Tuesday, 28 October 2025

छत्तीसगढ़ी कहानी -श्रद्धा

 छत्तीसगढ़ी कहानी -श्रद्धा

बिहिनिया -बिहिनिया जुन्ना पेपर ल लहुटा - पहुटा के चाँटत - बाँचत विशाल कुरसी म बइठे हे। आजे काल शहर ले आए हे गाँव म। जादा खेती खार तो नइ हे फेर अतेक मरहा तको नइहे। ओकर ददा धूरसिंग शहर में नौकरी करत रिहिस हे। नौकरी के भरोसा कुछु जमीन-जायदाद जोर डारे रिहिस हे। विशालो हँ पढ़ई करत -करत स्कूल के साहेब होगे हे। खेत-खार के देखभाल खातिर गाँव आना जाना लगे रहिथे। 

“जय भोलेनाथ, सदा रहै तोर साथ।”

विशाल दुवारी कोति ल मुड़ के देखथे। चुकचुक ले गोरिया, ऊँचपुर, छरहरा बदन के मनखे दुवारी म ठाढ़े हे। चक्क सुफेद धोती, झकझक ले झोलझोलहा कुरता, देखे म मलमल अस कोवँर। टोटा म छाती के खाल्हे के आवत ले ओरमे रूद्राक्ष अउ कंठी माला। माथा म फबन अकन छोटकुन कुँहकु के टीका। बगल म कपड़ा के लटकनहा बेग ओरमे हे। विशाल देखते साठ समझगे कोनो बाहरी पंडा हरे। 

कहिस - ‘बइठौ महाराज ! कहाँ ले आए हव ?’ 

‘अइसे तो हमन रूद्रपुर ले आए हन विशाल भाई !’ - महराज अपन खाँध के खूँटी म टँंगाए - ओरमे कपड़ा के बेग ल सोझियावत कइथे। 

“ विशाल भाई !!” 

अपन नाम सुनके बिसाल एक घँव चकरित होगे- ‘अरे ! मोर नाम महराज ल कइसे.............।’

विशाल सोचते रहिगे, महराज आगू कहिथे - ‘ठहिरे थानखम्हरिया म हवन, तीर - तखार ल किराया के साइकिल म घूम लेथन। 

“हूँ ..ऽऽ...ऽऽ.... कब के आए हौ  ?” 

‘बस, चारे-पाँच दिन होवत हे’ - महराज चट्ट ले उत्तर दीस। अउ आगू कहिथे- ‘पूस के महिना म रौनिया के आनन्दे अलग होथे न।’

‘तभो ले मन तो नइ माड़य महराज ! संसार के सरी जिनिस जुड़ा-कनकना जथे फेर ये जाड़ के जी नइ जुड़ावय ! ‘पूस, फूसे फूस ताय’ - काहत विशाल अकर-जकर ताके लगिस - तीर तखार म कोनो हावय ते नहीं जेन सेर चाँऊर दे देवय। 

मन के बात गड़रिया जानय, बारा घाट के पानी पीये महराज फट्ट-ले विशाल के हावभाव ल समझगे। 

’बात ये हे विशाल भाई’ बीच्चे म महराज ल टोकत चट्ट-ले कहिथे - ‘हमन हरेक साल इही समे म भगवान रूद्रदेव के मंदिर ले जम्मो दिशा म निकलथन अउ देशभर म घूम घूमके भगवान रूद्रदेव के अभिषेक खातिर आदेश लेथन। विशाल कभू हूँ ... कभू हाँ काहय त कभू मूड़ी ल हला देवय। महराज के गोठ घोड़ा म सवार होइस ते रूके के नाम नई लेवय। विशाल हँ महराज के मुँह ल देखतेच रहिगे। महराज हँ बेग के चैन ल ‘चर्र’ के खोल दिस। एक ठन कापी, पींयर-पींयर किताब अउ पेन निकाल डरिस। गोठबात के हाथ-गोड़ लमाए के संगे-संग महराज हँ पोथी -पतरा ल घला लमा डारिस। 

कहिथे - ‘हमर संस्थान म पूजा - पाठ, हवन - अभिषेक पूरा विधि -विधान से होथे फेर श्रध्दालु भाई मन के सुविधा अउ सहुलियत खातिर समान्य अउ विशेष दूनो किसम के अभिषेक करथन।’ 

