Thursday 18 August 2022

व्यंग्य साहित्यकार के गठबंधन- साहित्य के गोल्लर

 व्यंग्य  साहित्यकार के गठबंधन- साहित्य के गोल्लर


साहित्यकार माने अल्लार अल्लर, कामचोट्टा नम्बर एक। जनम के कोढ़िहा। जेकर कमाए -धमाए बर गतर नइ चलय। फालतू बइठ -घोलन्डके, फोकटइहा घूम- फिरके, बिन मतलब रो- गाके कलम टोरे बर जानथे तेने हँ कलमकार होथे। ये हँ तइहा जुग के बात हरे। तइहा के ल बइहा लेगे। अब नँदा गे। अब तो गठबंधन के जुग आ गे। 


पहिली कलमकारमन रात -रात भर घुघुवा, राक्षस अउ माँसाहारी जंगली जिनावर कस जागय। दिन -दिन भर पगला-बइहा अउ बैसुरहा मन बरोबर लाँघन -भूखे घूमत रहय। बइहा बरन मुड़ी-कान ल खजुवावत सोंच -सोंचके लिखय। तब जाके उन्कर रचना म जान आवय। 


अइसने -अइसने दू चार ठिन रचना सकेला जय अउ लिखइया रात जगई, लाँघन रहई अउ मरे -जिये सोंचई -गुनई म रोगहा होके मर जावय, तब लोगन ओला अउ ओकर रचना ल जानय- सुनय। मनई -गुनई तो गजब दुरिया के बात हरे। 


जिहाँ सरसती राहय उहाँ लक्ष्मी नहीं, जिहाँ लक्ष्मी जावय तिहाँ सरसती नहीं। अब वोइसन बात नइ रहि गे। अब तो सरसती अउ लक्ष्मी म गठबंधन हो गे हावय। जिहाँ सरसती जाथे पीछू -पीछू लक्ष्मी घलो आ जथे। आ जथे का ? सरसती खुदे जुगाड़ भिड़ा़ डारथे। कभू -कभू तो लक्ष्मी खुदे नेवता कारड अउ लिफाफा धरके पहुँच जथे सरसती घर। 


माने कवि, कलाकार घलो कमाए बर सीख गे हे। अब के साहित्यकार म कुछु दम राहय चाहे झन राहय, जोगाड़- प्रचार पहिली देखथे। प्रकासक खोज लेथे जेन ओकर किताब ल छापय-बेचय अउ संगे-संग बिज्ञापन तको करय। 


किताब ल पढ़बे त का रइथे। खोदबे पहाड़, निकलथे छुछु। मुसुवा घलो नहीं। 

हमर बबा अइसे करिस। ककामन अइसे रहिन। ददा अइसे हावय। भाई मन अइसे। अब सवाल ये पइदा होथे के, तैं हँ का करे हस अउ कइसन हस ? 


साहित्यकार मन बड़ चंट, चतुरा अउ चोखू होथे। उन गोठ-बात म अपन महान समे के गर ल मुरसेटना नइ चाहय। उन सबके जुवाब अपन कलम अउ करम ले देथे। कलम के भाखा ल ही उन दमदार मानथे। 

‘हम नहीं हमर करम बोलथे’ के स्टाइल म उन्कर करम ये बयान देथे- ‘भइगे, नेता मन के गोड़ धर गुन -गाके पुरूस्कार के जोगाड़ कर लेथवँ। फोकट म किताब छप जथे। मूर के बियाज अउ बियाजो के बियाज।’ 


‘छींक आथे त मंतरी -संतरी फोन करके पूछथे - ‘बीमार हवस का ?’

अस्पताल म भरती होथौं त मंतरी अपन एसो -अराम ल कोन्टा म बोज-सकेल- तिरियाके अस्पताल दऊँड़ जथे। इही बहाना अस्पताल के निरीक्षण हो जथे। ये हँ का नानमून बात ये ?’


अब येकर कारन सुन ! कारन - मोर गीत उन्कर बर बोट बटोरथे त उन्कर गोठ मोर बर नोट छापथे। गठबंधन के गनित अइसने बइठारे जाथे। गुन गाए म गुनी कहाए लगथौं, पाँव परे म परिवार का पूरा पुरखा तरत हे। पनही पालिस करे म जिनगी चमके जात हे। येकर ले पोठ, बड़का अउ ठाहिल का हो सकथे ?’ 


अब कहुँ कहिबे -‘कवि, कलमकार मन तो स्वाभिमानी होथौ का गा ?’

‘अरे ! टार तोर स्वाभिमान के मुख ल। स्वाभिमान के गोठ हँ सिरिफ मंच अउ किताब भर म सोभा देथे। जिहाँ पेट के बात आथे स्वाभिमान फूटे आँखी नइ सुहावय। स्वाभिमान अउ सम्माने भर म पेट भर जाही का ? तुमन टोंम- टोंम ले पेट भरहा खावव, पगुरावव अउ मसमोटी मारव। हमन बोट -बोट देखत रहन ?’ 


