Saturday 8 January 2022

मोबाइल परेम

                      मोबाइल परेम 


मनोज जब नहाये बर जाथे तभो मोबाइल ल धर के जाथे। सुते बेरा मा मोबाइल ओकर हाथ मा रहिथे अउ जब सुत जाथे तब सिरहाना मा माढ़ जाथे। एक तो वो हर दिन भर आफिस मा रहिथे अउ घर आथे तब मोबाइल ले चिपके रहिथे। न लोग लइका ले गोठ-बात न घर-गिरहस्ती ले लेना-देना।

प्रेमा के तो जीव कउवा गे हे । वो करे त का करे। जब ओहर मनोज ल कुछू कहिथे तब वो बगिया जाथे। प्रेमा मने-मन सोचथे, ये रोगहा मोबाइल हर मोबाइल नइ हो के सउत हो गे हे। प्रेमा ल समझ नइ आय कि करे त का करे जाय? 


एक दिन वो ह सोचिस, दिन बर काबर महूँ हर मोबाइल ले दोस्ती नइ कर लेंव। अउ वो हर अपन लइका मन ल समझा देथे, जब पापा आही तब तुमन मोर कर आ के घेरी-बेरी कहना, "मम्मी अड़बड़ भूख लागत हे, कुछू खाय बर दे न।" तब मैं हर कहहूँ, "जाव न रे, कुछू काँही खालेव।" अउ तुमन अपन खोली मा जा के मुँहू फुला के बइठ जाना। तोर पापा के मोबाइल परेम के आज परीक्षा हे। लइका मन बात ल समझ गे।

जब छै बजे मनोज घर आइस तब प्रेमा हर मोबाइल मा रमियाय रहिस। आने दिन कस न मनोज ल चाय-पानी दिस न हुँकिस न भूँकिस। मनोज ल बात समझ नइ आइस, येला आज का हो गे हे?  लइका मन घेरी-बेरी आय अउ काहय, "मम्मी अड़बड़ भूख लागत हे कुछू खाय बर दे न।" तब प्रेमा हर काहय, "जाव न रे कुछू काँही खा लेव।" अउ अपन मोबाइल म रमिया जाय। 

अइसे-तइसे आठ बज गे। अब मनोज ले रहि नइ गिस, अब ओकर एड़ी के रीस हर तरवा मा चढ़ गे। ओहर तनिया के कहिस, "ये का तमाशा आय? लइका मन घेरी-बेरी खाय बर माँगत हे अउ तैं हर मोबाइल मा लगे हस? आठ बजत हे अभी तोर किचन शुरू नइ होय हे। का दस बजे खाय बर देबे?"

प्रेमा हर धीरगहा कहिस, आज तुम ला तमाशा लागत हे, जब तुमन रोज इही बूता करथो, तब हमन ला तमाशा नइ लागे। ये घर ये, इहाँ हमू मन रहिथन, हमरो जीव होही, हमरो कऊनो जरूरत होही? अउ मोबाइल ल रख के किचन डहर चल दिस। मनोज हर बात ल समझ गे। वो हर प्रेमा तिर जा के कहिस,  "मोला का करना हे?" 

"कुछू नहीं, जा लइका मन ले गोठ-बात कर अउ उनला पढ़ा।"

जब मनोज लइका मन तिर गिस तब लइका मन खुलखुल-खुलखुल हाँस दिन। 


-बलदाऊ राम साहू  

दुर्ग, छत्तीसगढ़

No comments:

Post a Comment