Thursday 15 December 2022

व्यंग्य-‘चलव, हड़ताल करथन’

 व्यंग्य-‘चलव, हड़ताल करथन’

मन मारके आफिस गे रहेवँ। जइसे कुर्सी म मोर जन्मसिद्ध अधिकार हवय वोइसने तन-बदन म आज ऊँघासी अउ उबासी के राज हावय। अइसे तो मोर मनहूस थोथना, रेगड़ा-मरहा-बीमरहा तन अउ बैलगाड़ी जस धीरलगहा काम-बूता के सेति जनता मोला ‘मुर्दा मानुस’ के पागा पहिरा दे हवय। आज मन तको मर गे हवय, कारण बिहनिया-बिहनिया गृहलक्ष्मी थैली म धावा बोल दिस। गृहलक्ष्मी तो अइसे होथे कि कपड़ा धोते-धोवत थैली ल तको फटाफट बहार-बटोर के सफाचट कर देथे। गृहलक्ष्मी मनके इही स्वभाव ल देखके स्वच्छता अभियान जनम ले हवय। देश दुनिया के विकास म देवियन के साथ।  सबो के साथ, सबो के विकास- इति सिद्धम।

ऊँघावत तन-मन म अचानक चहा-पानी के चुलुक सुलग आइस। मैं सुरता के हत्थे मत्था के खुदाई करे लगेवँ। अभीन अइसन कोन से फाइल हे, जेकर  झारे-रपोटे, सुँघियाए-चाँटे ले तरसत थैली ऊपर कृपा बरसाए जा सकय अउ चहा-पानी के सुलगत-धधकत आगी ल बुझाए जा सकय। तभेच दुवार के फइरका खड़खड़ाइस अउ ‘अउ निर्मल’ के दनदनावत पोंगा आवाज अन्दर धमक आइस। आवाज के धमक ले मोर आँखी म चमक झलक आइस। मैं चहा-पानी के चाह ल भीतर तक चुहकत-चुचरत चहक उठेवँ। 

थोथना ल उठाएवँ, देखेवँ -आगू म कर्मचारी संघ के भूँईफोर अध्यक्ष अपन तुच्छ विराट स्वरूप म अवतरित हे। मैं बोकबाय, मुँहफराय, अकबकाय देखते रहिगेवँ। दसों-बीसां फोन के तको उत्तर नइ देके अपन व्यस्तता, महानता अउ गुणवत्ता के परिचय देवइया महान नीयतखोर, जलनखोर अउ हरामखोर ढोंगी व्यक्तित्व के धनी आज अचानक निर्धन-कुंदरा म। मैं बइठे बर कहितेच रेहेवँ, वो थकहा, जाँगरचोट्टा अउ कोढ़िया कुर्सी खींचके पसरत अपन बड़प्पन, ढीठपन अउ जिद्दी आदरणीय होए के परिचय दे दिस।

कुर्सी म धँसत-उन्ढत-घोन्डत कहिस - ‘अऊ का हाल-चाल हे गा ?’

‘चाल अपन जा नइ सकय अउ हाल बताए नइ जा सकय ?’

‘काबर, अइसन का होगे ?’

‘इही हाल मौका-बेमौका बहाल होके बेहाल कर देथे, भइया ...।’

‘बहाल होना तो हरेक कर्मचारी के जन्मसिद्ध अधिकार ये महोदय, येकर ले हमन ल विधाता हँ तको नइ रोक सकय, ये भ्रष्ट, जुटहा, लालची अउ चप्पलसेवक चाटुकार अफसर अउ खद्दरधारी फोकला बयानबीर बेन्दर मन काय कर सकही, हूँ ....फेर तैं, आदमी बड़ दिलचस्प हस यार’ कहत वो अपन बत्तीसी उघारिस।

ओकर जुवाब म हमु अपन बत्तीसी उघार के साबूत सबूत दे देन कि अच्छा बच्चा बरोबर बिहनिया-बिहनिया दाँत-मुँह म झाड़ू-पोछा करथन। दाँत तो जिद्दी बाल (बालक अउ केस दूनों) मन बरोबर अपन सफेदी म कायम हवय। हमी हँ सफेद बाल म मेहंदी अउ दाँत म ‘जुँबा केसरी’ के सुग्घर सुनहरा रंग चढ़ाके ऊँचे लोग ऊँची पसंद के विज्ञापन करे म जुटाही मार लेथन। 