सुनके विशाल मुसकुराए बिगर नइ रहे सकिस। महराज थोरिक कनुवागे। फेर जेन कनुवागे तेन घुनागे। बामहन होवय के बनिया जेन करही संकोच ओकर धंधा खाही लोच। बामहन देवता थोरके चुप रहिस ताहेन फेर चालू। एक्सप्रेस फेल होगे। तैं डार - डार त हम पात- पात। महराज रसीद बुक ल खोल डरिस -‘ए देखव ! बाजू वाले गाँव उसलापुर के दाऊ हँ महारूद्राभिषेक के आर्डर दे हावय।’

 ’वो सब तो ठीक हे महराज ! फेर हमन अभीन अभिषेक-उभिषेक नइ करावत हन।’ 

महराज सोचे लागिस - ‘पासा हँ उल्टा परगे का ?’

विशाल रूके -रूके कस आगू कहिस - ’अऊ जिहाँ तक मोर खियाल हे दीन-हीन के सेवा ले जबर दीगर -धरम, दान -पुन अउ कोनो नइ होवय।’ 

महराज एक गोड़ के माड़ी ऊपर दूसर गोड़ के पाँव ल मढ़ाये बइठे हवय। पँवतरी ल सहिलावत कहिथे - ’विशाल भाई ! वो सब तो आत्मा के शांति खातिर होथे, संसार के दुख - पीरा ले छुटकारा काकर ले मिलथे ? घर में सुख-समृध्दि धन-मान कहाँ ले आथे ? एहू ल तो सोचव।’ 

विशाल सोच के धार म बोहाय लगिस। कोनो ल बुरा लगय अइसन कभू केहे हे, न करे हे। दुवार म आय बामहन देवता ल खाली हाथ कइसे लहुटाववँ ? माटी के महक, पानी के सुभाव अउ हवा के रंग ल कोनो अलग नइ कर सके हे, न कर सकय। नस -नस म दया -धरम आदर अउ सम्मान, मीठ बोली अउ संस्कार छत्तीसगढ़ के पहिचान हरे, बैरी ल घला ऊँच पीढ़वा देहे के इहेंच रिवाज हे। जेने अइस तेकरे कटोरा ल भरिस, भले अपन लांँघन भूखे रही जावय। फोकट में धान के कटोरा नइ कहाय हे छत्तीसगढ़ हँ। अइसे -तइसे महराज अपन रसीद बुक ल खोल डारिस । ऊप्पर म क्रमांक डारके श्रीमान लगाके विशाल के नाम लिखे के पीछू पूछथे - 

‘बाबू जी के का नाम हे ?’ 

‘श्री बेद राम।’ 

जाति म धोबी लिखागे, महराज हँ तो गाँव म घुसरे के पहिली सब्बो ल पता कर डारे रहय। गोत्र के संगे -संग परिवार के जम्मो सदस्य मन के नाम ल सरलग पूछ -पूछ के लिखे लागिस। 

महराज - ’कतेक वाला करना हे भाई साहब ?’

विशाल - ‘अब अतेक जोजियावत हव त एक सौ इनक्यावन रूपिया वाला करवा लेथवँ महराज, अइसे तो.............।’ 

अतका म महराज के मन नइ माड़िस, कहिस - अतेक दुरिहा ले आए हन। सिरिफ तुँहर श्रद्धा अउ ऊपरवाले के कृपा ....अउ तुमन .....! 

विशाल थोरिक सकुचागे। गाय कतको मरखण्डी रहय दूहे बर राउते जानथे - ‘ले भई तीन सौ इनक्यावन लिख ले फेर ऽऽ...ऽऽ...।’

 ’अँ.....हँ....हाँ मैं कहाँ अभीन पइसा मागथौं।’ विशाल के गोठ ल पूरा नइ होवन दिस। महराज हँ ओला फुग्गा कस फूलो के ‘फुलफुल-ले’ हरू कर दिस - ’ अभी तो नाम लिख के जाथौं। तुँहर परिवार के नाम से उहाँ रूद्राभिषेक होही। जब हमार आगमन दुबारा होही, हम तुँहर परिवार बर प्रसाद स्वरूप कुछु लाबोन तब आप पइसा देहू, अभी नहीं।’ 

बिदा करे के पहिली आधा डर आधा बल करत विशाल ह पूछथे - ’चाहा चलही महराज ?’

अंधरा खोजय दू आँखी।

महराज खुश होगे - ’जिहाँ प्रेम हे उहाँ परमेश्वर हे विशाल भाई, हिरदे मिलगे तिहाँ का के भेदभाव ?’ 

