Tuesday 15 March 2022

होली सरा ररा सुन ले मोर कबीर

 होली

सरा ररा सुन ले मोर कबीर 


- दुर्गा प्रसाद पारकर 


भौगोलिक नजर ले छत्तीसगढ़ सम्पन्न क्षेत्र हरे। रतनपुर, सिरपुर, खूंटाघाट, माड़मसिल्ली, रूद्री कस इहां कतको जघा ह पर्यटक मन के मन ल मोह लेथे। डोंगरगढ़, देव बलोदा, जांजगीर, तुरतुरिया, चम्पारन, बारासूर, मल्हार अऊ भोरमदेव ह इतिहास के अमूल्य धरोहर हरे। करमा, ददरिया, सुआ गीद, फाग अऊ डंडा नाच, फुगड़ी, राऊत नाच, गौरा गीद, जंवारा गीद, माता सेवा, पंथी नाच, चंदैनी, पंडवानी, बिहाव गीद, भजन, रामधून ह तो छत्तीसगढ़ के चिन्हारी कराथे। होली ह पौराणिक कथा अउ कतको दंत कथा ले घलो जूड़े हे-फागून म डिड़वा रोवय, अलीन गलीन सुन के फाग। डूड़ी उपर जऊन कथा प्रचलित हे ओहा येदइसन हे - डूड़ी राक्छसीन ह बड़ उपई रीहिसे। ओहा अतृप्त यौवन के सिकार रीहिसे। इही दुख म ओखर मउत होगे। मरे के बाद डूड़ी राक्छसीन के भूत ह मनखे मन ल तंगाए बर लीस। खिसिया के लोगन मन राक्छसीन ल गारी बखाना दे बर धर लीन। यौन क्रिया ले जुड़े गारी बखाना दे ले राक्छसीन के प्रेतात्मा ल सान्ति मिलय। जेखर से मनखे मन ल सतई कम होगे। एदे श्लोक ले ए उदीम ह सिरतोन घलो लागथे-''भगलिंगा किते शब्दै: स तृप्ति भवादमययाप्त।ÓÓ तेखरे सेती साल के साल होली ठउर म अश्लील शब्द के प्रयोग करके डूड़ी राक्छसीन ल सांत करत चले आवत हे जउन ह अब शिक्षा में बढ़ोतरी के संग धीरे-धीरे गारी बखाना के कमती होवई ह बने बात हरे।

बंसत पंचमी के दिन होले डाढ़ म अण्डा पेड़ के डारा ल गड़िया के पूजा-पाठ करते भार होली खातिर डारा-पाना सेकलई के सुरूआत हो जाथे ताहन सुन ले रोज, सरा ररा सुन ले मोर कबीर। नेवदहा मन संझा के संझा सियनहा मन सन डंडा नाचे बर सीखथे जेखर प्रदर्शन होली के दिन होथे। होली बर घर पीछू पांच ठन छेना अऊ लकड़ी सकेले जाथे। होलिका दहन के संग ढेकना ल घलो बरोथे। कतको बिपत ल बरो के बच्छर भर बर परिवार के सुख सांति बर प्रार्थना करथे। होली परब म जउन गीद ल गाथे ओला फाग अऊ नृत्य ल डंडा नाच के नाव ले जानथन। रायपुर अऊ दुरूग राज में नंगारा ल बीच म राख के चारों गुड़ा बइठ के गाथे बजाथे। एक झिन गाथे तेन ल सब झिन हाथ लमा-लमा के दुहराथे। फाग गीद के सुरू अऊ अंत म सरा ररा सुन ले मोर कबीर कही के सर्राथे। सर्राते भार नंगड़ची ह ताल मारथे। फाग ह गनेश बन्दना ले पिचकारी मारथे - 


