Saturday 28 May 2022

कहानी- फुलकैना

 कहानी- फुलकैना

                                             चन्द्रहास साहू


सात आठ महिना आगू धरे रिहिस गस्ती के भुड़हुर ले  ओला मनबोधी हा। कभू आगू मा आवय। कभू लुकाये। अब्बड़ पदोइस। अब्बड़ फो फो  ...करिस फेर अपन गुरू खोरवा बइगा ला सुमिरन करिस, मंतर पढ़हिस अऊ झिटका मा मुड़ी ला चपक के धर डारिस। सांप धरई मा गुरू हा गुड़ आवय तब मनबोधी हा शक्कर आवय। मुड़ी हा हाथ मा चपकाये रिहिस अऊ मरवा भर चिकचिकावत काया हा लपेटाये रिहिस । दू दिन ले उपास रिहिस अऊ पूजा अरचना करिस इही दुधनागिन सांप के । बीख के दांत ला टोरिस मनबोधी हा अऊ फरहर करिस ।

मनबोधी अब्बड़ गुनवंता आवय सांप धरे बर ,बीख उतारे बर फेर सरसती अऊ लछमी दाई हा एके संघरा नइ थिराये। कांवर के दुनो कोती सिका मा बड़का नान्हे झपोली ला धरे अऊ गांव- गांव किंजर के सांप देखावय मनबोधी हा। अब तो मइनखे-मइनखे के अंतस मा बीख भरगे हावय तब कोन देखे ला आही बिखहर सांप ला...? अऊ कोनो सिधवा मइनखे देखथे तब हाँसथे,मुचकाथे थपोली मारथे। फेर .....दार चऊर देये के बेर आनी बानी के  बरन दिखथे सिधवा मइनखे के। अइसे लागथे जइसे मइनखे के पुरखा बेंदरा नोहे टेटका आवय। आनी बानी के बरन बदलइया टेटका ।

आज घला सांप देखाये बर आये हावय ये गांव मा मनबोधी हा ।

मुड़हेली,अहिराज ,करैत ,कोबरा ,अजगर ,डोमी, गऊहा डोमी मन ला बीन मा नचाइस। सांप मन घला बिधुन होके नाचे लागिस। दूध नागिन ला तो झन पुछ ....मनबोधी के बीन मा मातगे रिहिस। दुधिया बरन मुडी मा खड़ाऊ करिया भुरवा चिकचिकावत हे।  सुरूज नारायेन के अंजोर मा घात सुघ्घर दिखे। मुड़ी डोलावय फन फरिहावय अऊ जीभ निकाले लबर-लबर। सौहत नागमाता आवय...फेर सांप आवय-बिखहर सांप। 

         मनबोधी हा किंजर- किंजर के जड़ी बुटी अऊ ताबिज बेचिस। बीस रूपिया अऊ ठोमहा भर चाऊर अतकी सकेलाइस। राई कस मेहनताना अऊ पहार कस संसो। गरू मन ले सांप मन ला झपोली मा डारिस अऊ कांवर के सिका मा सकेले लागिस। आज अब्बड़ गरू लागत रिहिस येमन हा।


             बुढ़वा के खुमरी-कमरा,बबा के गोरसी, तेली के घानी, कोस्टा के कपड़ा बुनई कतको जिनिस नंदागे साहेब ....!  फेर नइ नंदाइस ते लचारी बेकारी भुखमरी अऊ पुरखा के देये गरीबी हा।

कोन जन येहां कब नंदाही ते ...? फेर मनबोधी के आगू मा अंधियार छा जाथे जम्मो ला गुनथे तब। ओखरो पुरखा हा भूख बेगारी गरीबी के संग कुछु देये हावय तौन आय- झपोली,सांप,टूटहा बीन, ताबिज, चिरहा-फटहा भोज पत्तर, आनी-बानी के जड़ी बूटी,बेंदरा ,घुघवा के हाड़ा । मइलाहा घोघटाहा कपड़ा अऊ चुंगड़ी के मोटरी।


जम्मो ला गुनत-गुनत सब्बो जिनिस ला सकेलिस अऊ कांवर ला बोहो के गांव ले निकले लागिस।

