Tuesday, 28 October 2025

भाग्यवती दीदी (संस्मरण )

 भाग्यवती दीदी (संस्मरण )

भाग्यवती दीदी जिसे हम लोग भागो दीदी कहते थे। ममता की मूर्ती थी। बैजनाथ पारा में घर था, अभी भी है। वर्धा से नागपुर आये थे। धनीराम जी की नौकरी स्वतंत्रता आंदोलन के कारण छूट गई थी। नागपूर से आने के बाद रायपुर में बुनियादी संचालक बने थे। तुलेन्द्र को उस समय सेंटपाल स्कूल में भर्ती कराये थे। धनीराम जी बाद में सत्ती बाजार में एक दुकान खोल लिये। श्रीराम स्टोर। यहाँ पर फाऊंटेन पेन बनाया जाता था। नीब जीब मिलता था। पुरानी पुस्तके चौथाई कीमत में खरीदी जाती थी और उसे आधी कीमत में बेचते थे। दुकान के कारण घर का खर्च निकल जाता था।


भागो दीदी दयालु थी। जब भिखारी आते थे तो  उन्हे अपने घर के गलियारे में बैठाकर खाना खिलाती थी। वहाँ पर बड़े बड़े पाटे रखे हुये थे। यदि कोई तम्बूरा या भजन सुनाने वाला आता था तो उसे बैठाकर खाना खिलाती उसके बाद भजन सुनती।"नारायण नारायण भज मन नारायण"


ईश्वर भक्त के साथ साथ गरीबों की मसीहा थी। पाँच बेटे हुये और एक बेटी। बेटी लक्ष्मी तो लक्ष्मी ही थी। बहुत धूमधाम से उसकी शादी किये थे। बड़ा बेटा नरेंद्र जो बाद में आत्मानंद के नाम से प्रसिद्ध हुये। 

उनका जन्म 06 अक्टूबर 1929 को रायपुर जिले के बरबंदा गाँव में हुआ था। उस समय पिता धनीराम जी स्कूल में शिक्षक थे। धनीराम जी ने वर्धा स्थित प्रशिक्षण केंद्र में अपना नामांकन कराया और अपने परिवार के साथ वहीं चले गये। धनीराम जी अक्सर गांधी जी के पास ही स्थित सेवाग्राम आश्रम में जाया करते थे। तुलेन्द्र अपने पिता के साथ सेवाग्राम आते थे। बालक तुलेन्द्र अत्यंत मधुर स्वर में भजन गाते थे। गांधी जी  उनकी आवाज़ के प्रशंसक थे। गाँधी जी की लाठी पकड़ कर चलते थे। यह फोटो आज भी दिखाई देती है।


धीरे-धीरे समय बीतता गया, 1949 में तुलेन्द्र ने शीर्ष ग्रेड के साथ बीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1951 में, उन्होंने एम.एससी (गणित) में प्रथम रैंक हासिल की और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उच्च अध्ययन के लिए स्थान मिल गया। वे भारत में ही रहे और सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। अपनी कड़ी तैयारी से उन्होंने जल्द ही सिविल सेवा परीक्षा पास कर ली। उनकी रुचि समाज सेवा के प्रति थी तो वे पुणे के धंतोली में एक आश्रम में अपना पूरा समय देने लगे और अंत में सन्यास लेकर आत्मानंद बन गये


दूसरा बेटा देवेंद्र निखिलानंद के नाम से सन्यासी बने। तीसरा बेटा नरेंद्र पढ़ाई के बाद कालेज मेऔ प्रोफेसर बन गये। बेटों में इन्ही ने शादी की। उसके बाद चौथे बेटे राजेन्द्र वर्मा त्यागात्मानंद के नाम से सन्यासी बने। पाँचवा बेटा ओमप्रकाश वर्मा

आध्यात्मिक भाषण देते हैं और विवेकानंद कालेज की देखरेख करते है। विवाह नहीं किये हैं।

1960 में चैतन्य जी ने संन्यास ले लिया और बाद में स्वामी आत्मानंद जी कहलाये। वह शाम को भजन गाते और धार्मिक ग्रंथों से दार्शनिक प्रवचन पढ़ते हुए बिताते थे। उनके प्रवचनों में भाग लेने वाले लोगों ने दान देना और आर्थिक योगदान देना शुरू कर दिया ताकि वे अधिक लोगों की सेवा कर सकें। जनवरी 1961 में, राज्य सरकार ने उन्हें आश्रम के निर्माण के लिए 93,098 वर्ग फुट जमीन दी। 13 अप्रैल 1962 को इस आश्रम का उद्घाटन हुआ। उसके बाद आश्रम लगातार आगमन बढ़ता रहा। मुफ्त ईलाज के लिये अस्पताल खुला है। सत्संग हॉल बना है। यहाँ पर हर वर्ष वार्षिक उत्सव मेरें बहुत से लोग प्रवचन के लिये आते हैं। आत्मानंद जी व्याख्यान माला भी आयोजित करथे थे। जहाँ स्कूल के बच्चे आते हैं। मैं भी दो बार गई थी। सर्वधर्म व्याख्यान रखा जाता है। हर धर्म के लोग बहुत ही प्यार हे भाषण देने आते हैं। 


