Sunday 5 March 2023

धर्मेंद्र निर्मल: कहानी - मंतर

 धर्मेंद्र निर्मल: कहानी - मंतर


चेहरा कोनो किताब ले कम नइ होवय, पढ़इया होना चाही। 

अहिल्या अउ परमिला परोसीन होथे आखिर। दूनो झिन संग लगाती ससुरार आये हे। दूनो घर के मुँहाटी जुरे हे। संगे संग उठत -बइठत हे । एके थारी म खावत हे, एके थारी म अँचोवत हे, त का ओतको नइ समझही। 


जब कभू अइसन बात होथे त परमिला ल बइठे बर कहे ल नइ लागय। वोहँ खुदे हाथ- गोड़ ल पसार के बइठ जथे। अपने अपन सुर म ओरियाए लगथे अपन राम कहानी ल सरलग - बिन संदर्भ, बिन प्रसंग के । पूछे- पाछे के कोनो नेंगे नइ रखय । 

आजो वोइसने होइस।


अहिल्या भात ल दूए चार कौंरा खाए रिहिस होही। ओतके बेरा परमिला ओरवाती तरी आके बैठ गे। अहिल्या, परमिला के मुँह ल देखते साथ समझ गे। अहिल्या परमिला के नस -नस ल टमर डरे हवय। 


जब कभू परमिला बेरा -कुबेरा अहिल्या घर आथे। ओकर थोथना ओरमे, मुँह फूले रहिथे। चुंदी - मुड़ी बही बरन छरियाए रहिथे। गोटारन कस मार बड़े -बड़े आँखी ल नटेरत, परेतीन कस बुड़ुर- बुडुर करे लगथे त अहिल्या ‘फट्ट ले’ जान डरथे कि परमिला  आज फेर बेटा बहू संग दू चार बात होके आवत हे। 


अहिल्या अँचोते -अँचोवत गोठ के मुहतुर करिस - ‘का साग खाए हस वो बहिनी ?’ सिगनल मिलत भर के देरी रिहिस हे। भइगे ताहेन का पूछत हस परमिला के गोठ ल, रेलगाड़ी कस दऊँड़े लगिस सरपट्टा- ‘अइ ..... का खवइ पीयइ ल पूछतस दीदी ! खाए हवन तभो लाँघन, नइ खाए हवन तभो लाँघन।’


अतका कहिके परमिला अपने -अपन करू -करू करे लगिस । मुड़ म हाथ रखे अनते डाहर मुँह करके अँइठत बइठ गे। जना मना अहिल्ये संग अनबन होगे हावय । मुड़ ल गड़ियाए भीतरे भीतर कनखियाके देख तको डरिस के अहिल्या हँ कुछू बोलत हे के नहीं । अहिल्या के मुँह उले के उले रही गे। 


हाथ ल झर्रावत अपने हँ फेर कहे लगिस - ‘हरहिंसा खाबे तेला खवइ कहिथे अउ उही हँ अंग लगथे । हरहर - कटकट म काय सिध परही ।’

‘अइ का होगे परमिला, आज कइसन गुसियागे हावस वो ?’ गुँझियाए गाँठ के फूचरा ल फरियावत अहिल्या हँ पूछिस। 

हालेके अहिल्या जानत हे के परमिला हँ बिगर पूछे सबो बात ल उछर डरही । ओकर पेट म दाँत हवय। नानमुन बात तको नइ पचय। अइसन हाल म तो वोला उल्टा अचपचन हो जही। छेरी के मुँह अउ परमिला के मुँह ल एके जान। बिन मिमियाए छेरिया नइ राहय तइसे बिन गोठियाए परमिला नइ रेहे सकय। तभो, परमिला ल तको तो अइसे लगना चाही के अहिल्या हँ ओकर दुख-पीरा ल समझत - सरेखत हे। ओकर संग देवत हे। 


अहिल्या के बात हँ अभीन सिराएच नइ रिहिस हे - ‘काला बताबे ....एक ठन राहय तेला बताववँ, इहाँ तो.....’- अइसे काहत परमिला हँ फेर थोथना ल ओरमा दिस। 