    आज तो अब्बड़ थकासी लागिस मनबोधी ला। गोड़ अइन्ते-तइन्ते माढ़े लागिस। थरथराये लागिस,कांपे लागिस। बदन हा पसीना ले तरबतर होगे। हफरे लागिस। थकथिक-थकथिक करत महुआ के छइयाँ ला खुंदिस अऊ जझरंग ले कांवर ला पटक दिस। सांस बोजाये कस लागिस अऊ खाँसे लागिस ....बलगमी खाँसी। लाहर-ताहर होगे। लम्बा-लम्बा सांस लिस तब धिरलगहा बने होइस।

अवइयां जवइयां संग जोहार भेट करिस मनबोधी हा अऊ गोठ बात घला ।

’’आरूग भोकवा हावस मनबोधी तेहां । दुनिया कहॉ ले कहॉ चल दिस अऊ तेहा आज ले सांप डेरहू ला किंजारथस। छोड़ अइसन काज ला...?''

 ओखर संगवारी किहिस चिलम सपचावत।

मनबोधी गोठ ला सुन के  संसो मा पर जाथे। ओखर गोसाइन केवरा हा घला बरजथे अइसन बुता झन कर अइसे। फेर ....मनबोधी तो पेलिहा आवय। एक कुकरी के एक गोड़। कतको बेरा झगरा घला करे केवरा हा फेर ....? मनबोधी गुनत-गुनत सांस छोडि़स।

          सुरूज ले उजियारी, पानी ले जुड़पन, चांद सितारा ले चमक अऊ फुल ले ओखर ममहासी ला कोनो नइ छोड़ा सकय । तब सपेरा ले सांप ला कइसे छोड़ा सकथे ? इही सांप हा तो ओखर चिन्हारी आवय। ये अतराब के मन जानथे ओला। कका-ददा, बबा ,भाई-बहिनी कोनो ला लाज नइ आइस ये बुता करे बर । सांप के फुफकार,ओखर बीख, ओखर डरभुतहा बरन मा बिधुन होके बीन के आगू मा नचइ ले पुरखा के पेट बर रोटी चुरे अऊ मनबोधी बर घला जेवन बनथे। मरनी-हरनी,खात-खवई,बर-बिहाव जम्मो बेरा येखरे कमई ला खाये हव। आज इही ला ढील देवव...? नही...नही....। मनबोधी के अंतस मा गरेरा उमड़त रिहिस।

                    "करजा के बीख हा सांप के बीख ले जादा बिखहर आवय। सांप के चाबे ले मइनखे एके बेरा मरथे फेर करजा के बीख ले घड़ी-घड़ी,छिन-छिन मरथे। करजा छुटे ला कोनो नइ आवय ....। तुही ला छुटे ला परही। जीते जीयत ...। तोर मांस ला निछ के उधार ला वसुलही अऊ मरन घला नइ देवय सेठ हा । गुन ले...। सांप ला छोड़ अऊ किसानी करके सुघ्घर जिनगी जी जइसे आने मन जियत हावय। भइसा के सिंग भइसा ला गरू होथे। भइसा झन बन ...बइला बन...बइला... किसनहा बइला।’’ 

अइसना तो काहय गोसाइन केवरा हा अगियावत।

केवरा आज सौहत नइ हावय फेर ओखर आरो हा मनबोधी के कान मा गरम तेल रूकोवे कस लागथे।

अंतस खिसियानी होगे । रूआं ठाड़,आँखी लाल, लहु के संचार थिरागे अऊ सांप मन अब बस्साये लागिस। जेवनी गोड़ ला उठाइस अऊ कांवर ला भकरस ले मार दिस। जम्मो झपोली छिही -बिही होगे। फो  फो .. के आरो आये लागिस चारो मुड़ा ले। झपोली मा बंधाये डोरी मन ला उत्ता-धुर्रा हेरिस । नंननीन-नंननीन देखे लागिस जम्मो सांप मन मनबोधी ला अऊ लबर-लबर जीभ निकाले लागिस। ओखर संगवारी हा रूख मा चढ़गे  रिहिस। मनबोधी बइहा होगे हे आज .....अऊ ऊप्पर ले गांजा के नशा।

"तेहां मोर ददा ला चाब के मार डारेस रे डोमी। अऊ तोला मेहां भगवान बना के खांध मा किंजारत हावव। तोला रे ! लद्दी अजगर ! भीड़ नइ जुरिया सकेस। तेहां.. तेहां मुड़हेली, अहिराज पुरखा ला तारेस अऊ मोला लांघन मारत हस...? मरो तहु मन जंगल मा।''

 मनबोधी बफले लागिस। हफरे लागिस । पसीना म पीठ भीज गे । सिकल ले पसीना चुचवाये लागिस। सलमिल -सलमिल करत  सांप मन सुक्खा पत्ता मा लुकागे । तब कोनो सांप हा भिंभोरा मा खुसरगे।

"अऊ तेहा रे दुधनागिन ? ... हा....हा.....!''

