नान्हें कहिनी
पूस के जाड़
सुकारो अऊ बुधिया दुनों झन आज झुलझुलहा बेरा ले जंगल कोती लकड़ी काटे ल चल दिन। पूस के कड़कड़ाती जाड़ म कांपत-कांपत दुनो झन लकड़ी काटे फेर उखर दांत कटकटावत रहाय।
सुकारो ह बुधिया ल कहिस-"दीदी ओ,अड़बड़ जाड़ लागत हे।कईसे करन?काली ले थोरकुन बेरा म आबो। मेंहा दु बछर होगे ।सोच थंव एक ठीन सूटर अऊ कम्बल लूहुँ कहिके फेर पईसा के जुगाड़ नी होवय। जंगल हमर दाई-ददा आय।हाथ- गोंड भर लकड़ी धरे सकथन।अतके के हमन ल बन बिभाग ह छूट देहे हे। इही लकड़ी ल बेच के हमन अपन परवार ल पोसत हन। दिनभर म सौ -पचास कमा लेथन फेर अतेक मंहगाई म का होही?
बुधिया कहिस -"सही कहत हस बहिनी, अतेक पूस के जाड़ म हमन के मरना हे। लकड़ी जला के रतिहा बिताथन फेर कतेक लकड़ी जलाबोन ?लकड़ी बेचे ल लागथे। महुँ कमरा अऊ कम्बल लेहे बर पईसा सकेल थंव फेर जम्मो कुछु काहिं म खर्चा हो जथे ।का करबे चिरहा कथरी मन ल ओढ़ के रहिथन। पूस के जाड़ म हाड़ -हाड़ मन जुड़ा जाथे। एसो तो जरूर एक ठी कम्बल लूहुँ ।मोर भाई मोला चांदी के साटी देहे ।उहि ल सेठ तीर गिरवी धरहूँ।"
बुधिया के गोठ ल सुनके सुकारो कहिस -"मोर तीर तो चांदी के कोनो गहना नी ये।मेंहा का करहुं बहिनी?"
अइसन कहत ओखर आँखिन डाहर ले आंसू चुचवाये लागिस।
डॉ.शैल चन्द्रा
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