Sunday 5 March 2023

कृषि संस्कृति अउ छत्तीसगढ़ी"*

 *"कृषि संस्कृति अउ छत्तीसगढ़ी"*


               हमर छत्तीसगढ़ शुरू ले कृषि अउ ऋषि संस्कृति ले रचे-बसे हवय। इहाँ के 76 प्रतिशत लोगन मन कृषि अउ उँखर ले जुड़े उद्योग-धंधा मा सरलग काम करथे। धान के पैदावार सबले जादा होथे, ऐखर सेती छत्तीसगढ़ ल "धान के कटोरा" के नाव ले दुनिया भर प्रसिद्ध हे। सँगे-सँग इहाँ गहुँ, चना, कोदो, कुटकी, अरसी, मसूर, तीली, रहेर, पटवा, सरसों, सूरजमुखी, मटर अउ जोन्धरा के घलो खेती होथे। इहाँ के लोगन मन बर बारो महीना काम के कमी नइ रहय। छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति के अब दुनिया भर मा शोर होगे हवय। इहाँ के कृषि संस्कृति बड़ मनभावन हे। खेती-किसानी के बुता मा लगे पसीना के ओगरत ले कमईया किसान अउ उँखर सँग  छैहाँ सही कमेलिन किसानीन के जीवन-दर्शन मा बड़का ग्रंथ लिखा जाही। हमर पुरखा सियान मन कहे घलो हे- "खेत के बोय अउ कोठार के पाय।" खेती के काम मा घर भर के मनखे मन भीड़ें रहिथे, तभे किसानी के बुता ह पूरा होथे। जादा काम होय ले पारा-परोस के मन घलो एक-दूसर के खेत मा कमाये बर लगथे। अईसन सहयोग के भाव ले हमर कृषि संस्कृति मा उत्साह, प्रेम, भाईचारा अउ समरसता ह लबालब भरे हे।

               कृषि संस्कृति के अंतर्गत छत्तीसगढ़ के जम्मो तीज-तिहार, पूजा-पाठ, संस्कार, मड़ई-मेला, गीत-संगीत, नृत्य मन शामिल हवे। जेमा अकती, सवनाही, हरेली,भोजली, पोला, नारबोद, कमरछठ, इतवारी, देवारी, जेठोनी, मड़ई-मेला अउ छेरछेरा तिहार जईसन उत्सव मा कृषि संस्कृति समाहित हे। ये तीज-तिहार मा प्रकृति ले सीधा जुड़ाव हवय।

               छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति अब दिनों-दिन खुशहाल होवत जात हे। किसानी के कतको जुन्ना तरीका ह नन्दावत हे, त कतको नवा-नवा वैज्ञानिक तरीका ले कृषि के काम सरल अउ जल्दी घलो हो जात हे। कभू-कभू सरकारी सहयोग मिले ले किसान अउ किसानी काम ह घलो समृद्ध होवत हे। जिहाँ कभू पानी के साधन नइ रिहिस, निचट पथर्री अउ मुरमाहा रिहिस, उहाँ घलो आज पानी हाथ मा होय ले अब्बड़ उपज होवत हे। किसान अनाज के सँग भाजी-पाला बोके अपन घर बर अउ बेचे बर घलो पैदा करत हे।

            छत्तीसगढ़ मा ज्यादातर कृषि  काम ह अकती तिहार के दिन ले शुरुआत होथे। अउ सरलग नौ-दस महीना ले चलथे। येमा खरीब अउ रबी फसल दूनो होथे। अइसे तो कृषि काम ह साल भर घलो चलथे। फेर  किसानी के नवा बछर अकती तिहार ले सियान मन शुरुआत करत आवत हे। धान बोवाई ले मिंजई-कुटई तक अउ जिंकर खेत मा उन्हारी होथे उँखर बर चना-गहूँ के लुवात ले किसानी के बुता रथे। किसानी बुता बने रम के करे ले होथे। ठठ्ठा-दिल्लगी मा खेती नइ होय। एक ठन कहावत हे- "बो दे गहूँ चल दे कहूँ।" अईसन मा नइ बने।

