Sunday 5 March 2023

व्यंग्य - भगत के गत

 व्यंग्य  - 

भगत के गत 

जगतरामजी बात के बत्तु, काम के टरकु। कमाए बर जब्बर अल्लर अउ खाए बर अल्लार चिक्कन। बिन कमाए काला खावय, त भगवान के पीछु परे जाय। जनम देवइया कोन ? -भगवान ! पालही कोन ? -भगवान !! लाद दे लदा दे, दस कोस पहुँचा दे। भक्ति के डोर ल ‘चमचम-ले’ पकड़ लिस जगतराम। अइसे-तइसे जगतराम के टीआरपी ‘घमघम-ले’ बाढ़ गे। टीआरपी बाढ़े ले वोहँ भगत के नाँव ले जगप्रसिद्व होगे। ओकर भरोसा मीडिया ल अपन टीआरपी बढ़ाए के चस्का चढ़गे। भगत के गत, सत, लत, मत अउ रत के हाल-चाल जाने खातिर मीडियावाले ओकर घर जाए के सोचिस।

भगत जी परछी म पलथियाए जेवन भकोसे के तियारी म रहय। आचमन करके पहिली कौंर ल भगवान के भोग बर थारी के खाल्हे भूइयाँ म मड़ाए भर रिहिसे। ओतके बेरा मीडियावाले मन धमक दीन। भगतजी देखिस। उन ल बइठे के इसारा करके अपन हँ गपागप गफेले लगिस। 

भक्तिन उन्कर चहा-पानी के बेवस्था करे लगिस। मार झमाझम नवा लुगरा, स्नो पावडर म पोताए चमाचम चमकत चेहरा। छम्म-छम्म पइरी ल छनकावत जब भक्तिन रेंगय त पत्रकारमन के टीआरपी अंतस ले पाँच हाथ ऊपर छलके-उछले परय। उही समे बारी कोति ले गाय आइस अउ अँगना के सुखावत धान म अभर गे। 

‘उँ....उँ... उँ....उँ... उँ....उँ..ं’ भगत जी मुँह भर भात बोजे-बोजे नरियाइस।

‘हे हे हे हे.....’ भक्तिन पानी देवत चिचियाइस।

भगतजी के माइण्ड छरियागे। कौंरा उठे के उठे रहिगे। कुपित होगे। कोंटा कोति इसारा करत भक्तिन ल गुर्री-गुर्री देखे लगिस -‘उँ....उँ... उँ....उँ...’

भक्तिन पानी ल छोड़ कोंटा म गिस। डण्डा ल धरके आइस अउ गइया ल सोंटियावत खेदारिस।

भक्तिन के आवत ले भगत जम्मो साग ल रॉफेल कस गफेल डरे रहय। भक्तिन धकर-लकर कटोरी म भाजी साग धरके आइस अउ दे लगिस।

‘हूँ...।’ भगतजी एकऊहा गँऊहा डोमी कस फुसकारिस अउ दूसर कटोरी कोति इसारा करिस। 

भक्तिन लहुटिस, तुरते दूसर कटोरी धरके फेर आगे अउ साग ल परोस दिस।

‘कोंदा हे तइसे लगथे यार’- एक अखबारी दूसर तीर संका जताइस। 

सक चलय चाहे झन चलय फेर पुलुस अउ पत्रकार के संका बजुर चलथे। बिना संका करे उन्कर अन्न पचय, न प्रण पूरा होवय।

‘नहीं, बोलथे गोठियाथे।’

‘त ये सब नैन-मटक्का, इसाराबाजी का हरे ?’

‘ले न खाके उठन दे, पूछ लेबोन।’

‘पूछे-जाने बर तो आएच हन का।’- दूनो आपस म नैन-मटक्का करत एक-दूसर ल अपन-अपन बत्तीसी के चमक देखाइन। 

‘बोयंअं... !!!’

