नाटक -
लाँघन उपास
जगा - काकी कका के घर।
बेरा - बिहिनिया बिहिनिया।
(काकी अंगना म बइठे चीला बनावत रहिथे।)
कका - ले जल्दी कर करौंदा ! एक तो अइसने मोला आज देरी होगे हे।
काकी - हहो एदे होगे ! कतेक बेर लागही जी चीला के बनत ले । चल बइठ ताते-तात बना के देवत जाहू ं तुमन गपागप खावत जाहू।। पानी पीढ़ा लिमउ के चटनी ल परोस के काकी चीला बनाए लगथे। ओतके बेरा परोस के एक झिन लइका भोला खेलत खेलत उहेंचे आ जथे।)
भोला - (तोतरावत) ता तलत हत कलौंदा काकी ?
काकी - चीला बनावत हौं बेटा ! आ, तहूँ खाबे ?
भोला - हौ।
काकी - चल आ, बइठ (काकी कका बर परोसे लिमउ के चटनी संग चीला ल भोला ल दे देथे)
(कका लालच म बोकबाय देखते रहि जथे अउ भोला ल खावत देखते रहिथे)
भोला खावत रहिथे ओतके म काकी पूछथे।
काकी - बने लागत हे चीला हं ?
भोला - एकदमे बने लागत हे काकी ! एला खा डारहू त अउ देबे न ?
कका - जादा म पेट पिराथे बेटा। चीला जादा खाए के नोहय।
भोला - त चीला ल देखे बर थोरे बनावत हे। कहसे काकी ?
काकी - हहो बने काहत हस बेटा, अउ देहूं। ले खा। ए ले (काकी ओला अउ चीला दे देथे।)
कका - (गुसियाए असन) या मैं अइसने बोकबाय देखत रहव का ?
काकी - (हाँसत) हौ ! खाए बर तको बनथे अउ देखे बर तको बनथे। है न भोला। ले तुमन देखव अउ मै खावत हौं कहिदे जी।
भोला - नहीं काकी, तैं चीला बनावत रहा, कका तैं देखत रहा, मैं खावत हौं आँय।
भोला के गोठ ल सुनके काकी कका दूनों झिन खलखलाके हाँस भरथे।
कका - आज काँहीच नइ खाए हस का रे ?
भोला - खाए हौं गा, खाए हौं, दाई फरा बनाए रिहिस न तेला खाए हौं।
कका - त हमर बर काबर नइ लाने हस ?
भोला - खा डरेवं कहिथौं, त काला लानहूँ।
काकी - मोर बर नइ बचाए हस भोला ?
भोला - बचाए हौं न, कका जा लिही त तोर बर लानहूँ। नहीं ते उही सबो ल खा दिही।
कका - अच्छा ! काकी बर हावय, कका बर नइहे का ?
भोला - वाह ह ह ...काकी हमला खवाथे त हमू काकी ल नइ खवाबो।
(भोला के गोठ ल सुनके काकी ओकर गाल ल चूम लेथे)
ककी - वाह रे मोर सोना, भोला !
कका - मोर तो अइसेनेहे इंहेंचे बारा बजगे। कब खाहूँ त कब काम म जाहूँ।
तीसरइया चीला के बनत ले भोला उहू ल खा डारे रहिथे अउ उहू चीला ल माँग लेथे।
भोला - दे न काकी एक ठन अउ ।
कका - तोर पेट कतेक खोला गे हावय रे ? तोर दाई तोला खाए बर नइ देवय का ?
(काकी उहू चीला ल लइका ल देवत)
काकी - अइसे नइ काहय जी ! लइका मन भगवान बरोबर होथे। सब माया मोह ऊँच नीच भेदभाव ले अलगं। जइसे भगवान भाव के भूखाय रहिथे ओइसनेहे लइका मन प्रेम के भूखाय रहिथे। जिंहा प्रेम पाथे उहेंंचे जाथे।
कका - ले त तैं अपन भगवान ल भोग लगावत रहा मैं जाथव नइ खावव भइगे।(अइसने काहत कका गुसिया के उठत रहिथे। ओतके बेरा कका के ओकर ददा आ जथे)
ददा - अरे काबर नइ खावस राम्हू ?
काकी - उपास हौ कहिथे बाबू जी !
ददा - उपास अउ म राम्हू हँ !
कका - का ददा तहूंँ हँ मोर बिजती करे बर लगे हस !
ददा - अरे का बिजती वाले बात हे रे ? नइ जानत हौं। (काकी डहर इषारा करत बताए लगथे ) नानपन म आठे कन्हैया के उपास हौं काहय अउ बारी म जाके जम्मो नाने नान बाती खीरा मन टोर टोर के खा डारय। तेन उपास रहे सकही।(सबो झन फेर संघरा हाँस भरथे। भोला मुसुर मुसुर खवई के सुर म रहिथे)
कका - फेर ये तो बता राम्हू आज बुधवार ये का, तैं का के उपास हावस ?
काकी - बुधवार के बुध्दि के देवता गनेश के बाबू जी।
ददा - वा बहुत अच्छा ...भगवान तोला अइसने सदबुध्दि दै बेटा ! खुष रहो । जय हो...
काकी - गनपति बप्पा ......
सबो एक संग - मोर्या
काकी - भोला तैं .....
सबो एक संग - चीला दबा।
(अउ भोला आधा चीला धरे खड़ा हो जथे अउ नाचे लगथे)
भोला - ददड़ ... ददड़ .. ददड़ ... दड़
कका काकी ल गुर्री गुर्री देखत हारे असन मुँह लेके रेंग देथे।
धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346
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