*चंपू काव्य बाबत् डाॅ चंद्रपाल यादव के विचार*
चंपू काव्य बाबत् जानकारी बर ' अखिल भारतीय हिन्दी संस्थान ( गुजरात ) के अध्यक्ष ' वरिष्ठ कवि अउ लेखक डाॅ चंद्रपालसिंह यादव ले संपर्क करे रहेंव। चंपू काव्य बाबत् उनकर हिन्दी म प्राप्त विचार ला जस-के-तस भेजत हौं। एखर ले चंपू काव्य बाबत् गोठ-बात ह थोरकुन फरियाही।
" हाँ विनोदजी! श्रव्यकाव्य का चम्पू एक प्रकार है। इसका प्रयोग वैदिक काल से होता रहा है।
गद्य-पद्य-मिश्रित काव्य को चम्पू काव्य कहा जाता है।
समय के साथ चम्पू का लक्षण आगे भी चलता रहा है। चम्पू शब्द चम्प् धातु से निष्पन्न होता है---
चम्प्—चुरा॰ उभ॰ < चम्पयति> < चम्पयते-जाना, चलना-फिरना
चम्प्+ऊ= चम्पू
इस प्रकार चम्पू था किसी अर्थ में लेकिन आरूढ हो गया अन्य अर्थ में।
माइने तो वही रहेगा। प्रयोग हम कैसे भी करें।
नई कविता, अकविता जैसी विधाएँ भी चम्पू का ही विकृत रूप है। दृष्यकाव्य में भी चम्पू का ही लक्षण मिलता है। जहाँ नाटकीय संवादों के साथ श्लोक मिलते हैं।
मेरे ख़याल से लोगों को यह पसंद नहीं आया इस लिए परवर्ती काल में चम्पूकाव्य का उतना महत्त्व नहीं रहा। इससे अच्छा जनसामान्य ने गद्य को अलग और पद्य को अलग कहना-सुनना पसंद किया। क्योंकि कला की पसंदगी और नापसंदगी जनता-जनार्दन पर ही निर्भर करती है। साहित्याचार्यों ने भी काव्य को सामाजिक या सहृदय-संवेद्य कहा है। "
प्रस्तुतकर्ता-
- डाॅ विनोद कुमार वर्मा
🙏🌹
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