अखबारीमन चमक गे-‘अचानक भँइस कहाँ ले आ गे।’ उन अबक-तबक उठके भगइयच् रिहिन हे कि देख परथे -‘अरे ! अलकरहा डाँहकी कस डकारथौ भगतजी।’

भगतजी डकारत अपन भक्तई झाड़िस- ‘बोंयंअं.... जऊन काम करय डंका के चोट म करना चाही, का गुपचुप रखय गुहरामन कस। ये डकार हँ पेट भरे के इसारा हरे । एकर ले उपरहा खाए, माने हदरहा कहाए। अइसे आपमन कहाँ ले पधारे हौ साहेब ?’

‘हमन ‘‘अपना सपना छपना’’ समाचार वाले अन। तुँहर लोकप्रियता सुनके थोक -बहुत जानकारी ले बर आए हन।’

‘सपना छपना’ के नाँव सुनते साथ भगतजी के मन हिरना होगे। वोहँ मनेमन मनी-मनी के जंगल म छपाक-छपाक उछले लगिस। खुसी के मारे मुँह ले हाँसी छलांग मारे परय। होंठ तनाय लेवय अउ दाँत बाहिर कूदे परय। भगतजी खुसी ल खाँसे-खखारे के बहाना खखौरी म चपक के राखिस। तेकर पाछू गंभीरता के कथरी ओढ़के कहिस-‘पूछौ न का जानकारी ?’

पत्रकार महोदय सद्भावना मैच के सुरूवात करत कहिस-‘भगतजी ! खावत-खानी जउन घटिस हे, तेला हमन समझ नइ पाएन, थोरिक बताहू का ?’

भगतजी नेवरिया बहू कस लजागे-‘छोड़व ओला साहेब।’

‘ओला नइ लिखन-देखावन भई। अइसेनेहे झोलाछाप सवाल हरे वोहँ।’

भगत जी एक मन सोचिस -‘तुँहर बर भले झोलाछाप हे। मोर बर तो कई तोला के हे रे भइया।’ फेर कहिस-‘काहे.....पहिली मैं चिचियाएवँ कि गाय आ गे, भगावव।’ दूसरइया पइत खिसियाएवँ कि ‘हे हे’ म नइ मानय, ओदे कोंटा म डण्डा परे हे, मार के भगा स्साले ल।’

‘अउ जेवन परोसे के बेर तको तो कुछू कहत रेहेव का ?’

‘पहिली खेप म भाजी लाए रिहिसे, ओला मना करेवँ। गोभी-आलू के चिखना ल मँगाए हौं।’

‘भक्तिन संग कुछू अनबन-वनबन होगे हे तइसे लगथे ? सबो बात ल इसारे म करत देखे हन ?’

‘नहीं...बने-बने हे गा। मैं खावत-खानी बोलवँ नहीं, मौन धारण करके खाथौ अउ एके परोसा खाथवँ।’

‘काबर ?’

‘मौन, माने बानी म संयम। खावत बेरा बकर-बकर बोलत रेहे ल अन्न के अपमान होथे। मौन रहिके खाए ले अन्न के मान होथे। जइसन करबे अन्न वइसन होथे मन। ये मौन हँ मन के ‘छन्न-छन्न’ ल रोके-थाम्हे के साधन हरे।’

राहेर काड़ी म दाँत ल खोदियावत भगतजी आगू कहिथे -

‘इही तो संयम, भक्ति अउ संतोस के चिन्हा हरे। एके परोसा माने जतका हे ओतके म संतोस। संतोस ले बड़े कोनो धन नइ हे।’

‘त चिखना ल...... ?’

‘चिखना के का दीखना अउ का लिखना साहेब। वोहँ चल जथे।’ भगत जी हल्लू-से दाँत ल निपोरिस अउ मनेमन अपवित्र मंत्र उच्चारे लगिस- ‘ये अनदेखना मन मोर खवई ल तको नइ देख सकिस।’

‘तुँहर प्रमुख देव कोन हरे ?’