  मनबोधी हाँसत हाबे अऊ हफरत किहिस। झपोली के गठान ला हेर दिस। नान्हे झपोली के डोरी के हिटते साठ हाथ भर ले थोकिन बड़का सांप हा फन फरिहा के बइठगे फो... फो .... मनबोधी खबले धरिस अऊ दुरिहा मा फेक दिस। सांप खिसियागे फो... फो लबर-लबर जीभ निकालिस मुड़ी ला भुइया मा पटके लागिस अऊ गुर्री - गुर्री घला देखे ।


’’रिस लागत हावय या फुलकैना ! ले रिस ला उतार ले।’’

 सांप ला खिल्ली उड़ावत  किहिस मनबोधी हा। गांजा के निसा मा झुमरत  नानकुन झिटका ला फेक दिस। झिटका उप्पर मुड़ी पटकिस सांप हा अऊ कुटका - कुटका होगे झिटका हा। नीला - नीला रंग घला दिखे लागिस।

"फुलकैना ! तेहां  मोर फुलकैना आस । नखरावाली । केवरा कस नखरा देखाथस हा....हा...।" 

मनबोधी हाँसे लागिस थपोली मार के अऊ सांप हा फो... फो...। केवरा बर यें दूधनागिन सांप रिहिस फेर मनबोधी बर फुलकैना आवय। अंतस के रानी अऊ कभु -कभु तो ओला गोसाइन कहिके चूमे । हाथ मा लपेट के ,नरी मा अरो के नाचे गाये अऊ झुमरे । 

          जम्मो ला देख के केवरा के रिस तरवा मा चढ़ जाथे अऊ अब्बड़ बखानथे। बखानत - बखानत थक जाथे अऊ रोये लागथे। 

"येहां सांप नोहे मोर सउत आए ..। सउत ... ।'' केवरा गोहार पार के रो डारतिस अऊ ...  ..मनबोधी हा कठल-कठल के हाँसे लागतिस। 

"तेहां नेवननीन रेहेस तब तोला फुलकैना काहव । अब तेहा जुन्नागेस केवरा । अब तो ये दूधनागिन हा नेवननीन आवय.... मोर फुलकैना .......!''

हा  ...  हा  ... मनबोधी हाँसे अऊ केवरा हा झिटका ला धरके मारे बर कुदाये। आगू - आगू मनबोधी पाछू - पाछू केवरा।


"तेहां मोर गोसाइन आस अऊ येहां सांप आय। तोर मया के बटवारा नइ होये केवरा ओहा तोरेच आए, पोगरी । फोकट आँसू झन बोहा।'' मनबोधी केवरा ला समझातिस अऊ पोटारे के उदीम करतिस फेर नरी मा अरवाय दूधनागिन के फो... फो.... । केवरा के मुहू करू हो जावय।

         

       मनबोधी जम्मो ला सुरता करत  अपन फुलकैना दुधनागिन ला धरे के उदीम करत हे । दुधनागिन तो बिकराल हे आज फो... फो... फुफकारत हावय।

                              ........000.........


दाऊ के आधा पिलाट ला रोपा लगाये के मसीन मा हायब्रिड धान के रोपा लगाइस अऊ बाचल खोचल ला केवरा के टोली मन लगावत हावय। आज झरती आवय रोपा लगाइ हा। ओखरे सेती कुकरी अऊ मंद के बेवस्था घला  हावय- रोपा झरती पार्टी।

’’अरे भुखऊ ! केवरा नोनी बर एक कटोरी  कुकरी साग जोर दे। अब्बड़ सुघ्घर बुता करिस। जम्मो किसानी बुता ला सीखगे नोनी हा।’’ 

दाऊ किहिस । जम्मो कमइया मन दाऊ के जोहार भेट करिस ।

’’ तोर चुरी अम्मर रहे बेटी !''