बइला ल धूरा पटकत देखके नँगरिहा के जी बमक जथे तइसे परमिला के ओरमत थोथना ल देखके अहिल्या के जी हो गे रिहिस हे, फेर मन ल मसोस के ऊपरसँस्सू लेवत कहिस  -‘का करबे बहिनी !  जिहाँ चार ठन बरतन- भँड़वा होथे तिहाँ ठिनिन -ठानन तो होबेच करथे...........।’


परमिला बीचे म बात ल काटत कहिस -‘तभ्भो ले, तभो ले। हमर घर तो बहुतेच तपत हे। कुच्छूच बात नोहय।’ थोरिक रूकके हाथ ल झर्रारत आगू कहिथे - ‘वो अतलंगहा नाती टूरा हँ अपन ददा संग खाए बर बइठे रिहिस हे। घेरी -बेरी आलू  दे ! आलू दे !! कहिके चिचियावय । ओकर आलू मँगइ ल देखके, मही हँ कहि परेवँ - ‘अइ आलू दे दे न वो। कब के आलू आलू के रटन धरे हे। ओकर थारी म भाँटे -भाँटा दीखत हे अउ मोर थारी म खसखस ले आलूच- आलू ल भर दे हस। पीलखाहा निपोर हँ मीठावत हे न काँही।’

परमिला हाथ ल हला -हलाके आँखी ल मटकावत तो गोठियाते रिहिस हे। अब मुँह ल तको दू बीता फार दिस। 


मुँह फारेच के फारे बात ल लमाइस -‘हाय राम ! वो काली के आए बेंदरिया के जबान ल तो देख। मोरे बर बघवा कस बरनियागे बाई । उल्टा मोही ल कहे लगिस - ‘अई ! मैं छाँट छाँटके परोसत हवँ का ? फोकटे फोकट मोर ऊपर लाँछन लगावत हस।’ परमिला हँ रेंकत अपन बहू के नकल उतारे लगिस। अहिल्या चुपेचाप मुड़ी ल गड़ियाए सुनत गुनत रहय।


अब परमिला अपन औकात म आ गे। दाँत ल पीसत, थूँक छटकारत अहिल्या ले पूछे लगिस - ‘अब बता तैं भला ? अपन दाई ददा ल अइसने जुवाब देवत रिहिस होही ?’ 

अहिल्या एकर का जुवाब देतिस, उही जानय। वोहँ मुँह ल उलाते रिहिसे, परमिला फेर बड़बड़ाए लगिस- उपराहा म ए गड़ौना टूरा के चाल ल तो देख ! ओकरे आघू म अतेक बड़ बात होगे, फेर एक भाखा बहू ल नइ बरजे सकिस।’ 


मोर बेटा मोर बेटा काहत थकस नइ रिहिसे आज उही ल गारी देए लगिस- ‘तैं कलेचुप रहा वो, दाई बने काहत हे’ -अतका तो कहि सकत रिहिस हे न ?’ जेने सवाल ये उही जुवाब तइसे कस किस्सा अपने हँ कारन तको बताए लगगे - ‘फेर काबर बोलय, ओला तो मोहनी - थोपनी देके मोहा डरे हे राँड़ी कलजगरी हँ।’


अहिल्या सोचते रिहिस हे, का जवाब देववँ। परमिला तब तक चुप नइ होवय जब तक ओकर जम्मो भड़ास नइ उतर जाय। बीच म बोले माने अपने हाथ म घाव करे बरोबर हे। टार रोगहा ल आँखी म देखके माछी ल काबर खाववँं।


परमिला पूछे लगथे - ‘आज ओकर ससुर जीयत रहितिस त का होतिस जानथस ?’ अपने सवाल करथे अउ अपने जुवाब तको दे लगथे - ‘बखेड़ा खड़ा हो जतिस बखेड़ा’। अहिल्या कभू मुड़ी ल डोलावय। कभू ‘हँ -हूँ’ काहय, त कभू मुँह ल ’’चक-चक’’ बजा देवय। जानो मानो जम्मो के जम्मो बिपत हँ ओकरे मुड़ म आके खपलागे हवय। अब बिपत खपलाए नइ खपलाए के बात कुंडा तरी जाय फेर अभीन तो आगू म बड़े जन मुड़ पीरा माड़ेच हे।