छोटा सा ग्रंथालय भी बनाये थे जो आज विशाल रूप ले लिया है। मैनें भी वहाँ एम एस सी की और मेरै पति ने गणित एम एस सी की पुस्तके दान दी थी। अभी बहुत सी साहित्यिक पुस्तकें दान की हूँ। हर रविवार को गीता पर प्रवचन दिया करते थे। हम लोग बैरनबाजार से ईदगाहभाठा अपने घर में रहने आये 1962 में। तब लकड़ी के घेरे से घिरा था आश्रम। हम लोग यहाँ घूमने आते थे। तीन साल के बाद वहां अखबार भी आने लगा तो काका पढ़ने जाते थे। हम वोग भी जाते थे। काका और धनीराम जी का पहले से परिचय था। माँ और भागो दीदी का बहन का रिश्ता था। हमारे घर के पास मंगलवार और शुक्रवार को सब्जी बाजार लगता था तब भागो दीदी सब्जी लेती और हमारे घर.आधा घंटा बैठती थी। उसके बाद आश्रम जाती थी।  बाद में दीदी की शादी हो गाई वह पी एच डी करने आई तब हम लोग आश्रम जाते थे तब माँ भी भागो दीदी के साथ जाती थी। स्वामी जी से बहुत घरेलु बातें और हँसी मजाक होते रहती थी। मुझसे कभी कभी मजाक करते और गणित पूछ लेते थे। हा हा हा। मैं सबका सही जवाब देती थी वे खुश हो जाते थे।भागो दीदी के सब बच्चे एक के बाद एक आश्रम आते गये लक्ष्मी दीदी की शादी हो गई। बस  बहु तारा और धनीरामजी और भागो दीदी ही रह गये। श्रीराम स्टोर तेजी से चलने लगा था। उहें गाँव से आने वाले भी जानते थे। नई पुरानी पुस्तकों का खदान था।

मैं आश्रम के ग्रंथालय की पुस्तकों से एम एस सी तक की पढ़ाई कर ली। मेरा आश्रम जाना कभी रुका नहीं शादी के बाद भी जाती थी और  स्वामी जी से बातें करके प्रणाम करके आती थी। रामकृष्ण जी का मंदिर बना वहाँ बैठ कर ध्यान लगा लेते थे।


भागो दीदी अपने बच्चों से खुश थी। उनका आध्यात्मिक लगाव और दानशीलता का बीज बच्चों में आया था। आश्रम शाम को जाती.और आत्मानंद जी के साथ उनके कमरे में बहुत देर तक बैठती थी। रात होने पर आती थी। तब तो तीन चार किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करथि थे।सभी बेटे गृहस्थ से दूर रहे। अकेली बहू तारा ने सबको सम्हाल लिया।


एक बार आत्मानंद जी अपने भाईयों और माँ के साथ अमरनाथ यात्रा के लिये गये। ये लोग बीच में रुके थे। मौसम खराब था।भागो दीदी की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी तो वह सभी को बोली तुम लोग जाओ मुझे छोड़ दो। पर आत्मानंद जी बोले मैं रूकता हूँ बाकी सब जाओ। सब चले गये। भागो दीदी ने कहा "सब जा रहे हो देखना मैं तुम लोगों से पहले पहुँच जाऊँगी।" पंचतरणी में रुके थे। श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था जब भागो दीदी आत्मानंद जी के गोद में सिर रखकर लेटी थी। वह बोल रही थी मैं अमरनाथ जी के दर्शन के लिये जाऊंगी। और अचानक साँस रुक गई। आत्मानंद जी ने किसी जाने वाले से खबर भेजा कि माँ शिवधाम चली गई। खबर देने वाला जल्दी ही गया तब तक वे लोग पहुँच रहे थे पर दर्शन नहीं किये थे। सबने याद किया कि माँ ने कहा था मैं तुम लोगों से पहले पहुँच जाऊंगी और सच में आत्मा शिव मे विलिन हो गई। सब लोग वापस आये। लकड़ियों का इंतजाम किया गया और अंतिम संस्कार किया गया।ऐसी थी हमारी भागो दीदी। जिसने ऐसे बेटों को जन्म दिया जो आध्यात्म की जोत जला रहे हैं। ऐसी भाग्यशाली थी भाग्यवती जिसने श्रावण पूर्णिमा के दिन अपने प्राण तियागे, शिव में विलिन हो गई और उसकीअंतिम विदाई सन्यासी बेटों ने किया।

सुधा वर्मा, 27/7/2024

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