चाहा पीके महराज चलते बनिस।

दू-चार बीते के पीछु विशाल शहर के रद्दा धर लिस। नेकी कर दरिया में डार। विशाल धीरे -धीरे सब बिसर गे। चार महिना बीतगे। दू दिन के छुट्टी परे म फेर ओकर गाँव आना होइस। 

एक दिन विशाल ठऊँका खाये बर बइठत रहय। आचमन करके भोग भर लगाये रिहिस हे, के ‘ठुक-ले’ महराज पहुँच गे। विशाल जेवन छोड़के उठत रिहिस हे -“नहीं, नहीं विशाल भाई ! तुमन शांति से भोजन करव, अइसन करना ह अन्न के अपमान होथे। फिकर झन करव, मैं बइठके अगोर लेथवँ। मोर बूतच का हे, ओसरी-पारी ये दुवारी ले वो दुवारी।” 

विशाल हँ महराज के बात ल नइ काट सकिस। महराज हँ विशाल के खावत ले ओकर सुवारी ममता ले कटोरी मँगाके दू - तीन किसम के माला, नान -नान पुड़िया म चंदन, बंदन, गुग्गुल अउ प्रसाद निकालके रख डरिस। 

विशाल जेवन करे के पीछु आइस अउ पाँव परके के एक तीर कुरसी म बइठ गे। महराज एक -एक करके विशाल ल देखाथे - ‘ये तुलसी माला, महाप्रसाद, भोज पत्र काहत लइका मन बर छोटे -छोटे माला, सुहागिन मन बर कुँहकु, बंदन, चंदन के पुड़िया।’ काहत कटोरी म रखाए समान ल देखा-देखाके विशाल ल समझाथे - ‘ये स्फटिक ए, विशेष रूप ले तुँहार बर। येहँ रूद्राभिषेक के संगे -संग पवित्र अउ स्थापित होगे हे। तुम्ह ल केवल शनिच्चर के दिन नहा -धोए के पीछु उदबत्ती जलाके, धूप देखाके धारण करना हे बस।’

महराज जब दुबारा अइगे, पूजा -प्रसाद ल सउँप दिस तब अउ का नेंग रहिगे, भइगे बिदागरी बाचगे। बिसाल बिना कुछु कहे कुरिया म गइस अउ लाके चार सौ रूपिया महराज के हाथ म समरपित करके पाँव ल छू लिस -

 “कल्याणम् अस्तु।” 

शनिच्चर के दिन बड़े फजर विशाल नहा - धोके उदबत्ती जलाइस अउ महराज के दिए समान के कटोरी ल धुँगिया देखाइस। स्फटिक के माला ल निकालके अपन घेंच म अरो लिस। एक अजीब आत्मिक आनंद विशाल के हिरदे म खलबलाय लगिस। विशाल ल सरग के सुख के अनुभव होय लगिस।

रतिहा विशाल सुते के पहिली माला टूटय झन सोंचके निकालिस अउ खटिया के खुरा म ओरमाए लगिस। विशाल कहूँ सुने रहय कि स्फटिक के माला हँ आपस म रगड़ाथे त ओमा ले चिनगारी फूटथे। 

सोचिस - ‘रगड़के देखवँ का ?’ 

ओकर आत्मा धिक्कारथे -‘‘च्च .....च्च..! अतेक बड़ शंका’’ उहू हँ धरम के काम म ? महराज के दिए परसादी के परीक्षा, घोर पाप होही अउ कुछू नहीं। 

कलथी मार के विशाल सुते के बहाना खोजे लगिस। जी अकुलागे । नींद बरेडी म टँगागे राहय, नइ अमराइस। 

एक सोच के झकोरा बिसाल के मइन्ता ल झकझोरे लागिस। गलत तो नइ करत हौं, चिनगारी कइसना होथे तेला तो देख सकत हौं। उठके बइठ गे । माला ल दूनों हथेरी के बीच म रखिस अउ रगड़े लगिस । बिरबिट-ले करिया अंधियारी रात, आँखी ल बटबट-ले नटेरे विशाल टकटकी लगाए देखत - एक दू....तीन....रगड़त हे -खर्र, खर्र, खर्र। 

विशाल के विशाल हिरदे ले श्रध्दा हँ ‘सर्र के’ महराज बर गारी बनके निकल गे फेर स्फटिक के माला ले चिनगारी नइ फेंकइस।

धर्मेन्द्र निर्मल

कुरूद भिलाई जिला दुर्ग 

9406096346

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