‘अइसे तो हमर जात-गोत के देवता ‘दूल्हा देव’ हरे। फेर मैं सबो देवता ल मानथौं  -पूजथौं। समे अउ परिस्थिति के मुताबिक। पढ़ई जीवन म सरस्वती माँ के पूजा करेवँ। बर-बिहाव के पीछू धन के देवी लक्ष्मी के पाछू पर गेवँ। अभीन-अभी सिव पार्वती ल मनाए के चक्कर म हौ।’

‘माने कोनो एक ठिन म तुँंहर पूरा आस्था नइ हे ?’

‘आस्था अतेक सस्ता कइसे हो जही दाऊ, परिया म माड़े जिनिस तो नोहय, जऊन रस्ता चलत मिल जही। ओकरो बर उदीम करे बर लगथे।’

‘कारन का हे ?’

‘ज्ञान के देवी सरस्वती, धन के देवी लक्ष्मी, अब पारिवारिक मया-जुराव बर सिव-पार्वती जी। बस जस जस जइसन समे, परिस्थिति अउ जरूरत, तब-तब तइसे साधना।‘

‘साधना काए ?’

‘अपन साध ल सधोना ही तो साधना हरे।’

‘कहाँ तक पढे-लिखे हौ ?’

‘गाँवे तक भर पढ़े हौं।’

‘मतलब ?’

‘गाँव म पाँचवी तक स्कूल हे, बस ओतके ल जान।’

‘आगू पढ़े बर बाहिर काबर नइ गेव ?’

‘ओकर ले का फायदा ? दुनिया भरके पढ़ई ल मैं गाँवे म कर डारेवँ। उही किताब उही करिया अक्षर ल पढ़े बर फोकट बाहिर का घुमई। फालतू खर्चा करे के का मतलब ? संगम के पानी पी ले, ताहेन घाट-घाट जाए के जरूरते जर-बर जथे।’

अतका कहि भगत हँफर गे रहय। लंबा साँस लिस, फेर कहिस -

‘अउ सबले बड़े बात छोट-छोट लइका मन ल संभालना तको जरूरी राहय।’

‘छोट-छोट लइका माने.......?’

‘अब आप मन तो जानते हौ, स्कूल के हाल-चाल ल। सौ-दू सौ लइका म एक झिन गुरूजी। उप्पर ले दुनियाभर के चोचला। कभू ये बइठका, कभू वो बइठका, कभू वो ड्यूटी त कभू वो ड्यूटी। स्कूल म सबले बड़े महीं रहेवँ, त छोट-छोट लइकन के देखभाल करे खातिर गुरूजी मोला कप्तान बनाके एके कक्षा म दू-दू तीन-तीन साल ले रखै। अउ गुरू के मान रखत मैं पूरा ईमानदारी ले अपन फरज निभाएवँ।’

‘कतको झन कहिथे तुमन अगुवाके कोनो ल राम नइ भजौ ?’

‘काबर भजौं ? मैं राम-रहीम नइ जानौं। एक आसाराम ल जानथौं। मोर ये आसाराम ल कोनो निरासा करिस, त मैं दुर्वासा हो जथवँ। भगत होए के नाते मोर दर्जा सबले उप्पर हे। जब दर्जा ऊँच हे त नाक-माथ ल काबर नवाके रखवँ। ऊँच होके नीच काबर सोचौं। जोन मोला जयराम करही, तेकर जुवाब मैं देहूँ जी। ज्ञान ल सान से तान के रखे बर परथे गा, तब मान होथे। अउ कतको िर्झन मोर ले जलथे तको, तेकर सेति बदनाम करथे मोला।’

अइसे कहि भगत सोचे लगिस- ‘गाँव के मन मोला जोगड़ा समझथे। आज पता चलही कतेक बड़का जोगी हौं।’

‘झाड़-फूँक घलो करथौ सुने हन, का का के करथौ ?’

‘सबके। बिहाव कराए ले लेके लइका होवाए तक।’

‘ये सब ल कहाँ ले सीखे हौ ?’

‘मंतर-संतर नइ सीखे हौं भई ! मैं झूठ लबारी वाले नोहवँ। लोगन ल मोर ऊपर घातेच विस्वास हे, तेकर मजा मारके फायदा उठा लेथवँ। भभूत बड़े-बड़े भूत के बूता बना देथे।’

‘बैदई घलो करथौं ?’