             कृषि मा हमर पुरखा मन के दिये अब्बड़ संस्कृति के दर्शन होथे। इहि संस्कृति ह सब झन ल बाँध के रखे हे। किसानी के बुता ह हाड़ा-तोड़ई बुता आय। दिनभर कमात हाथ-गोठ थक के अल्लर पड़ जाथे। तब बीच-बीच मा आराम करे के सेती कई ठन तिहार मनाथे। इंखर ले फेर नवा बल बँधाके काम म जुट जाथे। तिहार-बार मानत, गीत-संगीत मा झूमत, करमा-ददरिया, कविता, कहानी-किस्सा, जनउला-चुटकुला ला सुनत कृषि के काम ह पूरा होथे। ये शोध आलेख मा छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति ल प्रस्तुत करे के प्रयास करत हों।

          अकती तिहार मा गाँव भर के मन मातादेवाला मा सकलाय रथे। नान्हे-नान्हे लइका मन ल प्रतीक स्वरूप बैला बनाके लकड़ी के नांगर धराय रथे। अउ गोल-भाँवर रेंगें बर कथे। एक झन बैला बने लइका मन ला खेदद जथे, अउ दूसर ह धान बोवत जथे, फेर तीसर आदमी ह उँखर मन मे पानी रुकोवत जाथे। ये गाँव के लइका मन मा कृषि संस्कृति के बीजारोपण करके कृषि काम ल उँखर जिंदगी सँग जोड़े के जतन आय। बाद मा बैगा के पूजा-पाठ करे के पीछू परसा पान के दोना में धान ल देथे। घर के सियान जब धान के दोना ल लाथे, तब घर के मुहाटी मा दाई-माई मन लोटा मा पानी ओइचथे अउ पाँव परके घर के भीतरी म लेजथे। अन्न के कतका मान-सम्मान होथे, ये छत्तीसगढ़ के संस्कृति मा देखे ल मिलथे। फेर उही धान ल खेत म लेज के एक कोन्टा मा बोय जाथे। जेला मुड़ सोरना घलो कहिथें।

           मानसून के आय के पहिली खेत के कांद-दूबी मन ला जम्मो रापा मा छोल डारथे। गरमी के मारे सबो कचरा मन अटिया जाथे। घुरवा के खातू-कचरा खेत भर बगर जाथे। आसाढ़ मा पानी गिरीस तहन किसान मन अपन खेत डहन ठऊंका धियान देथे। कतको झन बोथे त कतको मन परहा रख देथें। नहिते "डार ले चूके बेंदरा अउ बांवत ले चूके किसान" वाले किस्सा होथे। खेत मा किसान के अरर-ततत अउ महतारी मन के करमा-ददरिया के तान सुनाथे। लक्ष्मण मस्तुरिया अउ निर्मला ठाकुर के गीत रेडिया मा बाजे लगथे-


   "चल-चल गा किसान बोय चल धान, आसाढ़ आगे गा...

    जेठ बैसाख तपे भारी घाम, अकरस के नांगर पको डारे चाम,

    अब किड़कत बिजली ले ले तोर नाम, आसाढ़ आगे गा.."


             सबो के खेत मा छत्तीसगढ़ महतारी के हरियर लुगरा असन धान हा दिखे ला लगथे। बांवत के काम पूरा होथे, तब नांगर-जुड़ा के सँग सबो किसानी के औजार मन ला तरिया मा धोके घर के बीच दुवार मा पूजा करथे। बेल पान, चीला रोटी अउ नरियर चढ़ा के उँखर कृतज्ञ मानथे। जेला हरेली तिहार कहे जाथे। इहि दिन ले लइका मन बर गेड़ी बनाये के परंपरा हे।

            बियासी के बेरा चपचपहा पानी रहे ले बियासी अच्छा बनथे। बियासी के नांगर जब चलथे तब चारों कोती अरर-ततत के मीठ बोली ह गीता-रामायण बांचे असन लगथे। महतारी मन गीत गावत धान ल चाले के बुता करथे। कुंज बिहारी चौबे जी के गीत किसान के सजीव चित्रण करत बियासी बर सुरता आथे-


"पहिरे बर दू बीता के पागी जी,

पीये ला चोंगी, धरे ला आगी जी।।

खाये ला बासी, पिये ला पेज पसिया।

करे बर दिन-रात खेत मे तपसिया।

साधु जोगी ले बढ़के दरजा हे हमर,

चल मोर भइया बियासी के नांगर।।"


