Friday 17 March 2023

व्यंग्य - चुनाव अवइया हे

 व्यंग्य -          चुनाव अवइया हे


पीछू चुनाव के कलेन्डर हँ बूढ़ा-जुन्निया गे। हफ-हफ करत हे। अब नवा चुनाव अवइया हे। टी.बी. के मरीज कस हँफरत-खाँसत-खखारत ले-देके पाँच साल ल काटिस बिचारा हँ। कलेण्डर के पन्नामन फड़फड़ा-फड़फड़ाके थक-जुड़ा गे। थूँक ल लीले के ताकत नइ रहि गे। जऊन थूँक रिहिसे तेमा तो नेता, मंतरी, करमचारी, सकलकर्मीमन बरा चुरो-चुरोके अपन-अपन घर ल भर डारे हे।

 

पीछू चुनाव म चले घातेच् भासन-घोसना-रासन ले जनता के आस-उम्मीद-सपना के चिरइया जनम-जाग गे रिहिसे। उहू हँ कथनी-करनी के उलटफाँस बचन-बान ले घायल होगे रिहिसे। वो सपन चिरइया स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र अगास ले स्वतंत्र धरती म गिरके जिनगी ले स्वतंत्र हो गे हे। बयानबीर महापुरूस मन जनता के दीन-हीन दसा ल देखके घलो आँखी म टोपा बाँधके रहि गे। महाभारत जुग के राजधरम ल उन पतिब्रता गँधारी कस निभा दिन। गाँधी बाबा के बुरा मत देखव के वचन ल सार्थक कर दिन। बता-देखा दिन कि राजधरम सबले बड़े थाथी होथे। 


थाथी कइसनो थोथा राहय साज-सँवार-संभालके रखे के जिनिस होथे।


जनता बपुरी के टोटा चिल्ला-चिल्लाके अइँठ-बइठ गे। फेर नेतामन के पोचवा कान म थोरको जूँवा नई रेंगिस। गाँधी बबा के बुरा मत सुनव के कनघऊवा ल कान म गोंजे-बोजे माटी कस लोंदा-कोंदा बइठे दिन ल पहा दिन।


 जुन्ना कलेण्डर उदास हे। बिदाई के बेला आ गे। नवा कलेण्डर छपके नेवरनीन कस मुड़-कान कोरे-गाँथे, पाटी-पारे मटमट ले तियार दुवार म मुचमुचावत खड़े हे। धरती म अवतरे बर छटपटावत हे। महतारी के पेटे भीतर ले हाँसत -खेलत-हुदरत-कोचकत-कुलबुलावत हे। 


 भारत महतारी के दू झिन संतान हे- एक चुनाव, दूसर योजना।


चुनाव हँ बाबू पिला हरे। बाबूमन ल भ्रूण हत्या के डर नइ रहय। काबर कि हमर समाज बाबू पिला के पक्षधर हे। बेटामन पुरखा परिवार ल तारथे। जोजवा, भोकवा, लुलुवा, खोरवा बेटा तको पुरखा ल तारे के पोठलगहा दम रखथे। ये हमर परम-धरम के किरिया-कसम खाए बेसरम करम हरे। जऊन हँ मानुस जात के पीछु ल नई छोड़य। मानुस जात अउ ओकर सोच के बीच फेविकोल के चोक लगे हावै, जे हँ बइगा गुनिया तो दूर भगवान के छोड़ाए नई छूटय। 


योजना हँ नोनी पिला हरे। नोनीमन सेवा, समर्पण अउ सहनसीलता के साक्षात देवी होथे। येमन भारतीय सोच अउ समाज के बिकास खातिर जनम लेके पहिली गरभे म हूम देवा जथे। नोनीमन जिनगी भर के कमई ल हथिया-पोगराके पर घर रेंग देथे। नोनीमन के ये बलिदान हँ मुटभेड़ म मुरकेटे आतंकवादी बरोबर होथे। जेकर दुख-पीरा परिवार-समाज का, घरवाले मन ल तको नई होवय।

समाज तो समाज, सरकारो ल नइ होवय। कसाब अउ अफजल बर भले करोड़ो खरचा हो जाय, नइ अखरय। एकर ले कमई के रस्ता खुल्ला रहिथे। 


 स्वारथ जागे अउ काम परे ले कतको मनखे, संगठन अउ समाज सेऊक बनके खड़ा हो जथे, वोहँ बेरा-बखत के बात हरे।