तभे, मोर खलपट्टा दिमाग म ये बात आइस कि अभीन तो दूरिहा-दूरिहा तक संगठन चुनाव के मानसून नजर नइ आवत हे, न कोनो चक्रवाती तूफान तियार हे, जइसे कि चोर-चोर मौसेरा भाई बरोबर कोनो भ्रस्ट कर्मचारी भाई के रिस्वत लेवत रंगे हाथों पकड़े जाना, कोनो संगी के नियमितता ल अनियमितता बताके सस्पेंड करना आदि-इत्यादि-अनादि। फेर ये बरसाती मेचका-सम अतेक उछलम, कूदनम अउ टर्रम-टर्र कोन बात म ?

खैर, बात कुछु रहय, फेर बात हे बज्जुर। मोर मन म सैर करत डोकरी घटना रेंगते-रेंगत अचानक पल्ला (सरपट) दौड़े लगीस। 

पीछू दफे, मैं उल्टी-दस्त ले पस्त होए के बहाना बनाके चुस्त-दुरूस्त घर म अस्त-व्यस्त-मस्त परे रहेवँ। मोर अनुपस्थिति म परिस्थिति अइसे भारी परिस कि सबो वस्तुस्थिति दस्त कर डारिस अउ मोर विरोध म उल्टी करत सोकॉज नोटिस जारी हो गे। 

वोकर निदान खातिर कई पइत फोन लगाएवँ। आखिर म मोला ये महानुभव होइस कि ये महानुभाव बड़ व्यस्त मनखे हरे। समस्या छोटे होवय के बड़े, आदमी के सकपकाना-अकबकाना स्वाभाविक हे। मैं तुरत-फुरत ले-देके मामला सुलटा लेवँ। 

बिहान भर वो मोर ले मिले बर खुदे आ धमकिस अउ आते ही धमकावत बंदा चंदा माँगे लगीस। 

‘मैं कहेवँ का के चंदा ?’

मंद-मंद मुस्कावत बंदा अब चंदा के धंधा होवत लंद-फंद म आ गे। अपन निर्लज्जता अउ हरामखोरी ल हमाम साबुन म धोवत कहे लगिस - ‘भाई मेरे ! तोर वाले वो मामला ल तो सुलटाए बर परही न।’

मैं कहेवँ - ‘मामला ल तो मैं सुलटा लेवँ,’ त वो झेंप गे, सोचिस -‘स्साले मोरो ले जादा पावरफुल हे’। गुसिया-फुसियागे। पद के रौब झाड़त कहिस -‘यार ! सबे मामला ल खुदे रफा-दफा कर डारहू, त संगठन का करही ? बाद म अनते-तनते हो जाथे, ताहेन हमन ल बदनाम करथौं। संगठनवाले सहयोग नइ करय। खाली-पीली फोकट म चंदा बस माँगथे, आदि-अनादि -इत्यादि।’

मैं कुछु बोल नइ पाएवँ, वो बकते रिहिस -‘हमू मन ल तो कुछ पता चलना चाही। का चलत हे, का अटकत हे, कोन सटकत हे। कम से कम तुम्हार समस्या के बहाना साहब मन ले हमू मन ल मिले-मुलाए के मौका मिल जथे। जान-पहिचान बढ़थे।’

थोरिक रूकके फेर बखानिस - ’कुछु तो अनुभव मिलतिस जोन भविष्य के आड़ा-तिरछा बेरा म काम आतिस। सब गँवा दिएव। तुम छोटे कर्मचारी मन संग न, इही रोना हे, सब खदर-बदर करके रख देथव।’ अउ मुँह फुलाके बइठ गे।

मैं कहेवँ -‘चल, जोन बीत गे वो बात गय। कहव का लेहू आप ?’

