*मंगल बजार* (लघुकथा )
संझौती के बेरा रहय, मंगल बजार सुग्घर लग के तियार रहिस। चारों कोती साग-भाजी बेचे के स्वर गूँजत रहिस। इही बजार के एक तिर मा एक झिन कोचनीन सेमी धरे बइठे रहिस। उम्मर लगभग 60 बछर होगे रहिस होही। देशी सेमी लव....देशी सेमी लव...। एक झिन माई लोगन तिर म जा के पूछिस का भाव ये दाई ? कोचनीन - पच्चीस रुपिया पाव ताय लेजा ना, मोर बारी के सेमी आय वो.. बजार के बिसाय नोहय आजेच टोर के लाय हँव। माई लोगन 1 पाव तउलाइस अउ दू सौ के नोट ल दिस। दू सौ के नोट ल देखिस त कोचनीन थोरिक गुसियागे.. तँय चिल्हर देबे त लेग नइ ते राहन दे बहिनी...
माई लोगन कहिथे - लेना तोर करा चिल्हर नइ हे त का होइस लहुटती म ले लेबे। लहुटती के बात सुन के कोचनीन दाई बिफरगे... मँय नइ करँव बिसवास, चिल्हर हवय त लेग नइ ता राहन दे।
माई लोगन - तोर पचीस रुपिया ला खा के नइ भाग जाँव ... अउ खा लेहूँ त बड़े आदमी नइ बन जाँव ।
कोचनीन - अभीच्चे आय रहिन दू झन भडूवा मन बोहनी के बेरा 1-1 पाव सेमी लिस अउ मोला पाँच सौ के नोट देखात रहिन। वापसी म ले लेबे कहिके गे हवय, एक घण्टा ले ऊपर होगे हे नइ आय हे.. अउ अब काय आही...? वो तो बजार करके निकल गे होही ।
कोचनीन के गोठ ल सुन के बाकी खड़े मनखे मन आवाक रहिगे ...।
अजय अमृतांशु
भाटापारा
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