. *दादी के छड़ी* (छत्तीसगढ़ी लघुकथा)
- डाॅ विनोद कुमार वर्मा
पाँच बरस के अंशिता फर्श मं दरी मं बइठके पढ़ई करत रहिस। घर मं कुर्सी-टेबल घलो सजे हे जिहाँ वोहा पढ़ई कर सकत हे फेर कुर्सी मं बइठके पढ़ना ओला बने नि लागे। काली जुवार गणित के पेपर हे। फेर ये समे ओकर ध्यान दादी कोती रहिस। अपन अनुशासनप्रियता के कारण दादी पूरा गाँव मं हेडमास्टरनी के नाम ले विख्यात रहिस। दादी ले आँखी मिलिस त अंशिता हाँसे लगिस। दादी हेडमास्टरनी तेवर मं पूछिस- ' काबर हाँसत हस? '
' दादी, छड़ी! '
दादी एती-ओती ताकिस त ओला छड़ी नइ दिखिस।
' तँय लुकाय हस! '- दादी गुस्सा मं बोलिस।
' नइ, दादी ..... तँय बुद्धु हस!' - अंशिता अउ खेलखेला के हाँसे लगिस।
' बहू, छड़ी के बिना मँय कइसे रेंगहूँ! अपन बेटी ला समझा। देख, मोला देखके कइसे हाँसत हावय? '- दादी गुस्सा मं बोलिस। ओकर चेहरा तमतमाय रहिस।
' आपके घलो त पोती हे! ..... बेटा, छड़ी ले आ। बने लइका मन छड़ी ला नि लुकावँय! '
' मम्मा, छड़ी ला मँय नि लुकाय हँव। मँय तो एक घंटा ले एही मेर बइठके पढ़त हँव! ' - अंशिता मासूमियत ले जवाब दीस।
दरअसल दू महीना पाछू दादी के दुनों घुटना के सर्जरी होय हे- नी रिप्लेसमेंट सर्जरी। आपरेशन के लगभग तीन महीना पाछू ले ओकर दुनों घुटना मं तकलीफ बहुत बढ़ गे रहीस अउ रेंगे बर छड़ी के सहारा लेना पड़त रहिस। दू दिन पाछू जाँच बर डाक्टर करा गे रहिन त डाक्टर कहिस- ' अब तक इन्हें बिना छड़ी के चल लेना चाहिए था। अगर एक महीने में कोई खास इम्प्रूव़मेंट नहीं हुआ तो इन्हें न्यूरोलाजिस्ट को दिखाना पड़ेगा! '
ओ दिन डाक्टर साहब फोन मं फिजियोथेरिपिस्ट ला डाँटे घलो रहिस। तब फिजियोथेरिपिस्ट जवाब दे रहिस- ' सर! वे सभी एक्सरसाइज स्वयं से कर ले रही हैं। उन्हें अब मेरी जरूरत नहीं है। वे बिना छड़ी के चल सकती हैं, मगर नहीं चल रही हैं। अब मैं क्या करूँ? '
' अच्छा बेटा, मोला छड़ी लान के दे दे, मँय तोला इनाम मं पैसा दुहूँ। ' - दादी हर पुचकारत अंशिता ले कहिस।
' कतका? '
' सौ रूपिया। '
' नहीं दादी, पाँच सौ लेहूँ! मोला परीक्षा खतम होय के बाद एक खेलौना खरीदना हे। '
एकर बाद अंशिता खाना पकईया बाई ला चिल्लाके कहिस- ' कमला दीदी, पुराना घर मं दादी के छड़ी हे, ओला ले आ! '
थोरकुन देर मं पुराना घर ले दादी के छड़ी लेके कमला बाई आ गइस। पुराना घर, नया घर ले लगभग 150 फीट दूरिहा मं हे। बीच मं अँगना हे।
' अंशिता बेटा, दादी के छड़ी उहाँ पहुँचिस कइसे? '- मम्मी पुचकारत पूछिस।
' मम्मा, दादी छड़ी लेके तोर सहेली मन के संग पुराना घर गे रहिस कि निही? '
' हाँ, उहाँ तोर दादी के संग मँय घलो गे रहेंव। मोर हाथ पकड़के तोर दादी एक हाथ मं छड़ी के सहारा लेके रेंगत गइस। '
' दादी बिना छड़ी के रेंगत इहाँ आइस। मँय दादी ला बिना छड़ी के रेंगत देखके खुशी के मारे हाँसत रहेंव। .... फेर नइ रेंगे सकबे त मँय तो हँव न दादी तोर छड़ी बने बर! '
' हाँ, सासु माँ, आप पुराना घर ले बिना छड़ी के रेंगत इहाँ आय हॅव अउ हमन ला तो पता घलो नि चलिस! '
' अब मँय बिना छड़ी के रेंग सकत हँव! हे भगवान!! ' - दादी आश्चर्चकित होके जोर ले कहिस अउ अंशिता के लकठा मं जाके ओला बाँही मं पोटारके रोय लगिस।
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