Friday 31 March 2023

छत्तीसगढ़ी कहानी -श्रद्धा

 छत्तीसगढ़ी कहानी -श्रद्धा

बिहिनिया -बिहिनिया जुन्ना पेपर ल लहुटा - पहुटा के चाँटत - बाँचत बिसाल खुरसी म बइठे हे। आजे काल साहर ले आए हे गाँव म। जादा खेती खार तो नइ हे फेर अतेक मरहा तको नइहे। ददा साहर में नौकरी करत रिहिस हे। अपनो ह पढ़ई करत -करत इस्कूल के साहेब होगे हे। आना जाना लगे रहीथे। 

“जय शंकर भोले।”

बिसाल दुवारी कोति ल मुड़ के देखथे। चुकचुक ले गोरिया, ऊँचपुर, छरहरा बदन के मनखे दुवारी म ठाढ़े हे। चक्क सुफेद धोती झकझक ले झोलझोलहा कुरता, देखे म मलमल अस कोवँर। टोटा म छाती के खाल्हे के आवत ले ओरमे रूद्राक्ष के माला। माथा म छोटकुन कुँहकु के टीका। बगल म कपड़ा के बेग ओरमे हे। बिसाल देखते साठ समझगे कोनो बाहरी पंडा हरे। 

कहिस - बइठौ महाराज ! कहाँ ले आए हव ? 

अइसे तो हमन रूद्रपुर ले आए हन बिसाल भाई - महराज अपन खाँध म टँंगाए - ओरमे कपड़ा के बेग ल सोझियावत कइथे। 

“बिसाल भाई” 

अपन नाम सुनके बिसाल एक घाँव चकरित होगे- अरे ! मोर नाम महराज कइसे.............। बिसाल सोचते हे।

महराज आगू कहिथे - ठहिरे खम्हरिया म हवन, तीर - तखार ल साइकिल म घूम लेथन। 

“हूं ऽऽ...ऽऽ.... कब के आए हौ  ?” 

बस चारे पाँच दिन होवत हे - महराज चट्ट ले उत्तर दीस। आगू कहिथे- पूस के महिना म रौनिया के आनन्दे अलग होथे न।

तभो ले तो जी नई जुड़ावय महराज ! पूस, फूसे फूस ताय- काहत बिसाल अकर -जकर देखे लागिस - कोनो हावय ते सेर चाँऊर देवय। मन के बात गड़रिया जानय, बारा घाट के पानी पीये महराज फट बिसाल के हावभाव ल समझगे। 

’बात ये हे बिसाल भाई’ बीच्चे म महराज ल टोंकत कहिथे - हमन हरेक साल इही समे म भगवान रूद्रदेव के मंदिर ले जम्मो दिशा म निकलथन अउ देशभर म घूम घूमके भगवान रूद्रदेव के अभिशेक खातिर आदेश लेथन। बिसाल कभू हूँ ... हाँ काहय त कभू मूड़ी ल हला देवय। महराज के गोठ घोड़ा म सवार होइस ते रूके के नाम नई लेवय। बिसाल ह महराज के मुँह ल देखतेच रहीगे। महराज हँ बेग के चैन ल ‘चर्र’ के खोल दीस। एक ठन कापी, पींयर पींयर किताब अउ पेन निकाल डरिस। गोठ के संगे -संग महराज हँ पोथी -पतरा ल घला लमा डारिस। 

कहिथे - हमर संस्थान म पूजा - पाठ, हवन - अभिशेक पूरा बिधि -बिधान से होथे फेर श्रध्दालु भाई मन के सहुलियत खातिर समान्य अउ बिशेश दूनो प्रकार के अभिशेक करथन। 

सुनके बिसाल मुसकुराए बिगर नइ रहे सकिस। बामहन देवता थोरके चुप रहिस ताहेन फेर चालू। एक्सप्रेस फेल होगे। तैं डार - डार त हम पान पान। महराज रसीद बुक ल खोल डरिस -ए देखव ! बाजू वाले गाँव उसलापुरिहा दाऊ हँ महारूद्राभिशेक के आर्डर दे हावय।

 ’वो सब तो ठीक हे महराज ! फेर हमन अभीन अभिशेक-उभिशेक नई करावत हन।’ 

महराज सोचे लागिस पासा हा उल्टा परगे का ?