अरे प्रथम गनेश मनाऊं अहो देवा

प्रथम गनेस मनाऊं

इही तरज म विद्या के देवी सारदा के सुमरनी करथे-

चल हाँ पहिली देवी सारदा लेइहौं

पहिली देवी सारदा गा लेइहौं


पंदरा दिन आगु ले होली के तइयारी करथन। घर दुआर ल लीपथन-पोतथन। मौसम मनखे ल प्रभावित करथे। बसंत ऋतु म तो ठुड़गा ह घलो पाना फोरे ल धर लेथे तब तो फेर एहंवाती के तो बाते अइलगे हे। मंगनी-जचनी चलत रहीथे। नवा नवा दुल्हीन-दुल्हा बनइया मन के हिरदे म जोड़ी देखे के उमंग ह छाए रहिथे। ओन्हारी लुआ जय रहिथे। किसान निश्चिंत मनाथे होली तिहार। लइका मन के गर के बतासा ह तिहार के उमंग ल दुगुना कर देथे। तिहार के दिन ठेठरी, खुरमी, अइरसा, सोंहारी, भजिया म तो झेंझरी ह बकबकावत रहिथे। बच्छर भर म सब ले जादा सुख अऊ सिंगार फागुन म देखे बर मिलथे। तभे कहिथे - हे माता तोर फागुनी सिंगार ह घलो अद्भुत हे। तोर सिंगार ल निहार के अइसे लागथे जानो मानो सुख ऊपर तोर अधिकार हे। तोर बेनी के गोंदा के फूल ह सबके मन ल मोह लेथे -


फागुन मास अहो माया

सुखीन के अधिकारी

बेनी गंथाए वह दस मूड़ के

खोंचे गोंदा भारी


हिरण्यकश्यप ह अपन बहिनी ले बिनती करीस कि प्रहलाद ह भगवान के नाव ल जपत रहिथे, एला तंय ह आगी म लेस के मार डर। होलिका अपन भाई के बात ल मान के भतीजा ल पा के आगी म प्रवेश करीस। आगी म जाते भार होलिका जर के बरगे। फेर प्रहलाद ह ईश्वर के किरपा ले बांच गे। तेखरे सेती होली ल बुराई उपर अच्छाई के विजय के खुशी म होली तिहार मनाए के परम्परा चले आवत हे। होली ल राधा-कृष्ण के पावन प्रेम ले घलो जोड़थे। छत्तीसगढ़ म यदुवंशी मन के भरमार हे तेखरे सेती इहाँ होली ल भारी धूमधाम ले मनाथे। अधिकांश पारम्परिक फाग गीद म किसन के गुनगान मिलथे -


मन हर लियो रे, मन हर लियो रे

छोटे से स्याम कन्हैया

छोटे से रूखवा कदम के

भुईंया लहसे डार

मुख मुरली बजाय

उपर म बइठे कन्हैया, कन्हैया

छोटे से स्याम कन्हैया


अइसे केहे जाथे कि गोंड़ मन ह डंडा ल अपन जातीय नृत्य मानथे। उंखर मुताबिक जब राम अऊ रावन के लड़ई होइस तब इन मन राम के सेना के रूप म लड़े रीहिन हे। रावन उपर जीत के खुसी म गोंड़ मन डंडा नृत्य करीन। तभे ले डंडा नृत्य के सुरूआत मानथे। डंडा नृत्य ल करीब-करीब पचासो किसम ले नाचे जा सकत हे। एमा प्रमुख रूप ले दूधइया, तीन डंडिया, चौदड़िया, माढल देब, चरखा धूर्रा, पीछ जोरूल समधीन भेंट, रेखी खोडूल अऊ आधा झूल ह जादा प्रचलित हे। सरगुजा जिला म सिकार सैला, हैरानी सैला, लहरी बैठकी, चाचरा, बगैर झूमर पुनरक्खी, भइस छंद, अइन ठड़गा, फुगथनी, पन छुठवा कस अऊ कतको सैली चलन म हे। आदिवासी क्षेत्र म डंडा वीर नृत्य के प्रतीक हरे। डंडा नृत्य ल पं. मुकुटधर पाण्डेय ह छत्तीसगढ़ के रास माने हे।

डंडा नृत्य म ताल के बिसेस महत्व हे। डंडा के चोट ले ताल उत्पन्न होथे। मैदानी भाग म डंडा अऊ पर्वतीय भाग म सैला नृत्य के नाव ले जाने जाथे। सैल के अर्थ होथे पर्वत अऊ पर्वत म होवइया नृत्य ल सैला नृत्य कहिथन। सैला के सामान्य अर्थ डंडा घलो होथे। चूंकि छत्तीसगढ़ म ए नृत्य ल डंडा के सहारा ले करथे तेखरे सेती डंडा नाच के नाव ले जानथन। नर्तक मन हाथ-डेढ़ हाथ के डंडा धरे रहिथे। सम संख्या म छै से ले के पचास झिन घलो एके संघरा नृत्य कर सकथे। डंडा नृत्य के पहिली चरण म ताल मिलाथे। दूसर चरण म कुहकी दे के बाद गायन अऊ नृत्य के सुरूआत हो जथे। नर्तक एक दूसर के डंडा उपर चोट करथे, उचकथे, कभू-कभू झूकथे कभू पीठ ल जोर के सिमटथे। अगल-बगल क्रम से डंडा देवत झूम-झूमके फैलत सिकुड़त त्रिकोण चतुष्कोण अऊ वृत्त के रचना करत नाचथे। डंडा नचइया मन दल के दल किसान मन के घर जोहारे बर घलो जाथे। ए क्रम पंदरा दिन ले चलत रहिथे। डंडा नृत्य के बदला म जऊन अनाज रूपिया मिलथे ओला सकेल के होली के दिन बर रंग गुलाल बिसा के गांव भर एक जघा सकला के रंग खेलथे। नृत्य के प्रारंभ म ठाकुर देव (महादेव) बंदना, सरसती, गनेस के सुमिरन करे के बाद कृष्ण अऊ राम के जुड़े गीद गाथे। सुर कबीर अऊ तुलसी दास के रचना घलो हो सकथे। छत्तीसगढ़ म डंडा गीद के बाननी प्रस्तुत हे -


