Saturday 17 September 2022

पुरुषोत्तम अनासक्त जनम ...20 फरवरी 1935 प्रयाण ...08 फरवरी 1996

 पुरुषोत्तम अनासक्त 

   जनम ...20 फरवरी 1935 

    प्रयाण  ...08 फरवरी 1996 

            ओ समय के मध्यप्रदेश अउ आज के छत्तीसगढ़ मं नवा कविता ल जन जन के बीच स्थापित करे बर जीव परान होम देवइया साहित्यकार रहिन पुरुषोत्तम अनासक्त ...। अनासक्त जी के कविता मं मनसे के जीवन के रोजमर्रा के दुख सांसत के संगे संग अद्भुत रूप से जीवन दर्शन समाये दिखथे । कभू कभू तो लगथे के मनसे के मन के विवेचना हर कविता के आसन मं जोमिया के बइठे हे , अइसन कविता मन ल पढ़ के साधारण पाठक काव्य शिल्प , अलंकार , लय , तुक ल तो भुलाई जाथे ओइसे भी उंकर कविता  छंदविहीन हे । तभो माने ल तो परही के गांव गंवई के छोटकन बात घलाय ल बड़ महत्व मील हे ।

कविता तो लिखे च हें समय सुजोग मिलिस त गद्य भी लिखे हें तभो उन मूलतः कवि आयं । " सतह से ऊपर आदमी " कहानी संकलन आंचलिकता के कारण ही जादा प्रसिद्ध हे ...अईसे लगथे जाना पूरा छत्तीसगढ़ इन कहानी मन के बीच बगरे हे । 

   रहिस बात कविता के त नवा कविता ए त का होगे प्रकृति चित्रण तो चिटको नइ पिछुवाए हे ....

      " सूजी गोभत हे मंझनिया के घाम 

         डबरा मं तौंरत हे सुरुज 

         मेंढ़  मड़ियाए हे , 

      धरसा परे हे उतान 

   गोभत हे मंझनिया के घाम ...। " 

         बिम्ब विधान के बलिहारी त शब्द चयन अद्भुत ..." गोभत " हे ...वाह ..छेदत काबर नइये जी ? काबर के छेदे मं लहू निकलथे गोभे मं नहीं ...। 

     प्रकृति के एकदम अलग रूप ल एमेरन ...देखे , सहराये लाइक हे .....कवि अनासक्त ए त का होगे उंकर मन तो रंग गए हे ....

  " हवा मं कोन जनी 

  का बात हे ?

महमहावत हे दिन 

अउ गमकत रात हे ।

चंदैनी के मांग मं फागुन बसे 

तब चेहरा मं पाथौं मैं 

  परसा फूल । " 

            गांव के दशा दिशा ल सुधारे बर , ओकर वैभव के सुरता करत उजरे के पीरा ल कवि भुलाए नइ सकय त शहरी चाल चलन के दुष्प्रभाव ल देख के डेरावत भी रहिथे , अवइया दिन मं गांव के आरुग मया पिरीत बिला झन जाय ये डर कवि के मन मं सेंधिया गए हे तो डर कलम ले कागज मं उतर आइस .....

" गांव ल शहर के 

नज़र लगे हे , 

शहर गज़ब टोनहा हे 

शहर मोर गांव ला पांगे हे । 

 संगी मोर गांव मं शहर आ गे हे । 

 .........

 गांव के तन मां 

जहर चढ़े हे 

जब ले सांप के 

मोर गांव मं डेरा परे हे । "  

     अपन गांव गंवई के भुईंया बर तड़प , हमरे बीच पलत , बढ़त , जोंक कस लहू पियत परदेशी मन कवि ल चैन लेहे देबे नइ करय त निभुर नींद तो सपना हो गए हे । छत्तीसगढ़ी मं लोकचेतना जगावत अइसन कविता ओ समय मं लिखइया कमे झन रहिन । ये जरुर कहे जा सकत हे कि अनासक्त जी के कविता हिंदी पट्टी ले जादा प्रभावित हे तभी मने बर तो परबे करही की उंकर गद्य होय या पद्य छत्तीसगढ़ के माटी के सोंध सोंध महक , धान के बाली के गमक , मृदंग के थाप के धमक , बिरहा ददरिया के सुर पाठक के मन मोह लेथे । 

   आज पुरुषोत्तम अनासक्त ल अंजुरी भर आखर चढ़ा देवत हौं ।


सरला शर्मा

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