 वो पासा ल अपन कोति पलटे देख कहिस -‘आपके सोकॉज नोटिस ले मैं ये नोटिस करेवँ कि भविष्य के सुरक्षा बर संगठन के रोंठ अउ पोठ होना आवश्यक हे। एकर खातिर आप लोगन के सहयोग अपेक्षित हे।’

‘मैं का कर सकथौं, बतावव ?’- मैं अपन सरीफी झाड़ेवँ।

‘आज के जमाना म अइसन कोन जिनिस हे, जेमा सबले जादा शक्ति निहित हे।’

‘संगठन में’ - मैं सट-जुवाबी के फोरन देवत अपन सठ दिमाग के हुसियारी बघारेवँ।

वो अव्वल दर्जा के फाइन-फिनिस दर्जी निकलिस। पहिलीच ले धरहा कैंची धरे बइठे रिहिस। मोर गोठ ल चर्र-ले चीरत-काटत कहिस -‘इहीच मेरन मार खा जाथन हमन। संगठन तभे मजबूत अउ शक्तिशाली होथे, जब आँट के गाँठ म भरपूर साँठ (माल) होवय।’

अतका कहि वोहँ टेबुल म थोरिक झुकिस अउ मोर आँखी म आँखी डार मोला मोहावत कहिस -’ साँठदार आँट के संग-संग साँठ-गाँठ भी बेहद जरूरी है, समझे का ?’

मैं अपन आड़े मुँह ल फारके अड़ाए खड़े-खड़े ओकर थोथना निहारे लगेवँ। वो बकते बखानत रिहिस -‘संगठन के मजबूती अउ उत्तम व्यवस्था बर कुछु व्यवस्था हो जाए बस। ओकर ले उपराहा आप जऊन लेना-देना चाहत हौ, वो आपके मर्जी। हमार इहाँ दान के बछिया के दाँत नइ गिने जाय।’

‘भैया ! अभीन तो मोर इहाँ सुक्खा-सकराएत हे। चारो मुड़ा अकाल परे हे, बाद म ..... ’ कहत मैं अपन दीनता ल उघार के देखाए लगेवँ, त वो झट उठके खड़े होगे अउ अपन अनुभव के लट्ठ पटकत रट-फट जऊन मन म आइस बके लगिस  -‘देखो जी, ये मगरमच्छ के आँसू मोला झन देखा, मोला सब पता हे, आफिस के कते-कते कोन्टा मं कहाँ-कहाँ कतका धन गड़े रहिथे।’

मैं आफिस के ओन्टा-कोन्टा, अगल-बगल ल झाँके-ताके-तलाशे लगेवँ अउ मने मन बके-बखाने लगेवँ- ‘स्साले ! बड़ कुकुर किसम के घ्राणशकित लेके धरती म अवतरे हे। अतेक जल्दी फाइल मन ल तको सूँघ डरिस।’ वो आगू बोलिस -‘मोला कुछ नइ सुनना-देखना। अभीन चंदा चाही, त चाही बस।’

जब मैं ‘अभीन’ के नाम म मुड़ पटक देवँ त वो नाराज होके पैर पटकत रेंग दिस।

वोकर ये रौद्र रूप देखके मैं सोच म पर गेवँ -‘अच्छा ! त, बंदा चंदे-च के नाम म चुनावी लंद-फंद म परे रहिथे। ये तो साफ-साफ, सोज्झ-सोज्झ, फरी-फरा फुलत-फरत फुरमानुक धंधा हरे, बाप रे !’

तब के बिछड़े हँ आज वो फेर इहाँ आके मिले। मैं सोचते रहि गेवँ - अब मोर खैर नहीं। बंदा, चंदा लेके ही लहुटही। तभे वो अपन औकात ऊपर सवार होगे अउ दाँत निपोरत कहिस -‘चलव, हड़ताल करथन।’

मैं कहेवँ -‘का बात के हड़ताल ?’

‘पहुँचे हुए बेवकूफ हस तैं। बात कुछ रहय चाहे झन रहय। सामने चुनाव अवइया हे। सरकार ल कुर्सी म बइठे रहिना हे, त ओला हमर बात मानेच बर परही। लहुटे के नाम बर उन अइसन लेटके समय व्यतीत नइ करे सकय। चारपाई ऊपर चौपाया मन बरोबर लेटे-उन्डे-घोन्डे रहे के दिन अब फिर गे।‘

मैं वोला ओकर दूरदर्शिता के दाद देवइय-च रेहेवँ कि वो अपन मन के उभरत माता (चेचक) के दाग देखाए लगिस, बोलिस -