 दाऊ आसीस दिस।

केवरा टुपटुप-टुपटुप पांव परिस अऊ घर लहुटगे। टुटहा खइरपा ला ढ़केलिस।

’’का करत हस ?’’ 

 जम्मो कोती ला खोज डारिस। 

बखरी के जाम पेड़ के तरी मा बरदखिया खटिया मा बइठे रिहिस मनबोधी हा।

’’कइसे ? तोर तबियत तो बने हावय ना ! काबर उदास हावस ?''

 हाथ-गोड़,माथ ला टमरत किहिस केवरा हा अपन गोसाइया मनबोधी के। 

मनबोधी अब आगियाये लागिस उदुप ले।

"ढ़ील देव ......जम्मो सांप ला। तोर बर गरू होगे रिहिस ना ... ! रात दिन झगरा मतावस न ! सांप-डेरहु के बुता झन कर अइसे। ढ़ील देव.... सब ला।  ''

लाल आँखी देखावत किहिस मनबोधी हा ।आज मनबोधी के बरन बिकराल दिखत रिहिस गांजा के नशा मा । आँखी लाल लहू उतरे कस। ससन भर देखिस केवरा हा ओखर बरन ला । खटिया मा माड़े झपोली ले फो..  फो... के आरो आइस । केवरा के रिस तरवा मा चढ़गे।

"लबारी मारथस । जम्मो साँप ला ढील देव कहिथस। तब ये का आय .... ? येला आरती उतारे बर राखे हस..? ये दुख्खाही नागिन ला... ? फेक ना यहू ला ।’’

केवरा किहिस अगियावत अऊ जेवनी गोड़ मा झपोली ला मारिस । फेका गे झपोली हा दुरिहा । झपोली मा रखाये सांप हा फो... फो... करत रिहिस अऊ केवरा घला।

कुकरी साग के अब्बड़ साध करथे मनबोधी हा फेर उदास मन ले खाइस भात ला जेवन करके सुतगे जल्दी आज।


     घड़ी बारा बजाइस अऊ केवरा के नींद उमछगे। मनबोधी रातभर छटपिट-छटपिट करिस फेर  नींद नइ आइस झिंगरा के झिंगिर-झिंगिर नरियाइ अऊ मच्छर के चबई। केवरा तो अब फुसुर-फुसुर सुतत रिहिस।

’’ये दई !’’

 झकनका के उठिस अऊ अपन जेवनी गोड़ ला टमरिस केवरा हा। दू टिपका लहू के बून्द रिहिस फेर अब्बड़ झार। करिया नीला लहू के टिपका ढिबरी ला बारके देखे लागिस मनबोधी हा। केवरा अगिया बेताल होगे रिहिस।

’’काय किरा चाबिस ते देख तो या !''

 केवरा काहन नइ पाइस अऊ लाहर - ताहर होगे।

मनबोधी ससन भर देखिस केवरा ला अऊ जेवनी गोड़ ला घला। जम्मो ला जान डारिस मनबोधी हा तरवा ला धर के बइठगे । ससन भर देखिस अऊ सांस फुले लागिस मनबोधी के।

"फुलकैना ! मोर फुलकैना !''

केवरा ला पोटार लिस मनबोधी हा। केवरा के आँखी उघरत मुंदावत रिहिस।

"मोर ....इही जेवनी गोड़ मा ...तोर फुलकैना ला मारे... रेहेव......।''

केवरा  गोठियाये के उदिम करिस फेर आगू नइ गोठिया सकिस।

मनबोधी दउड़े भागे लागिस । कभू असपिताल जाये बर, त कभू जड़ी - बुटी मोटरी ला खोजे के उदीम करे । फेर काहा ले मिलही मोटरी हा ...जम्मो ला फेक डारे रिहिस ?