 बिसाल रूके -रूके कस आगू कहिस - ’अऊ जिहाँ तक मोर खियाल हे दीन-हीन के सेवा ले जबर दीगर -धरम, दान -पुन अउ कोनो नइहे।’ 

महराज एक गोड़ के माड़ी ऊपर दूसर गोड़ के पाँव ल मढ़ाये बइठे हवय। पँवतरी ल सहिलावत कहिथे - ’बिसाल भाई , वो सब तो आत्मा के शांति खातिर होथे, संसार के दुख - पीरा ले छुटकारा काकर ले मिलथे ? घर मे सुख-समृध्दि धन-मान कहाँ ले आथे ? एहू ल तो सोचॅव। 

बिसाल सोच के धार म बोहाय लगिस। कोनो ल बुरा लगय अइसन कभू केहे हे, न करे हे। दुवार म आय बामहन देवता ल खाली हाथ कइसे लहुटावंवँ ? माटी के महक पानी के सुभाव अउ हवा के रंग ल कोनो अलग नई कर सकय। नस -नस म दया -धरम आदर अउ सम्मान, मीठ बोली अउ संस्कार छत्तीसगढ़ के पहिचान हरे, बैरी ल घला ऊँच पीढ़वा देहे के इहेंच रिवाज हे। जेने अइस तेकरे कटोरा ल भरिस, भले अपन लांँघन भूखे रही जावय। फोकट में धान के कटोरा नई कहाय हे छत्तीसगढ़ हँ। अइसे -तइसे महराज अपन रसीद बुक ल खोल डारिस । ऊप्पर म क्रमांक डार के श्रीमान लगाके बिसाल के नाम लिखे के पीछू पूछथे - 

बाबू जी के का नाम हे ? 

श्री बेद राम। 

जाति म धोबी लिखागे, महराज हँ तो गाँव म घुसरे के पहिली सब्बो ल पता कर डारे रहय। गोत्र के संगे -संग परिवार के जम्मो सदस्य मन के नाम ल सरलग पूछ -पूछ के लिखे लागिस। 

महराज - ’कतेक वाला करना हे भाई साहब’ ?

बिसाल - ‘अब अतेक जोजियावत हव त एक सौ इनक्यावन रूपया वाला करवा लेथवँ महराज, अइसे तो.............।’ 

अतका म महराज के मन नई माड़िस, कहिस - अतेक दुरिहा ले आए हन। सिरिफ तुँहर श्रद्धा अउ ऊपरवाले के कृपा ....अउ तुमन .....! 

बिसाल थोरिक सकुचागे। गाय कतको मरखण्डी रहय दूहे बर राउते जानथे - ले भई तीन सौ इनकावन लिख ले फेर ऽऽ...ऽऽ... ”।

 ’ अँ.....हँ....हाँ मै कहाँ अभी पइसा मागथौं। बिसाल के गोठ ल पूरा नइ होवन दिस। महराज हँ ओला फुग्गा कस फूलो के हरू कर दिस - ’ अभी तो नाम लिख के जाथौं। तुँहर परिवार के नाम से उहाँ रूद्राभिषेक होही। जब हमार आगमन दुबारा होही, हम तुँहर परिवार बर प्रसाद स्वरूप कुछु लाबोन तब आप पइसा देहू - अभी नहीं।’ 

बिदा करे के पहिली आधा डर आधा बल करत बिसाल ह पूछथे - ’चाहा चलही महराज ?

’अंधरा खोजय दू आँखी’।

महराज खुश होगे - ’जिहाँ प्रेम हे उहाँ परमेश्वर हे बिसाल भाई, हिरदे मिलगे तिहाँ का के भेदभाव ? 