परमिला इही मेर नइ रूकिस। कहिथे -‘मोर चलतिस त मैं एकर कदाप मुँह नइ देखतेवँ वो। कहाँ कहाँ नीच घरायन म बिहा परेन।’ अब परमिला अपन छरियाए चुँदी ल सकेल के खोपा बाँध डरिस। मुड़ म हाथ ल रखके चिंता म बियाकुल मन कस कहे लगिस- ‘मैं पचासो पइत ओकर ददा ल बरजे होहूँ, आरा -पारा, तीर -तखार ल बने पूछ -गऊछके, देख- परखके माँगबे न कहिके। उहू मुड़पेलवा हँ जब करिस ते अपनेच मन के। मोर एको नइ चलन दिस । येदे, हो तो गे बारा गति। अपन हँ जुड़ा सितरा के बनौका ल बना लिस। मैं हँ फाँदा म परगेवँ।‘ 


उही होइस जेकर अनमान अहिल्या ल पहिलीच ले रिहिस हे। गोठियाते -गोठियावत परमिला बोमफार के रोए लगिस । रोवत -रोवत परमिला अपन सबो पुरखा के जम्मो गुन अवगुन, भल अनभल ल फलफल -फलफल बाँच के ओरिया -ओसा तको डरिस।


अहिल्या जानथे के बात ल बतगंड़ बनाये के आदतेच हे परमिला के। तभो ले ओकर खाँध म हाथ ल मड़ाके सहिलावत ढाँढस बँधाथे - ‘आजकाल के बहू मन ल का कहिबे बहिनी ! कहिबे तेनो अनभल हे, नइ कहिबे तेनो अनभल ।’

खाँध म अहिल्या के हाथ माड़े नइ पाइस परमिला सट्टे चुप होगे। जइसे खजानी पाके रोवत लइका चुप हो जथे।


परमिला ल लगे लगिस के अहिल्या हँ घलो मोर दुख म बियाकुल हे। ओकर ताव थोरिक जुड़ाय लगिस । मन के भड़ास निकल गे। मुड़ी ल नवाए वोहँ सोचे लगिस। ले दे के शांत होवत देखिस तब जाके अहिल्या के जी म जी आइस। अहिल्या समझ गे के परमिला के नस-नारी जुड़ा गे। अब  लोहा म पानी मारे के बेरा आ गे। 


अहिल्या कहिथे  -‘बड़ेमन ल घुरूवा बनेच बर परथे परमिला । नान  -नान बात म किटिर -काटर होवत रहिबोन त परिवार हँ कइसे चलही ?’ 


परमिला के मुँह ल बाँचत-पढ़त अहिल्या आगू कहिस -‘गलती काकर से नइ होवय ? लइका हँ जाँघ म हग दिही त जाँघे ल काटके थोरे फेंक देबे। धोए- पोंछे बर तो हमीच ल परही न !’ 

अहिल्या जानथे के मैं कहूँ थोरको खसलेंव ताहेन परमिला मोरे ऊपर चढ़ बइठही। धीर लगाके बात ल साधत कहिस - ’कोनो ल दोश दे ले बात नइ बनय बहिनी ! खुदे के फदित्ता भर होथे। पर के पान खाए ले अपन मुँह नइ रचय। हमरे घर हमरे दुवार । बनही त हमरे बिगड़ही त हमरे।’ अहिल्या बोलते राहय अउ परमिला के मुँह ल ताकत तको राहय। 


ओकर हाव-भाव ल सरलग टमरत अहिल्या कहिते गइस-‘कोनो अपन मन म काँही राखय, काँही काहय, कुछु करय। हमी हँ अपन फरज ल निभा लेथन सोचके बेटा ल बेटा अउ बहू ल बेटी ले दूसर भाखा नइ काहन। लइका मन संग खेल खाके दुख पीरा ल बिसरा लेथन ।’