सिंघासन हँ माटी के लोंदा-कोंदामन ल झेलत लोकवाग्रस्त हो गे हे। अँधरा, कोंदा, लंगड़ा अउ दलाल नाम के चार गोड़ के सहारा चौपाया सिंघासन ल पाँच साल बर चौपाई बनाके बिछाए जाथे। ये चौपाई हँ कोंदा, लेड़गा अउ जोजवा मनके अलथ-कलथ के उन्डई-घोन्डई म दरर गे हवय।


खोरवा-लंगड़ा सिंघासन के फेर सजे-सँवरे के दिन आ गे। उँघावत-सुतत, अँइठे-बइठे नेता-मंतरी मन के चेते-जागे के बेरा होगे। बसियावत परे चमचामन के छकछक-चकाचक धोवाए-पोंछाए के दिन आ गे। उन्कर पूछ- परख अब बाढ़े लगे हे। 


बड़का नेता मन भीड़-भाड़के भिंदोल कस टेर्र-टेर्र करत अपन टिकट के जुगाड़ म लग गे। टुटपुँजिया नेतामन अपन घुनावत पार्टी के गुन बघारत मेचका कस पिच-पिच एती-उती कूदे लगे हे। अवगुन हँ भले सुस बैंक के लॉकप म अण्डा देवत-सेवत सपटे-लुकाए रहय। 


देस ल बोहे-बोहे बड़का नेतामन के खाँध हँ जब थके लगथे, त उन अपन टूरी -टूरा ल टिकिस दे देथे। अइसन म कार्यकर्ता का करही ? उन सोज्झे कहिथे 

‘वाह गा चोखू ! जिनगी भर तोर रैली म हम समोसा-मिच्चर खा-खाके चिचियाएन -भूँकेन। पसीना के रेला बोहवाएन । तोर पीछू-पीछू झोला धरे घूमेन, त का इही दिन देखे बर घूमे हन ? मिहनत करन हम अउ आमलेट झड़कव तुम ? अइसन नइ बनय गा दाऊ ! तोर लइका ल तहीं पा तहीं खेला, तहीं पीछवाड़ा धो। हमार सिरिफ मेहनत रहिही। मेहनत बर हम कमी नइ करन। काँख -काँखके करबो।’ 

‘फेर ......... ’

‘फेर तोर लइका अब हमर झोला धरही, तभे बात बनही। 


बेटा कतको बड़ बाढ़ जावय, बाप हँ बापे रहिही, तेकर मतलब का बाप हँ कभू बुढ़ाबे नइ करही ? बाप के पनही बेटा के पाँव म आ जही त का बेटे हँ बाप बन जही ?

बनय ते झन बनय, फेर पागा ल तो पहिर सकत हे। जिहाँ कुकरा नइ बासय, उहाँ का बिहनिए नइ होही ?’ 


दल के बइठे-बइठारे, छोड़े-भागे, रिसाए-गुसियाए अउ हुदेने-लतियाए चमचामन ल माँजे-मनाए अउ भाँजे-भँजाए के दिन अवइयच् हे। 

भासन, रासन, आस्वासन अउ चेपटी के बीच राम-सुग्रीव कस मीत-मितानी के मुुहुरत निकलइया हवय। 

चंगू -मंगू मन के कुछु किम्मत राहय चाहे झन राहय। उन्कर बोट के किम्मत, हिम्मत अउ किस्मत चमकने वाला हे। उन्कर नाम हँ गरीबी रेखा सूची म जुड़े लगे हे। दुरूप्पा चाँउर वाले कारड हँ पहुना बनके उन्कर घर म धमके लगे हे। जेकर खुशी हँ घरो-घर फुगड़ी खेलत धमाचौकड़ी मचाए लगे हे।


नवा-नवा ठेकादारी खुलत हे। जेकर ले रोठहा दलालमन मोठहा नोट कमई करके बोट बटोरही। जात ले बिजात होए मनखेमन अपन-अपन जात के झण्डा उचा-उचाके, जी-परान देके समाज-सेवा के बहाना अपन नाक अउ नाम ल उचाए-बचाए के उदीम म भीड़़ गे हे।

 

सड़क मन इस्नो-पावडर लगा-लगाके अपन गाल ल चिकनावत -चमकावत हे। उज्जर कपड़ा पहिरे करिया मनवाले गोरिया नेतन के चुकचुक ले सुफेद कपड़ा म धुर्रा नइ उड़ना-परना चाही। मन कतको करिया राहय तन के गोरिया अउ ओग्गर रहना जरूरी हे। तभे देस के चमकत बिकास हँ आँखी म चकचक ले दिखथे-चमकथे। 