चाहा पीके महराज चलते बनिस।

बिसाल शहर के रद्दा धर लीस। नेकी कर दरिया में डार। बिसाल धीरे -धीरे सब बिसर गे। चार महिना बीतगे। दू दिन के छुट्टी परे म फेर ओकर गाँव आना होइस। एक दिन बिसाल ठऊँका खाये बर बइठत रहय। आचमन करके भोग भर लगाये रिहिस हे, के ठुक ले महराज पहुँच गे। बिसाल जेवन छोड़ के उठत रिहिस हे -“ नहीं, नहीं बिसाल भाई ! तुमन शांति से भोजन करव, अइसन करना ह अन्न के अपमान होथे। फिकर झन कर, मैं बइठ के अगोर लेथँव। मोर बूतच का हे, ओसरी-पारी ये दुवारी ले वो दुवारी।” 

बिसाल ह महराज के बात ल नई काट सकिस। महराज हँ बिसाल के खावत ले ओकर सुवारी ममता ले कटोरी मँगाके दू - तीन किसम के माला, नान -नान पुड़िया अउ प्रसाद निकालके रख डरिस। बिसाल पाँव परके के एक तीर खुरसी म बइठ गे। महराज एक -एक करके बिसाल ल देखाथे - ये तुलसी माला, महाप्रसाद, भोज पत्र काहत लइका मन बर छोटे -छोटे माला, सुहागिन मन बर कुँहकु, बंदन, चंदन के पुड़िया कटोरी म रखके बिसाल ल समझाथे - ये स्फटिक ए, विशेष आप के लिये। येहाँ रूद्राभिषेक के संगे -संग पवित्र अउ स्थापित होगे हे। आप ल केवल शनिच्चर के दिन नहा -धोके उदबत्ती जला के धारण करना हे बस।’

महराज जब दुबारा अइगे, पूजा -प्रसाद ल सउँप दिस तब अउ का नेंग रहिगे, -भइगे बिदागरी ! बिसाल बिना कुछु कहे कुरिया म गइस अउ लाके चार सौ रूपिया महराज के हाथ म समरपित करके पाँव ल छू लिस -

 “कल्याणम् अस्तु।” 

शनिच्चर के दिन बड़े फजर बिसाल नहा - धोके उदबत्ती जलाइस अउ महराज के दिए समान के कटोरी ल धुँगिया देखाइस। स्फटिक के माला ल निकालके अपन घेंच म अरो लिस। एक अजीब आत्मिक आनंद बिसाल के हिरदे म खलबलाय लगिस। बिसाल ल सरग के सुख के अनभो होय लगिस।

रतिहा बिसाल सुते के पहिली माला टूटय झन सोंचके निकालिस अउ खटिया के खुरा म ओरमाए लगिस। बिसाल कहूँ सुने रहय कि स्फटिक के माला हँ आपस म रगड़ाथे त ओमाले चिनगारी फूटथे। 

सोचिस - रगड़के देखवँ का ? 

ओकर आत्मा धिक्कारथे ‘‘-च्च .....च्च..! अतेक बड़ शंका’’ उहू हँ धरम के काम म ? महराज के दिए परसादी के परीक्षा, घोर पाप होही अउ कुछू नहीं। 

कलथी मार के बिसाल सुते के बहाना खोजे लगिस। जी अकुलागे । नींद नइ अमराइस। एक सोच के झकोरा बिसाल के मइन्ता ल झकझोरे लागिस। गलत तो नइ करत हौं, चिनगारी कइसना होथे तेला तो देख सकत हौं। उठके बइठ गे । माला ल दूनों हथेरी के बीच म रखिस अउ रगड़े लगिस । अंधियारी रात, आँखी ल बटबटले ले नटेरे बिसाल टकटकी लगाए देखत - एक दू....तीन....रगड़त हे -खर्र, खर्र, खर्र। 

    बिसाल के बिसाल हिरदे ले श्रध्दा ह ‘सर्र ‘के महराज बर गारी बनके निकल गे फेर फटीक के माला ले चिनगारी नइ निकलिस।

धर्मेन्द्र निर्मल

कुरूद भिलाई जिला दुर्ग 

9406096346

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