Thursday 8 September 2022

पान अउ ढेला* -------------------- *(छत्तीसगढ़ी लोककथा)* -रामनाथ साहू

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                *पान अउ ढेला*                   --------------------          *(छत्तीसगढ़ी लोककथा)* -रामनाथ साहू                 



           ये जगह म ,आज  खेत  नइये। बहुत पहिली...बहुत- बहुत पहिली,येकरा एक ठन खेत रहिस।येकर संग म अउ बहुत अकन ,खेत रहिन ।                     



            खेत रहिन, तब रुख- राई मन रहिन ,एकदम गझिन...सघन वन ..अइसन । अउ जब रुख राई मन रहिन ,तब  पान-पतइ मन गिरबे करें । खेत म माटी के एकठन ढेला रहिस ।वोकरे तीर म एक ठन  चौड़ा थारी असन  पान हर आ गिरीस। दुनों के दुनों ,एक दूसर ल पसन्द करे लॉगिन । अउ आपस म सुख-दुख गोठियाय लॉगिन । धीरे- धीरे वोमन के  मित्रता हर परवान चढ़े लागिस,अउ वोमन आपस  मितान घलव बद डारिन ।मितान बनिन।संग म जिये मरे के कसम खाईन ।


                एक दिन बड़ जोर से बड़ौरा आइस,अउ  पान हर उड़ियाय कस करिस। तब ...मोर रहत ले तुंहला कुछु नइ होय मितान...कहत ढेला,पान उप्पर चढ़ के बोला लदक दिस । पान उड़ियाय ले बांच गय । पान वोला हृदय कमल ले आभार दिस ।



                            अइसनहेच एक दिन रटा -तोड़,मूसलाधार वर्षा होइस । ढेला के मूड म एक बूंदी गिरीस के,पान हर तुरतेच वोकर उप्पर म चढ़ गिस ।ढेला हर घूरे ले बांच गइस  ।                    



         अइसन  सुख -दुख म एक दूसर के काम आवत,वोमन बड़ दिन ल हाँसी -खुशी रहिन । फेर एक दिन,विधाता के लीला...!गर्रा-धुंका, आंधी-तूफान...बरसात...सकल पदारथ  एके संग म आइन। ढेला हर कूद के पान उप्पर चढ़ गय।फेर पानी के मोठ... मोठ बूंदी ले वोकर अङ्ग -भङ्ग होय लागिस।वोहर गले के शुरू हो गय रहिस । मितान...!मोर रहत ल तुंहला कुछु नइ होय, कहत पान, वोकर उप्पर चढ़ गय।तभे जोर से गर्रा वोला,उड़ियाय लागिस।मितान... मोर रहत ल तुंहला कुछु नइ होय ।ढेला ललकारिस अउ पान उप्पर फेर चढ़ गय। कभु पानी...कभु ....गर्रा -धुंका।कभु  पान तरी,ढेला उपर त कभु ,त कभु पान उप्पर म ढेला ल बचावत । पान चिथात गिस, अउ ढेला घुरत...!फेर जीवन अउ मृत्यु के ये  जंग ल दुनो मिल के बहादुरी के साथ लड़त, छेवर म पान चिथा-पुदका के उड़ गय, अउ अपन मित्र ल बचाते -बचात ढेला घूर गय ।


                                      अउ ये कत्था हर पुर गय ।       


*छत्तीसगढ़ के लोकप्रसिद्ध लोककथा* *प्रस्तुति - रामनाथ साहू*


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                      *बिलई*                      ------------             *( छत्तीसगढ़ी लोककथा )* 

"कहाँ जात हस बिलई...?" 

"बिरईन* काटे ।" 

"बिरईन ल का करबे बिलई ?" 

" चोरिया गाँथ हाँ ।" 

" चोरिया ल का करबे बिलई ?" 

"मछी धर हाँ ।" 

"कइसे मछी धरबे बिलई ?" 

"छापा छींचहाँ...!" 

"कइसे छापा छींचबे बिलई ?" 

"खुपुल- खापल खुपुल -खापल ..." 

"मछी धरके का करबे बिलई ? " 

"वोमन ल राँधहाँ...!" 

"कइसे राँधबे बिलई  ?" 

"चनन मनन चट के खाय के बेर गट ले..." "मछी ल रान्ध के का करबे बिलई ?" 

" खाहाँ गप गप ले " 

"खा के का करबे बिलई ?" 

"राजा के कोठी के गोड़ा तरी सुतहाँ !"

 "सुत उठ के का करबे बिलई ?" 

" नरियहाँ...!" "कइसे नरियाबे बिलई...?" "म्याऊँ...म्याऊँ ...भाकू...उंई... उंई भाकू...उंई... उंई...! 

"बस ...बस...बस...! "


*प्रस्तुति* - 

*रामनाथ साहू* 


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