"फुलकैना..... ! मोर फुलकैना....।''

बइहा होके चिचियाये लागिस मनबोधी हा। अगास मा बादर गरजे लागिस। ओखर गोहार घला बादर के गरजना ले कमती नइ रिहिस।

" ....फुलकैना.... फुलकैना।''

मनबोधी चिचियावत हे कुलुप अंधियारी रात मा ।


चन्द्रहास साहू

द्वारा श्री राजेश चौरसिया

आमातालाब के पास

श्रध्दा नगर धमतरी छत्तीसगढ़

493773

मो. 8120578897

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समीक्षा----

पोखनलाल जायसवाल: 

मनखे के जिनगी कतको उतार-चढ़ाव ले भरे रहिथे। जिनगी के अँगना म दुख-सुख ह घाम-छाँव के खेल खेलथे। मनखे जिनगी म कई पइत हार जथे। उदासी के बादर घपटे ले चाह के नवा उदिम नइ कर पावय। अचकहा कोनो ऊँच-नीच बुता के आय ले जिनगी के गाड़ी पटरी ले उतरे धर लेथे। गरीब मनखे के जिनगी के गाड़ी कब पलट जही, एकर ठिकानाच नइ रहय। काबर कि गरीब के जिनगी गरीबी ले शुरु होथे अउ गरीबी च म खतम होथे। सुख-दुख के बरोड़ा कभू सँभले के मौका नइ दय। दूसर के आगू हाथ पसारके सुख-दुख के बुता करे ल परथे। अउ मुड़ म चढ़े करजा उतरे के नाँव नइ लय। जिनगी भर बर बोझा रहि जथे। इही बोझा म लदाय मनखे करजा ले उबरे के उदिम तो करथे। फेर गरीब के जिनगी एक बित्ता के पेट के चारों मुड़ा फँदाय रहि जथे। कोन जनी गरीब बर बने योजना कब गरीब के दुआरी म पहुँचही अउ गरीब ल तारही? का कोनो गरीब रथयात्रा कभू उँखर घर मुँहटा म उन ला अभराही, परघाही?

         आज घलव हमर बीच भूमिहीन अउ घुमंतु जाति के लोगन जिनगी बसर करत हें। जउन मन जिनगी ल होम देके जोखिम ले भरे बुता ले दू बेरा के रोटी के जुगाड़ बर संघर्ष करत रहिथें।       

        विकास के चकमकी के आय ले इँखर जिनगी के अँधियारी ह अउ घपटे धर लेहे। खेल-तमाशा, डोरी म रेंगे के करतब संग गाँव-गाँव घूम के पैतृक बेवसाय मूर्ति बनई, लोहारी बुता, विकास के नेंव तरी गड़े जावत हे। गरीब दू बखत के रोटी बर दिनभर घूमथे तो फेर रोटी के जुगाड़ नइ हो पावय।   

        सर्वहारा वर्ग आज घलव उपेक्षित हे। कोनो उँखर जिनगी म झाँके के कोशिश नइ करँय। इही सर्वहारा वर्ग के जिनगी ल सरेखत अउ उँखर दुख पीरा ल उघारे के उदिम करे हे चंद्रहास साहू जी मन। उही उदिम के चिन्हारी आय फुलकैना कहानी। जेकर नायक मनबोधी सपेरा सर्वहारा वर्ग के अगुवाई करत हे। उँखर संघर्ष अउ दुख-पीरा अउ आने पिछड़ा मन के संघर्ष अउ दुख-पीरा आय। जेला पढ़ के अइसे कोनो पाठक नइ होही जेकर हिरदे नइ फाटही। आँखीं म दुखसागर के लहरा नइ उमड़ही।

         कहानी म कहानीकार के सामाजिक संसो-फिकर घलव दिखथे। जे कर ले उन मन अपन सामाजिक दायित्व ल पूरा करे हें। देखव एक बानगी ल - बुढ़वा के खुमरी-कमरा, बबा के गोरसी, तेली के घानी, कोष्टा के कपड़ा बुनई नँदागे साहेब...! नइ नँदाइस ते लचारी, बेकारी, भूखमरी अउ पुरखा के दिए गरीबी ह।

    कोन जन एहा कब नँदाही ते....?