तना रि ना मोरी ना नारि रे भाई

तना ना मोरी ना नारी जो

जोहर-जोहर ठाकुर देवता

पइयन टेको तोरे जो -


डंडा नृत्य के बहाना दमांद घलो पसंद करथे। फागुन ह दुल्हा कस सज धज के आगे हे। दुलहा डउका ल परघाए बर पाना पसई ह चिरई चिरगुन, नर नारी अऊ देवी देवता मन ल नेवतथे। फागुन में सरसों ह झूमत नाचत हे। परसा ह चऊंक पुरे हे जेमा फागुन ह आमा के मउर पहिर के खड़े हे। अतेक सिंगार म सजे फागुन ल मउंहा ह चाउंर टिकथे। कोइली दीदी ह सुआसिन बन गीद सुनावत हे। रसिया भंवरा ह ढेड़हा बन के अपन भाग ल संहरावत हे। जाड़ बबा ह अब चोंगी फूकत लकर धकर दंउड़े भागे। अभनपुर डाहर के डॉक्टर रामाधीन ह तो बड़ा मजादार बात फागुन म कथे -


डोकरी डोकरा कले चुप

भजिया ल चबलावत हे,

इंखर ठिठोली ल का कहिबे

राधा-किसन के जोड़ी लजावत हे।


दंतेवाड़ा के फागुन मड़ई के तो बाते अइलगे हे। फागुन महीना म अंजोरी पाख के छट के दिन दंतेसरी माई के कलस स्थापना के संग मड़ई सुरु होथे। थाना के आघु मेड़का डबरा म माई के कलस अउ छत्र संग गांव गांव ले लाने देवी देवता ल राखे जाथे। कलस स्थापना के दुसर दिन माता तरई म 'ताड़फ लंगाÓ धोनी होथे। दसमी, एकादसी, दुवास अउ तेरस के दिन लम्हामार, कोटनीमार, चीतलमार अऊ गंवरमार के आयोजन होथे। येमा लोगन ल गंज मजा आथे। तेरस के दिन मड़ई के जवानी चघे रहिथे। बड़ा धूमधाम ले खिलानी के कार्यक्रम होथे। इहिच दिन संझा होली के पहिली गारी उत्सव मनाए जाथे। चउदस के दिन आंवरामार होथे। पुन्नी के दिन पादूका पूजन होथे। संखिनी अउ डंकिनी के संगम म भैरव बाबा के पांव के चिन्हा के पूजा के बाद लोगन रंग गुलाल म रंग जाथे। अऊ गांव-गांव ले आए देवी देवता के बिदाई के संग दंतेवाड़ा के फागुन मड़ई पूरा होथे।

होली के सद्भाव पूर्ण वातावरण में असामाजिक तत्व मन ह धीरे धीरे अतलंग नापे ल धर ले हे। रंग गुलाल के जघा ग्रीस, चीट, वारनीस अउ पेंट के प्रयोग करथे। जऊन ह तबीयत बर हानिकारक हे। होलिका दहन बर जीयत पेड़ ल नई काट के पर्यावरण में योगदान दिये जा सकत हे। होली खेले के बखत सालीनता के परिचय देवय ताकि रंग गुलाल ह कोनो ल बुरा झन लागय। होली के पांचवां दिन छत्तीसगढ़ म रंग पंचमी मनाए जाथे। जेन ल लोक भाषा म 'धूरÓ कहिथन। जऊन ल नवा बछर के सुआगत के संग 'बासी तिहारÓ के रुप म मना के परंपरा ल जीवित राखे हन।


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