अँगना कोति अंगरी देखावत भगतजी कहिस-‘देखौ, ये सब पेड़-झाड़ उही तो आय।’

‘येदे हँ का पेड़ हरे ?’

‘पेड़ के नाम तो महूँ नइ जानवँ, फेर दवई के काम आथे तेला जानथौ।’

‘का दवई हरे ?’

अब भगतजी के छट्ठी इंद्री जाग गे। ओतेक बेर खुसम-खुस खुस्स-खुस्स जुवाब देवत रिहिसे तउन फुस्स होगे। चुप रहिगे। सोचे लगिस-‘तुम्हला आमा खाए ले मतलब, पेड़ गिने ले का मतलब ?’

कहिस -‘तोला का तकलीफ हे तेला बता, मैं दवई देहूँ। उप्पर वाले के कृपा होही त बजुर बने हो जबे, अतका कहि सकथौं भई ! बाकी तीन-पाँच ल मैं नइ जानौ।’

‘कम से कम हमू एकात ठिन जान लेतेन कहिथौ बइगा महराज।’

भगतजी के जी जर-चुर के चुरमुरा गे। अंतस ले भूकंप के झटका मारे लगिस। आनी-बानी गारी के लावा निकले लगिस। सोच म परगे- ‘अरे मैं तुम्हला दवई बता देहूँ त कालि मोर दुवारी म कोन कुकुर आही। अइसनेहे सब जान डारही ताहेन मैं तो चुकुम ले हो जाहवँ। मोर टीआरपी के का होही ?’

फेर पाछू कहिथे-‘तुमन जान के काएच् करहू, भलकुन कुछू जानत होहू तेला मोला बतावव। मोर हाथ ककरो भलई हो जही, तुँहर ले भला काय सिध परही।’

‘हमन कहाँ ले जानबो महराज।’

‘जानत होहू गा, बताना नइ चाहव। मोर ले कोनो आगू झन बाढ़ै कहिके कतकोन झन मन जानत रहिथे तभो नइ जानन कहि देथे।’

जिहाँ कपट, तिहाँ सपट।

‘जिहाँ मन म कपट होथे, मनखे सपटे-लुकाए लगथे। ताहेन जेन सुनय सपट के तेन मरय अपट के ...हे हे हे ’ - काहत भगत जी अपन जम्मो कपट ल लपेट के मने म सपटा-थपकाके राख लिस-‘का बताववँ रे बइमान हो। मोरे दिमाक चाँटे बर तुमन दीमक अवतार धरे हौ। सब दवई-गोंटी ल तुमन ल फोकट म बता देववँ। मोर बताए दवई म तुमन नाम अउ दाम कमावव। मैं माँछी हाँकत बइठे राहवँ। तुँही भर मन हावव हुसियार।’

‘आपमन के भविस्य के का योजना हे ?’

‘योजना का ? अतके म खुस हौं ? गाँव, घर, परिवार, खेत-खार, रिस्तादार, नता -सैना अउ का चाही ? भभूत ले भूत भागत हे। पंडई के डंडा चलत हे। घर बइठे भर -भर हंडा पावत हौं, अंडा ढरकावत हौं। सब बर अँधियार मुँधियार हे, उहाँ मोर सरग दुवार हे। अउ का चाही, बतावव ?’

अब भगत के मति छरियाए लगिस- ‘येमन मोर माथ ल कब तक खावत रहिही भगवान।’

बइगा के ओतका भभूत ले पत्रकार मन के जम्मो टीआरपी भूत उतर गे। उन उठिन अउ रेंगते बनिन। फेर उहूमन खोजी पत्रकार हरे। गुनते रिहिन - ‘एकर भभूत ल छूत कइसे करे जाय ? ये काला-काला मिलाके गोली बनाथे ? काकर रसा निकालथे ?’

उन सबके छोड़ एक ठो अउ जबर सवाल हे -

‘ये सबके निचोर कइसे निकाले जाय ?’


धर्मेन्द्र निर्मल 

9406096346

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