        ए कहानी म व्यंग्य बाण घात चले हे। तुक तुक के चलाय हे। जउन ह समाज ल नवा चिंतन करे / गुने बर मजबूर करही। मनखे ल अपन अंतस् म झाँके बर विवश करही। अउ इही मन चंद्रहास जी के समाज हित म गुने के क्षमता ल उजागर करथे।

    एक ठन अउ उदाहरण देखव -- 'करजा के बीख ह साँप के बीख ले जादा बिखहर आवय। साँप के चाबे ले मनखे एके बेर मरथे। फेर करजा के बीख ले घड़ी घड़ी छिन-छिन मरथे। करजा छुटे ल कोनो नइ आवय।तुही ल छुटे ला परही। जीते जीयत..।'

      मनखे अपन सक के चलत ले अपन पुरखौती ल छोड़े बर नइ सोचय, भले ओला अपन जिनगी कतको कष्ट सहि के गुजारे बर परय।

       मनबोधी घलव अपन पुरखौती बुता ल करथे। जात के सपेरा। साँप पकड़ के बिखहर दाँत निकाल के गाँव गाँव  साँप दिखाना अउ परिवार के पेट भरना। इहीच बुता तो उँखर पुरखौती आय। अउ बदलत समे के आगू अपेलहा मनबोधी अपन मयारुक केंवरा के घलव नइ सुनय। केवरा मनबोधी ले कहिथे-- "साँप ल छोड़ किसानी कर.....। भइसा बन...बइला बन ...बइला...किसनहा बइला। फेर मनबोधी चेत नइ करय।"

        केवरा पढ़े हे के नइ ? अलग गोठबात आय। फेर जिनगी के दुख ल पढ़ डरे रहिस अउ ओ दुख ले उबरे बर बड़ मिहनत करे बर परही, जानत रहिस तभे तो अइसन काहय। मिहनत के रकम अउ मरम ओला मालूम रहिस हे।

        चंद्रहास जी के रचना संसार म विविधता हे। ए कहानी म ए बात देखे ल मिलथे। ए कहानी म चित्रण भर नइ हे। ए कहानी व्यंग्य के खजाना आय।

      एकर पहिली के व्यंग्य ल लिखे के मोह ल मैं छोड़ नइ पावत हँव। इही ह चंद्रहास साहू के भाषा के कमाल आय कि पाठक उँकर भाषाई चातुर्य के मोह फाँस म उलझ के रहि जथे। फँस जथे। अउ सरलग पढ़त जाथे।

     "अब तो मइनखे मइनखे के अंतस् म बीख भरगे हावय, त कोन देखे ल आही बिखहर साँप ल...? चउर दे के बेरा आनी बानी के बरन दिखथे सिधवा मइनखे के। ..... बेंदरा पुरखा नोहे, टेटका आवय। आनी बानी के बरन बदलइया टेटका।"

     थकथिक-थकथिक, लाहर-ताहर, लबर-लबर, सलमिल-सलमिल, नननीन नननीन अइसन कतको जुड़वा शब्द हें जेकर प्रयोग कहानी के सुघरई बढ़ा देहे।

         मनबोधी अउ केवरा के मया के बीच फुलकैना (नागमाता) साँप के आय ले कहानी म मोड़ आथे अउ मार्मिक ढंग ले पूरा होथे। कई पइत अइसन घटना ल देखे सुने गे हे। 

      एक दू जगह हव/ हँव, हावव/हावँव के सही प्रयोग नइ हो पाना कहानी पढ़े म ब्रेक लगा देथे। संगेसंग एक वाक्य ह पाठक ल भरमा दिही अइसे लगथे --- "केवरा आज सौहत नइ हावय, फेर ओखर आरो ह मनबोधी के कान म गरम तेल रूकोवे कस...।" 

    ए वाक्य म थोरिक विचार के जरूरत हे, अइसे मोला लगथे।

      प्रेम गली अति साँकरी, जामे दो न समाय।......के लौकिक भाव ल सँजोए कहानी के समापन मार्मिक हे। साँप के फो फो.. ...लाजवाब चित्रण। मनबोधी अउ केवरा के बीच फुलकैना ल लेके कइसे नोंक-झोंक होथे, एकर बड़ सुग्घर चित्रण होय हे। केवरा फुलकैना ल अपन 'सउत' काबर कहिथे मानथे अउ आखिर म मनबोधी के जिनगी ले केवरा के मया के डोर कइसे टूटथे, पढ़े के लइक हे।

     कहानी के शीर्षक फुलकैना सोला आना सही हे। फुलकैना मनबोधी के अंतस् के पुकार आय। उँकर मयारुक फुलकैना  आय।

     सुग्घर कहानी बर चंद्रहास साहू जी ल बधाई 💐💐💐


पोखन लाल जायसवाल

पठारीडीह पलारी

जिला-बलौदाबाजार छग.

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