(लघुकथा)
महभारत
समारू अउ बुधारू दुनों झन कका-बड़ा के सगे भाई आँय फेर दुनों मा कभू नइ पटिच ।अतक इरखा बैर हे के पाछू चार बरस ले बोल-चाल के संगे संग एक दूसर के घर आना-जाना तको बंद हे।इहाँ तक मनमुटाव हे के दूनों के लइका-लोग मन में ये बीमारी फइल गे हे।सिरतो मा बहुत जिनिस ला लइका मन बड़े मन ला देख के सिखथें।
बंटवारा होगे हे तेकर सेती खेतखार मन एक दूसर ले जुड़े-जुड़े मिले हे।ये मन खेती-किसानी के दिन आथे तहाँ ले काँटा-खूँटी,नाखा-मुड़ी नहीं ते मेड़-पार ला ओखी मड़ाके,कुछु न कुछु बात मा जम के झगरा जरूर होथें।गाँव मा कई पइत पनचइत तको होगे हे ।
ये दुनो मा समारू जादा खटकायर हे।हर साल अपन कोती के मेड़ ला एक-दू बिता खांचते रहिथे।वोकर देखा-देखी बुधारू घलो चालू कर देहे।चार झन के संघरा रेंगे के लाइक मेंड़ हा दू बिता चौड़ा बस बाँचे हे।
आज दुनों झन अपन-अपन परिवार संग खेत मा बोनी करे ला आयें हें अउ मेड़ के नाम मा मनमाडे झगरा होवत हें-- महभारत माते हे।माई लोगिन मन तको भीड़े हें।अचानक समारू हा कुदारी ला धरके बुधारू ऊपर हमला कर दिच।ओला देख के बुधारू हा रँपली उठा के मारे ला धरलिच।ये झगरा मा समारू के मउत होगे।आजू-बाजू के किसान मन दउड़ के आइन।देखिन ता बुधारू के सांस चलत राहय।माई लोगिन मन तको लहू लुहान घायल होगे राहयँ।सब झन ला अस्पताल लेगिन-थाना मा सूचना देइन।
ये झगरा मा दू परिवार उजर गे।
चोवा राम वर्मा 'बादल '
No comments:
Post a Comment