            इतवारी तिहार गाँव मा पाँच नहिते सात ठन माने जाथे। जेमा खेत मा चीला रोटी चढ़ाये के सुग्घर संस्कृति हवय। चीला रोटी, सेना आगी, पानी, हूम-धूप, अगरबत्ती धरके खेत जाथे अउ पूजा-पाठ करके चीला ला खेत मा चढ़ा देथे। अउ अन्न महाराज के अरजी-विनती करथे कि एसो मोर खेत मा बने उपज होके जम्मो कोठी-डोली हा भर जाय। महतारी मन खेत निंदत गीत, कहानी, किस्सा घलो सुनाथे। अईसन होय ले काम के थकासी दूर हो जाथे, अउ घातेच मजा घलो आथे। छत्तीसगढ़ के कवि डॉ. जीवन यदु "राही" जी के पुस्तक 'माई कोठी के धान' के ददरिया ल देखव-


              " बटकी मा बासी, कटोरिया मा नून।

            मैं गावत हौं ददरिया, तैं खड़े-खड़े सुन।।


             धान बाढ़े के बाद पोटराय के समय आथे तब गॉंव वाले अउ बैगा के सलाह ले गरभही तिहार घलो मनाथे। ये दिन कोनो आदमी खेत-खार नइ जावय। कहे जाथे कि इहि दिन अन्न महारानी ह गर्भ धारण करथे। तब खेत मा हलचल नइ होना चाही। एकांत के जरूरत होथे। हमर कृषि संस्कृति हर मनुष्य जीवन के कतिक तीर हवय। किसानी काम प्रकृति ले बिल्कुल जुड़े हवय।

                इहि समय पोरा के तिहार होथे। ये तिहार मा कृषि काम में सहयोग करईया बईला मन के पूजा होथे। बईला मन के कृतज्ञता के तिहार पोरा आय। इहि समे बहिनी मन ला तीजा घलो लानथे।मइके के बाँचे निंदई ला पूरा करे ल लगथे। फेर भाई मन बहिनी अउ भांची-भांचा मन बर बढ़िया कपड़ा-लत्ता देके खुशी मनाथे।पोरा तिहार बर एक ठन हाना हवय- "मानिन पोरा हेरीन मोरा।" मने पोरा तिहार के बाद पानी के गिरना कम हो जाथे, तब मोरा ओढ़े के जरूरत नइ पड़य।

         पोरा के बिहान दिन नारबोद तिहार होथे। जेमे खेत अउ बाड़ी में भेलवा, कर्रा के डारा ला खोचें जाथे। ये डारा मन के रस मन खेत मा मिल के फसल मन बर दवाई के काम करथे। डारा मा चिरई मन बैठते अउ फसल के कीरा-मकोरा मन ला खाके फसल के नुकसानी ले बचाथे। अईसने खेत के रखवाली मा उपयोगी होथे झाँका जेला कागभगोडा घलो कहिथे। जुन्ना कपड़ा, लकड़ी, डोरी, करसा ले येला बनाये जाथे। ये दुरिहा ले देखे मा आदमी सही दिखथे। येला खेत के बीच मा गड़ा देथे। चिरई-चिरगुन अउ जानवर मन येला देखथे अउ आदमी हवय कहिके फसल ला खाय बर नइ आय। एकरो ले फसल के नुकसानी ह बच जाथे। ये कृषि संस्कृति के बढ़िया चित्र आय।

           ये बढ़िया संस्कृति आय कि हमन जब कोई चीज ला ग्रहण करथन तब सबले पहिली देवता-धामी में चढ़ाये के संस्कार सियान मन देहे। धान के नवा फसल आथे तब सबसे पहिली देवता-धामी में फसल ला चढ़ाये के संस्कृति बने हे। बाद में नवाखाई तिहार मनाके प्रसाद के रूप मा ग्रहण करथे। नवा खाये के तिहार मा सबो परिवार एक जगह सकलाय रथे। ये कृषि संस्कृति में आज घलो चलत हवय।

               धान के लुवाई बेरा खेत जावत नवयुवती मन के रेंगई ल जनकवि कोदूराम 'दलित' अपन लेखनी के माध्यम ले किहिस-


