पल्लवन---थोर खाये बहुते डकारै
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आज अधिकांश मनखे के अचार-विचार म बजारवाद हावी होवत जावत हे।छिपावा-दिखावा बाढ़त हे।कई झन तो भूँख म पेट ह सप-सप करत हे तभो ले माँदी-हिकारी (सार्वजनिक भोज) म, दूसर मन भुखर्रा झन समझयँ सोच के दूये-चार कौंरा खाकें कस -कस के घेरी-बेरी डकार लेके अइसे जताथें के वो तो खाता-पीता आदमी ये।
एही दूसर मन का समझहीं के सोच ---निंदा के डर ह कमजोरी ल--असलियत ल छिपा के दिखावा ल बढ़ावा देथे। अइसने मैं-मैं- मैं कहइया अउ महूँ ककरो ले कम हँव का के अहम पाल के बढ़-चढ़ के दिखावा करइया मन के कमी नइये।
दिखावा ह कभू न कभू दुख के-पश्चाताप के कारण बनथे। दूसर मन ल देख के तको लोगन दिखावा करत हें। कुछ झन तो गरीब हें तको शादी-बिहाव म दिखावा के चक्कर म अइसन अनाप-शनाप खर्चा करत हेंं के खेत-खार बेंचा जावत हे।
दुनिया हाँसही ते हाँसन दे --कोनो ल भी फोकट दिखावा करे बर जाँगर टोर के कमाये धन के दुर्गति नइ करना चाही। कर्जा म बूड़के हमेरी झाड़े ल का मिलही? हँसइया मन , हाथ ल चाँट-चाँट के आन के ल खवइया मन, कर्जा ल नइ छूट देवयँ।
एक न एक दिन दिखावा रूपी सोन के पालिश ह जब उखड़थे अउ हकीकत के राँगा ह उघरथे तब भयंकर दुख होथे--पछतावा होथे-निंदा तो होबे करथे।
चोवा राम वर्मा 'बादल'
हथबंद, छत्तीसगढ़
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