बड़ेमन ल पाँच साल म एके घँव तो आना-जाना हे। बाकी सरी दिन गरीब के सड़क होथे। गरीब-गुरबामन ल सउर-सबर तो रहय नहीं। उन गँवार मुरूख अउ सबले बड़े गदहा होथे। बइला-भइँसा अउ छेरी-पठरू मिलाके जेन बरदी होथै ओइसने जनता होथे। अकर-जकर देखत, जतर-कतर गदर-फदर रेंगही त कइसनो पक्की सड़क होवय खदर-बदर तो होबेच् करही।


अइसने वोहँ घेरी-बेरी हमर गली म आवय-जावय। अघुवा के जैराम करय। एक दिन तो मैं बक खागेवँ। वोहँ आइस अउ गोड़ तरी ढलगत कहिथे- 

‘भैया मोर मुँह म थूँक देते गा !’

      पूछेवँ - ‘काबर ?’ 

त वो सुनसुनहा, महामना बनत साधु वचन उच्चारथे - ‘सुने हौं, तोर थूँक हँ दवई के काम करथे। मोर गाल म दाद हो गे हवय। अब्बड़ बिछियावत हवय। थूँक देते त माड़ जतिस।’

मैं कनुवा गेवँ। नइ थूँकेवँ। 


उपरहा अउ सुनव। कोन जनी वोहँ कब के मोर पाछू परे देखत-पासत रिहिसे ? एक दिन भूँसा धरत-डोहारत धूल-गरदा के मारे मोर टोटा खरखराए लगिस।

 मैं जोरदरहा खखारके थूँक परेवँ। पता नही वोहँ कोन कोती ले चील कस झपट्टा मारत अइस अउ ‘चप्प-ले’ कूदके चपर-चपर चाँटे लगिस। पाछू जुवर सुनेवँ - वोहँ टिकिस के जुगाड़ म भीड़े हे। 


फेर बिहान भर सुनेवँ, टिकिस घलो मिलइया हे। वोकरेच् जीते के आसरा तको सोला आना हे। मैं बकबकाए खड़े अपन थूँक ल न लील सकत रहेवँ, न थूँक सकत रहेवँ। मोला का पता के मोर थूँक म वोहँ बरा चुरोइया हवय।

एती चुनाव के उमरत-घुमरत बादर ल देख के जम्मो सकलकरमी-करमचारीमन के मन हँ मँजूर पाँखी कस छितराए लगे हे। उन परिवार सम्मेत बोरिया-बिस्तर बाँधके हड़ताल म बइठत हे। जगा-जगा नाचा -गम्मत कस पंड़ाल लगे-लगे हे।

 

असल बरसइया बादर के रंग-ढंग ल मँजूर बज्जुर पहिचानथे । तइसे भासन -घोसन के असल अमल के बेरा ल सकलकरमीमन चिन्हथे-जानथे-पहिचानथे। दुबारा सत्ता के सुग्घर सुख-सुवाद लेना हे त कइसनो माँग होवय मानेच ल परही। अभीन के बेरा हँ अइसने बेरा हरे। 


अब जनता काँही कहय, नेतन ल मुँह नइ खोलना हे। कोनो कतको गारी देवय जुवाब नइ देना हे। 

इन कहे-बोले, झगरा-झंझट ले बाँचे खातिर उनमन अपन प्राइभेट अखाड़ा घर बनवा डरे हे। जिहाँ खुरसी टेबुल ल फेंक-फेंकके पटक-पटकके ससन भर लड़थे अउ जी ल जुड़वा लेथे।


गाँधी बबा हँ सायद इही दिन बर बुरा मत कहव के नारा ल देश के भीथिया म लिख-चिपकाके गे हवय।

 

तरिया म चुनई नारा के जाल हँ पर गे हे। जाल हँ कंदर गे हे। जुनिया गे हे। तभो ले भासन-रासन-आस्वासन अउ चेपटी के गठबंधनी फाँस हँ अतेक मजबूत हे के बयकूप जनता हँ फँसिच् जथे। 


मरत प्रजातंत्र ल बचाए खातिर मरहा-खुरहा जीयत-जागत महामुरदा मन मुददा बोहे-बोहे फेर जागके खड़ा हो गे हे। 

देखव बगुला मन पार ले उतरके प्रजातंत्र के तरिया म कइसे धँसत हे।


उत्ती ले लाली बगरे ल धर ले हे। नवा बिहान होवइया हे। चुनाव अवइया हे। 


धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

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