"छन्नर-छन्नर पैरी बाजय, खन्नर-खन्नर चूरी।

हाँसत कुलकत मटकत रेंगय, बेलबेलहीन टूरी।।


                फसल के लुवाई हा एक-दू झन के बुता नोहे। येकर बर सबो परिवार अउ जादा काम रेहे ले आसपास के लोग मन एक-दूसर के खेत मा जाके लुये के काम ला करथे। गॉंव मा सहयोग के भाव, आपसी भाईचारा, प्रेम-व्यवहार बने हवय। इहि संस्कृति के जड़ आय। फसल के लुये के दिन जब गाँव मा सहयोग करे बर तियारथे। तब खेत मा परिवार के मन कइसे बुता करथे, जनकवि कोदूराम दलित जी के काव्य मा सजीव चित्रण होय हे-


   "दीदी लुवय धान खबाखब भांटो बांधय भारा।

     अउंहा-झउंहा बोहि-बोहि के लेजय भौजी ब्यारा।।

    लकर-धकर बपुरी लइकोरी समधिन हर घर जावय।

    चुकुर-चुकुर नान्हे बाबू ल दु-दु पिया के आवय।।"


          देवारी के दिन गाय के गला में सुहई बाँधे के रीत बने हे। परसा जड़, चिन्दी अउ मंजूर पांख ले बने सुहई गाय-गरुवा मन के स्वास्थ्य बर बने होथे। गोधन के पूजा के रिवाज पुरखा मन के समे ले चले आवत संस्कृति आय। घर के मन नया फसल के बने खीर-भात तो खाथे। उहें घर के गाय-गरुवा मन बर घलो नया चाँउर के खिचरी भात सँग रोटी अउ कांदा-कुम्हड़ा के साग बने रथे। उँखर खाय के बेरा प्रसाद के रूप मा निकाले खिचरी, भात अउ रोटी- साग मन ला घर भर के मन खाके आनंद पाथे। किसान जीवन मा पशु-प्रेम के अतका बड़े का उदाहरण हो सकथे। राउत भैया मन के दोहा मा कृषि संस्कृति के बढ़वार होय के सुग्घर कामना भरे रहिथे-


   " जैसे के मालिक! दैहौ-लेहौ, तैसे के देबो आसीस।

  अन्न धन्न तोर कोठा भरे भैया, जीयौ लाख बरिस।।"

            

             खेत के फसल ला भारा-भारा बँधाके कोठार तक पहुँचाये बर अब्बड़ जतन करे ल लगथे। फेर  मिंजे के पहिली कोठार में झाला बनाना अउ उहें सुते के कपड़ा-लत्ता, चाहा-पानी के सामान रखना शुरू होथे। सबो धान के मिंजात ले झाला हर किसान बर घर सही काम आथे। अंगेठा के आगी मा रात भर जागे-जागे सुतना अउ बिहनियां ले गाड़ी, बेलन, दौरी फाँदना कृषि संस्कृति के अंग हरे। येहा समय के सँग नंदावत जावत हे। मशीन के जमाना हर कृषि संस्कृति ला लीलत जात हे।

             कोठार के झरती मा झरती कोठार बढ़ोना खवाई ह गाँव मा आज घलो चलत हवे। जतीक झन कमाये ला लगे रथे, ओतिक ला खाना खवाना कृषि संस्कृति के उदारता के प्रतीक आय। बढ़ोना बाजार के दिन जादा करथे, जेकर ले साग-भाजी लेय बर सहूलियत होय। रोटी, बरा, खीर, भात-साग के सँग प्रेम से बइठ के खवाई के अलगे मजा हवे। बढ़ोना कमइया मन ला खुश करत उँखर मेहनत के मान-सम्मान करे के उदिम आय।

             झरती कोठार मा बेटी माई मन ला धान देय के घलो बढ़िया संस्कृति हवय। धान मिंजे के बाद सबो धन तो बेटा मन के हो जाथे। बेटी-माई किसानी काम मा नंगत के भीड़ें रहिथे। बेटा मन ले जादा काम बेटी मन करथे। बेटी ला पराया धन कहिथे, उँखर तो बाप घर के कहीं नई होय। अइसे सोच के झरती कोठार मा अपन शक्ति अनुसार कोठार धान देय के सुग्घर संस्कृति बने हे। झरती कोठार के दिन बेटी मन एक ठन नरियर कोठार के सीग मा रख देथे, फेर उँखर कोठार धान मिलना तय हो जाथे। कोठार धान ला जम्मो बहिनी मन पैसा भंजा के आपस में बांट के अब्बड़ खुश होथे।

           छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति सबले जादा उदार हवे। दुसर ला खवाय-पियाय अउ दान-धर्म करे बर सदा आघू रहिथे। इहि कारण तो इहाँ दान-पुन के परब छेरछेरा तिहार मनाये के सुग्घर रीत हवय। जेमा छेरछेरा मंगईया सबो झन अन्न के दान देथे। ये छत्तीसगढ़ के भुइयाँ के प्रताप आय कि इहाँ सब झन दूसर ला दान देय बर समर्थ हे। धान-पान के घर के कोठी-डोली में भराय के बाद कतको मँगईया घर-घर मांगें बर आथे। जेमे हरबोलवा, गोरखनाथ वाले चिकारा बावा, जय गंगा वाले, पीर बाबा, साँप वाले, दवाई ताबीज़ वाले, देवार मन, नांदिया बईला वाले अउ कतको आथे। इहि कारण कथे घलो- "छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया।"

           कृषि संस्कृति मा गॉंव के जरूरी काम वाले मन बर जेवर देय के व्यवस्था बने रथे। एमा साल भर बाद फसल के उपज अन्न धान, कोदो, कुटकी ला निर्धारित नाप मा देथे। नापे बर काठा, पईली मानक होथे। राऊत, नाई, लोहार, धोबी, मोची, कोटवार, बैगा अउ घर के नौकर-चाकर एमे शामिल हवय। छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति के यहू बड़का प्रमाण आय।

             मड़ई-मेला गाँव के सामाजिक समरसता के प्रतीक आय। येला गॉंव के वार्षिक उत्सव घलो कहि सकथन। कृषि संस्कृति के साल भर के कमई के बाद मिले उपज के खुशी मा उत्सव मनाय बर मड़ई-मेला के जन्म होय होही। मड़ई मा किसान मन अपन जरूरत के सबो सामान ला खरीद लेते। एमे दिल खोल के खर्च करे जाथे। अपन परिवार अउ सगा-सोधर मन ला नेवता देके बलाथे, अउ सबो मिल के ये उत्सव ला मनाथे। छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति के सबो तिहार मन आनंद ले भरे हे।

        

निष्कर्ष:-

         छत्तीसगढ़ राज कृषि संस्कृति के गढ़ आय। इहाँ कृषि काम के शुरुआत ले किसिम-किसिम के तिहार मनाये जाथे। जेमा कृषि संस्कृति के सजीव दर्शन होथे। इहाँ के सबो तिहार मा कहीं न कहीं संस्कृति समाये हे। अउ संस्कृति हा सोझे प्रकृति ले जुड़े हवय। किसान अउ कृषि संस्कृति छत्तीसगढ़ के मुख्य आधार आय। संस्कृति मन पुरखा के देय संस्कार हरे, जेमा ज्ञान, अनुभव के सँग आपसी प्रेम-व्यवहार, सहयोग, भाईचारा अउ समरसता कूट-कूट के भरे हे।  कृषि संस्कृति ग्रामीण जन-जीवन के प्राण शक्ति हरे। येकर बिना जीवन सुना अउ नीरस हो जहि। अब के मशीनरी समे में कृषि संस्कृति के कतको नेंग ह नंदावत हवय। संस्कृति सब झन जोड़े के काम आय। अब सब लोगन सामाजिकता ले दुरिहाय सही करत रथे। दिनो-दिन संस्कृति हा पीछू छूटत हे। छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति ला बनाये रखे बर येला अपन व्यवहार में लाना जरूरी प्रयास होही। छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति छत्तीसगढ़ के रहवईया जम्मो मनखे ल पुरखा ले मिले विरासत आय। इहि कृषि संस्कृति हर छत्तीसगढ़ के सबो संस्कृति के जड़ हरे। छत्तीसगढ़ के जम्मो मनखे ल कृषि संस्कृति ह जोड़ के रखे हे।


हेमलाल सहारे

मोहगाँव(छुरिया) राजनांदगाँव

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