अब अहिल्या के भरोसा जाग गे। वोहँ जान डरिस कि परमिला ओकर गोठ ल सुनत, गुनत धरत हावय। आगू कहिथे- ‘फेर हाँ ! गऊकीन, इमान से परमिला ! तैं पतिया चाहे झन पतिया । जेन दिन ले मैं सबिता ल बेटी कहे ल धरे हववँ, वो दिन ले सास -बहू के बीच के जम्मो डबरा -खोचका मन पटा गे हे। बेटी कस मया - दुलार ल पाके सबिता तको हँ बेटी ले जादा मोर हियाव करे लगे हावय । अब काँही  के संसो फिकर नइहे मोला। मैं मन म सोंचे -सपनाए नइ राहवँ, आगू - आगू ले मोर साध पूरा हो जाथे।’


परमिला चुप अहिल्या के मुँह ल बोकबाय देखे लगिस। जानो मानो कोनो गहीर सोच-बिचार के दाहरा म डुबकी लगावत हे।

अहिल्या कहिथे- ‘जइसे देबे तइसे पाबे, जइसे बोबे तइसे लूबे। करम गति सब ल इहेंचे भोगे बर परथे।’ अतके ल सुनिस अउ परमिला अपन अँचरा ल झर्रावत रटपटाके उठगे, जना -मना कोनो खचित काम -बूता के सुरता आगे। के जना मना कोनो अनमोल जिनिस पा घलिस -का पाइस, परमिले जानय। फेर मुसकुराए बानी म कहिस- ‘ले बइठ दीदी जावत हौं ! अबड़ बेरा होगे’ अउ तुरतुर-तुरतुर रेंगते बनिस।

अहिल्या अपन गोठ ल मुँह म धरे के धरे बोकबाय देखते रहिगे।


धर्मेन्द्र निर्मल

कुरूद भिलाईनगर जि. दुर्ग

9406096346

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 पोखनलाल जायसवाल:


 जिनगी सदा दिन एक जइसे नि राहय| तन म ताकत रहत ले मनखे दम दिखाथे| गरब करथे| तन के सुघरई अउ धन के बल के गरब अउ घमंड म फूल के अनेक कुप्पा हो जथे कि कोनो ल कुछु समझबे नि करय| फेर संसार म जेन ऊपर चढ़ने उही तो खाल्हे उतरथे, ऊपर म बने रहे बर कुछु थेबहा तो चाही फेर सबो जानथन कि  ऊपर अइसन कुछु हैच नइ हे| सहारा ले बर भुइयां म पांव राखे ल परथे| जिनगी के इही सार आय| घर परिवार म घलव बुढ़ापा के सहारा बर एक आसरा चाही, जेला मया परेम अउ दुलार के खातू - पानी ले सजोर करे के जरूरत रहिथे| 

        हमर समाज बेवस्था अइसे हे कि घर परिवार म बेटा बहू बुढ़ापा के सहारा बनथें| जरूरत हे कि उन ल समझन उंकर जइसे बेवस्था बनथे  ओला स्वीकार करन| उही म संतोष करन तभे तो जिनगी के जम्मो सुख मिलही | नारी जात ल गउ/लक्ष्मी कहे जाथे, कहे जाथे कि जेन खूंटा म बांध दे बंधा जथे| अइसन म बहू ल बेटी समझ के मान दे ल परही, आन कोठा ले आय लक्ष्मी ल बेटा समय दिही तभे तो बहू घर ल समझ पाही| बेटा के जिनगी म आय बहू बर नवा घर म पहली सहारा तो बेटा हर आय, समझे के आय|  मनखे के मनोविज्ञान ल सरेखत कहानी मंतर घर परिवार ल जोरे रखे अउ सुख के खजाना बताय म सक्षम हे| संदेशपरक हे|  

        एके पीढ़ी के अहिल्या अउ परमिला के सोच म फरक ल बढ़िया ढंग ले कहानी म कहे गे हे| सिरतोन म "बहू ल बेटी" समझई ह घर के सुख बर कोनो मंतर ले कम नोहय | ए दृष्टि ले कहानी के शीर्षक मंतर सार्थक हे|

         संवाद अउ भाषा शैली गजब के हे|  हाना मुहावरा के प्रयोग ले कहानी के सुघरई बाढ़े हे| सुग्घर संदेशपरक कहानी बर धर्मेन्द्र निर्मल जी ल बधाई🙏🙏

पोखन लाल जायसवाल

पलारी (पठारीडीह) 

जिला बलौदाबाजार छग

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