बसंत के पता -साजी
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हम ठहरेन कविता के प्रेमी आदमी ।कोनो मानय चाहे झन मानय, हमर तो पक्का मानना हे के प्रेम करे ल तको कोनो न कोनो सिखोथे----सिखोथे मतलब प्रेम के भावना ल जगाथे। प्रेम आटोमेटिक हो जथे---, प्यार किया नहीं जाता हो जाता है-- ये बात हम ला कभू समझ नइ अइस ,काबर के कारन के बिना कारज कइसे हो सकथे ? बिना बिजा के पेंड़ कइसे जाम सकथे ?
हमर तो इही अनभो हे के ये भावना ल जगाये म संगी- साथी ,अरोसी-परोसी , सगा-सोदर अउ मोबाइल के सबले बड़े हाथ होथे। हम ला तो कविता ले प्रेम करे ल सिखोइच ----हमर कवि कका हा ।
शुरु- शुरु म जब कवि कका हा बेरा-कुबेरा ,का बिहानिया-- का मँझनिया--का संझा --का रतिहा ---- जब पावय तब घेर लय अउ बइठार के अपन कविता ला सुनावय , त कुछु समझ नइ आवय तेकर सेती असकट अउ कंझासी लागय।अइसे लागय के कोनो धर बाँध के भगति करवावत हे। तभो ले हम ला मजबूरी म सुने ल परय ,काबर के नइ सुने ले कका के गारी अउ नाना प्रकार के उपदेश सुने ल परै।
वो काहय -- अभी सुन ले बाबू तहाँ ले दुनिया ल तहूँ सुनाबे अउ जब आन मन सुनके आह-आह, वाह-वाह कइहीं तब जानबे के कविता ले का रस मिलथे तेला।
वो हा अपन कविता ल सुनाके वाह-वाह-वाह- तको कहे ल काहय।अउ हम कभू वाह-वाह कहे ल भुला जन त वो गुसिया जय--तहाँ ले वोकर मुँह ले--गदहा, मूरख,गोबर-गनेश, भँइस के आगू बीन बजाय- भँइस रहे पगुराय, बेंदरा का जानही अदरक के सुवाद -- जइसे कतको अलकरहा सबद झरे ल धर लय।
कहे गे हे--"करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।" त कविता सुनत-सुनत हमूँ कब सुजान कस होगेन पतेच नइ चलिस। कवि कका ह, कविता प्रेम के अइसे बिजहा डारिस के जब हम जवान होयेन तहाँ ले शेरो-शायरी लहलहाये ल धरलिस। फेर तो हम आशु अउ धाँसु कवि बन गेन। काड़ी-कचरा, कीरा-मकोरा ,माटी-पथरा, मोंगरा-गजरा, नदिया-तरिया, खेत-हलधरिया, आँखी-पाँखी, मुच-मुच मुस्कान, हिरनी कस रेंगान,भगवान, ईमान,बेइमान,गरीब-धनवान,नेता---देता--लेता---,न जाने का का उपर उत्ता-धुर्रा लिख डरेन। " जहाँ पहुँचे न रवि, वहाँ पहुँचे कवि "---फोकटइहा थोरे कहे गे हे।
फेर अब उमर ह जब ले साठ पइत उलाँडबादी खेले हे मतलब कलथी मारे हे--- तब ले हम सठियागे हावन। ये देख न-- फागुन लगे महिना पूरने वाला हे----, चार लाइन का एक लाइन तको नइ लिखावत हे। लिखे के उदीम म रात-रात भर नींद नइ परत ये, उपर ले सियनहिन ह घलो खिसियाथे। हम तो कतको उपाय करके देख डरेन फेर हमर हिरदे के अँगना म कल्पना ह आबे नइ करत हे। अइसे लागथे के नवा-नवा सुवारी कस कोनो बात म रिसागे हे।मनाये म नइ मानत हे। हमर जी ह छटपिट छइया करत रथे। का करन--कइसे करन ,तइसे लागथे।
हम ला ये तो मालूम हे के-- जिहाँ नगाड़ा घिड़कथे अउ होलहार मन रंग- गुलाल उड़ाथे ,उहाँ बसंत राजा ह--"होली हे-- होली हे"- चिल्लावत ,साक्षात बइठे रइथे। वोला देख के कहूँ दू-चार लाइन लिखा जही सोचके हम पंदरही होगे गाँव-गाँव, गली-गली --भभूत धरके खोजत हन।फेर कोनो मेर नगाड़ा बाजत नइ मिलिस, होले रचाये नइ मिलिस, एको झन होलहार नइ दिखिस। जब ये सब नइये त बसंत कहाँ ले वो जगा रइही।
हम ये सोच के---हो सकथे वो हाट-बजार जिहाँ पिचका ,अबीर-गुलाल अउ रंग-रंग के टोपी बेंचाथे तिहाँ बसंत राजा ह पधारे होही ----,खोजत-खोजत चल देन त उहाँ बिना गिराहिक के दुकानदार बिचारा मन मुरझुराये, झपकी मारत दिखिन।बसंत राजा के अता-पता नइ चलिस।
हो सकथे--बसंत राजा ह कोनो खेत -खार म ममहावत आमा रुख, नहीं ते कोनो गँधिरवा,कउहा, परसा रुख के तरी म मस्त-मगन बइठे ,कोइली के गीत सुनत होही---- बिचार के हम उँहचो बइहा भुतहा कस खोज डरेन फेर नइ मिलिच। कहाँ ले मिलही? ये पेंड़े मन नइये त वो कहाँ बइठही। ठक ठक ले मेढ़-पार अउ उजाड़ खेत-खार म?
हम अल्लर होके घर लहुटत रहेन त हमर मितान मिलगे।वो पूछिस----यहा बहेरा के भूत कस तैं कहाँ गिंजरत हस जी मितान। हम बतायेन---कविता लिखे बर बसंत ल खोजत हँव जी। त वो कहिस--वो हो ---एती वोती झन भटक -----सीधा दारू भट्ठी जा -- बसंत ह पक्का उहें मिलहीं।
हम वोकर बात ल मानके दारू भट्ठी कोती पता-साजी करे बर जात हन।
चोवा राम ' बादल '
हथबंद, छत्तीसगढ़
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