरत, उंडत,घोंडत, झगरा- लड़ई, मारपीट होवत देख के,उँकर हिरदे म  रंजीश, छल- कपट ,इरखा-द्वेष के भभकत आगी ल देख के,  मोर अदरमा फाटे ल धर लेथे।     

      ये सब कइसे, काबर होगे कहिके सोचथँव त सरी अंग म पीरा समा जथे। आधुनिकता के नाम म मोर अंँगना के खुशी भेंट चढ़गे तइसे लागथे।अब तो  लोगन टीवी अउ मोबाइल म फाग ल देख-सुन लेथें त भला मोर अँगना म कोन आहीं ? कतको पढ़े- लिखे मन  मन कहे ल धर लेहें --होलिका दहन दकियानूसी ये-- लकड़ी के बर्बादी ये---, रंग-गुलाल उड़ाना पर्यावरण ल प्रदुषित करना ये,  रंग भर के पिचकारी चलाना, पानी के बर्बादी ये।

   मोर जइसे अप्पड़ उन ला भला का समझा पाहूँ? उन भले रात-दिन पेट्रोल-डीजल फूँक के, जंगल-झाड़ी ल उजार के, कंक्रीट के जंगल उगा के, नदिया-नरवा म फेक्ट्री मन के सरे-गले बजबजावत पानी ल बोहवाके,  दसों बाल्टी पानी म मोटर-कार,फटफटी ल धोके, गली-गली म बेंच अउ बेंचवा के---कुछु करलयँ---उँकर करनी सब अच्छा हे, काबर के उन पढ़े-लिखे अउ सभ्य हें।

      मैं तो ठहरेंव ठेठ गवइँहा। मोला तो मोर विश्वास, मोर आस्था, मोर परंपरा, मोर तिहार-बार म आनंद आथे। हाँ थोक-बहुत रुढ़ि हो सकथे जेला  महूँ हटाना चाहथँव--सुधार करना चाहथँव।

  मैं गाँव के गुड़ी अँव। मैं नँदा जहूँ तइसे लागथे। मोर अँगना के लोक परंपरा सिरा जही तइसे लागथे। 

 तभो ले एक कोती मन म विश्वास घलो हे  अइसन नइ होही--काबर के आधुनिक शिक्षा के टीप म चढ़े, विकास के चोटी म बइठे कतकोन देश के मनखे मन  अपन लोक संस्कृति कोती लहुटत हें। महल ले उतर के अपन रहे बर माटी के कुरिया बनाये ल धर लेहें। सोना-चाँदी के थारी के खवइया मन पतरी के फायदा ल देख के पाना-पतेरा म खाये ल धर लेहें। बिमारी ले बाँचे बर फ्रिज के पानी के बदला म मरकी-करसी के पानी ल पिये ल धरत हें।

उन ल समझ आये ल धर लेहे के जम्मों पुराना रीति-रिवाज, खान-पान, परंपरा ह बेकार नइये।उन स्वीकार करे ल धर लेहें के असली आनंद लोक संस्कृति अउ लोक व्यवहार म हे।

  आशा म दुनिया टिके हे। घुरवा के दिन तको बहुर जथे कहिंथे। मैं तो जिंयत-जागत ,सब के सेवा करइया गाँव के गुड़ी अँव त मोरो दिन बहुरबे करही। तुँहर मन ले सहयोग के बिनती हे।आशा हे सहयोग करहू।


चोवा राम ' बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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