लघुकथा
मन के अँधियारी
आज बिसाहिन के आँखी मा आँसू हे। ओ हर चाहत तो हे बमफार के रोये, फेर रो नइ पावत हे। कभू-कभू दुख हर भीतरे-भीतर म गजब दंदोरथे। अइसने बिसाहिन ल ओकर दुख हर दंदोरत हे।
कांटा के गड़े ले आँखी के आँसू निथर जथे फेर बिसाहिन के आँखी ले आँसू नइ निथरत हे।
कहे गे हे दुख ला बाँटे मा दुख कम होथे फेर कभू-कभू दुख हर दूसर कर बताये मा अउ बाढ़े जाथे।
जब सुलोचनी हर बिसाहिन के घर आगी माँगे बर आइस तब ओकर घर के अँधियारी ला देख के अकबकागे। यहा सात बजे एकर घर मा दीया-बाती नइ होय हे?
बिसाहिन के घर मा अँधियार देख सुलोचनी हर मनेमन सोचिस लागथे ये हर घर के अँधियारी नो हे मन अँधियारी हरे। ओहर कहिस, ''कस बहिनी यहा सात बज गे घर मा दीया-बाती नइ होय हे, का बात हे।"
सुलोचनी के मया के भाखा ला सुन के बिसाहिन के अंतस हर भभकगे अउ धरधरा के आँखी के पानी हर नदिया कस बोहाये लागिस।
सुलोचनी हर ओला पोटार के कहिस-"का बात हे बहिनी?"
बिसाहिन के मुँहू ले लटपट एके भाखा निकल पायाइस।
एकर ले बने तो मैं निपूत होतेंव बहिनी। चौथा पहर मा बेटा-बहु मन मोला घर मा छोड़ के शहर चल दिन।"
अउ बमफार के रोये लागिस।
-बलदाऊ राम साहू
दुर्ग छत्तीसगढ़
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