’सत्ता पक्ष के सफलता, वाहवाही अउ दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की ल देखके विपक्ष ल साँप सूँघ गे हवय। सत्ता म आते ही ये मन कइसे अपन वेतन, मानदेय, भत्ता सब एके झटका म बढ़ा लिन, जेकर ले मुँह ताकत धकेले-धकियाए, हुद्दा खाए मुद्दाविहीन विपक्ष ल जरे म नून परे के एक ठो अउ सुनहरा अवसर मिल गे हवय। उन्कर छाती म एके संघरा अटखेलिया करत दोहरा-तीहरा साँप लोटत हावय।’

‘जब ले कुर्सी ले धकियाए गे हवय, उन विक्षिप्त, बीमरहा अउ पंगुरहा हो गे हवय। वोमन कल बेकल होके अपन चंगु-मंगु सहित मोर तीरन आए रिहिन। कहत रिहिन -देखव ! गरीबन के पइसा ले चौपाई म पसरे ये नकटा, जीछुट्टा अउ मीठलबरा हरामखोर चौपाया मन कइसे ऐश करत हावय। इही मन कभू हमन ल पानी पी-पीके बकय अउ आज इही मन हमार ले जादा होगे हे। हम सीधवा का भएन, दुनिया मसगीद्दा होगे। तुमन आफिस म बेवकूफ, गँवार अउ बइहा-भूतहा लोगन के बीच दिन भर खँटथौ। तुँहरो तो कुछु भला होना चाही,  अकेल्ला मुसुर-मुसुर खवई बने नइ होवय। मिल-बाँटके खाए म भलई होथे।’

‘इही बात म विपक्ष साँठगाँठ के आसरा ल गठियाए हमार कोति मुँह बाए खड़े हवय। उन्कर  उत्कट-मरकट इच्छा हे कि क्र्रमविनिमेय अउ योगसाहचर्य नियम के अनुसार हम एक दूसर के संबल बनन। सहयोग बर वोमन तो मरे-च जावत हे। हमरे कोति ले आस्वासन बाकी हे। उन अभीन तक हमरे आसरा म जीयत हावयं।’

‘हमन ल मिलइया लालीपाप अउ आश्वासन-भासन के रासन ले उन्कर पेट पीराए-कीराए लगे हावे। उन अतेक दुखी, हतास अउ उदास हवय कि आत्महत्या करे पर उतारू होगे हवय। अइसन मौका म हम चौका-छक्का नइ लगा पाएन त धिक्कार हे हमर मक्कारी, भ्रष्टाचारी अउ रिश्वतखोरी के योग्यता, साहस अउ भावना ल। दर-दर भटकत उन बेकदरा मन के कदर अभीन नइ करबोन त कभू न कभू हमरो हाल उन्करे मन कस हो सकत हे जब उन कुर्सी म लहुट परही। अभीन ऑफिस म बइठे मिश्रीयुक्त मक्खन लूटत हावन वो बात अलग हे। फेर कभू उन्करो आयोडीन युक्त नमक खाए हवन। एक लोभचाहक, लाभदर्शक अउ सच्चा लोकसेवक ल ये बात कभू नइ  भूलना चाही कि हमर ये पद के मद तभे तक जिंदा हे जब तक उन्कर पाद अउ दाद जिंदा हे, नहीं तो ये करमछड़हा नौकरी तको बंचक छोकरी कस गर के फंदा ले कम नइहे।’

मैं बकासुर-बरोबर बयाए ओकर थोथना ल देखते रहेवँ अउ वो सरलग बकर-बकर करते रिहिस -‘पुरजोर शक्ति-प्रदर्शन निजोर लोकतंत्र ल सजोर करे के अनिवार्य, अकाट्य अउ अपरिहार्य मंत्र-तंत्र-यंत्र हरे। एक ताल ठोंके ले विपक्ष के ताली तो बरसना ही बरसना हे। सत्ता के गारी-बखाना अउ संगठन के बात छोड़, कम से कम मोर पहिचान तो ऊपर तक बनबे करही। चलव ! इही बहाना कुछ माँग रखके हड़ताल कर देथन। लोहा गरम हे। भागत भूत के लंगोटी सही। कुछ नहीं ले अच्छा ‘कुछ’ तो मिलबे करही।’


संगठन म शक्ति निहित होथे। शक्ति म हित तको समाहित होथे। 

सो निज हित अउ निहित शक्ति ल सुँघियावत -भाँपत महूँ ओकर  हाँ म हाँ मिला देवँ। 


धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

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