(लघुकथा)
हाँसी
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मोला देखते साठ दुकानदार हा मुस्कावत कहिच---
"आव कका आव। आप मन बर ये दरी दर्जन भर ले जादा रिमोट लाके रखे हँव।"
"ठीक करे हच बाबू।हर महिना दू-तीन ठो तो लेगबे करथवँ।कभू टिंग-टांग रेंगत छोटे नाती हा पानी मा बोर देथे त कभू वोकर ले बड़े नाती हा कार्टुन देखे ला नइ मिलय त पटक देथे ,कभू इनकर मारे सिरियल देखे ला नइ मिलय त नतनिन हा अपन रिस ला रिमोटे उपर उतारथे। का करबे तइसे होगे।"--मैं कहेंव।
"ठीक हे कका ।एमा दुख मनाये के बात नइये।इही तो लइका मन के लिल्ला ये। अइसन लइका घरो घर होना चाही। ले बता के ठो देववँ।" थोकुन हाँसत वो कहिच।
" नहीं।आज रिमोट नइ लेगवँ। ये देला बनही त बनवा दे नहीं ते नवा टीवी दे दे।ये ला लइका मन के बाप हा पटके हे।बोरी मा भराये फूटे टीवी ला उलदत कहेंव।"
वो हा खलखला के हाँसत नवा टीवी धरादिच।
चोवा राम वर्मा 'बादल '
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