अइसने एक झन कलमकार रद्दा म उदुपहा अभर गे। एक ठिन जुन्ना पेपर म वोकर चुटकुला छपे राहय। उही जुन्ना पेपर ल धरके पान ठेला म पहुँच गे। वोह ठेला पहुँच मीठा पत्ती के मीठ पान बनवाके मुँह भर हुरेस -बोज डरिस। 


चोंच हँ चुकचुक ले लाल हो गे। तब रेंगे के बेरा कहिथे - ‘येदे ! ये पेपर म मोर लिखे कहिनी छपे हे। पढे़ के लइक तो नइ हे। फेर पान -तमाखू बाँधे बर तो पेपर लागथे। पढे़ के पीछू इही ल चीर के बाँध लेबे। बाहिर ले पेपर काबर लेबे ? तोर पान मोर पेपर, गणित बरोबर बइठ गे न ?’ 

ठेलावाले गुरेर के कलमकार ल देखिस। वोकर लाल -लाल आँखी ल देखके कलमकार के लाल -लाल लार हँ मुँह के कोन्टा ले दाढी के आवत ले बोहा गे। ठेलावाले कहिस-‘मैं हँ तो रोज पेपर मँगवाथवँ। समाचारो पढ़ लेथौं। उही म पान -तमाखू घलो बाँध लेथवँ। एक तीर दू निसाना हो जथे। ये तोर कहिनी- वहिनी ल अपन झोला म रख। मोला पइसा चाही।’

कलमकार के मुँह कोचरके कुंदरू कस तुत्त-ले हो गे। पान के चमनबहार मिले जम्मो कतरी अउ मसाला मन करेला कस चानी करूवा गे। 


कलमकार जम्मो पान ल उलग डरिस-‘चूना ल कइसन भर दे हस। मुँह भर ल चर डारिस। अउ उरमाल म मुँहु ल पोंछत अपन ऐब ल तोपत - छुपावत कहिथे : हाँसी -ठटठा करत रहेवँ बईहा। तहूँ थोरिक बात म गुसिया गेस।’


अतका कहि पान के पइसा दे साहित्यकार सुटक लिस। तैं नही दूसर पार्टी सही। ये हँ तो गठबंधन के जुग ये।


अइसने एक बेर साहित्य सम्मान देना राहय। चयन समिति के टेबल म एक ले बढ़के एक कविता- कहिनी बिलबिलावत -बेलबेलावत राहय। समिति के सदस्यमन अपन -अपन आदमी के चिट धरे उन्कर कविता -कहिनी ल निकाल -निकालके एक दूसर ल देखावत रहय। सब के सब दूसर के नाम काटके अपन आदमी ल बढ़ाए के चक्कर चोंगी उड़ावत गुमताड़ा लगावत रहय। बात अतेक बाढ़ गे के सदस्ये मन अपने -अपन चूँदी- मुड़ी ल चीथ -चीथके लडे़-झगड़े अउ हुदेले-हुमेले लगिन। हार खाके समिति ल भंगलाए बर पर गे।

 

ओतके बेरा एती मंत्री बंगला म एक झन गँवखरहा हाना जोरईया पहुँच गे। मंत्री ल कहिथे -

‘साहेब ! ये बछर के साहित्य पुरूस्कार मोला मिलना चाही।’

मंत्री जब साहित्यकार ले वोकर रचना के बारे म पूछिस। साहित्कार नाक ल उँच करके फुटहा पोंगा कस भनभनावत सुनाए लगिस-

अटकन बटकन दही चटाकन, 

लउवा लाटा बन म काटा, 

बोटिंग म हम बोट देवाएन, 

पेटी -पेटी दारू बाँटेन, 

बिरोधी के छक्का छूट गे, 

हमर नेता जीत गे। 

नेता खुस्स। दाँत ल खबखब -ले निकालके हाँसिस। ओकर पीठ ल ठांकिस-‘का कमाल के लिखे हस। पुरूस्कार तो तुँही ल मिलना चाही। कवि इनाम के सपना ल भीतरे- भीतर चिचोरत घर आ गे।’

 

ओकर निकले के पीछू दूसर कवि पहुँच गे। मंतरी ल सलाम ठोंक के कहिथे-

‘मैं हँ अपन एके ठन चुटकुला ल हरेक मंच म कविता बरोबर बोलथौं अउ हँसा -हँसाके तारी सकेलथौं। एक ले दूसर कभू नइ पढ़वँ।’

मंतरी पूछे - ‘अइसे काबर ?’

‘जिनगी म एक ले दू लिखेच नइ सके हौं। काला पढ़हूँ ? तभो ले मैं पुरूस्कार के दावेदार हौं।’ 

मंतरी कहिस - ‘अरे ! यार, ओकर चयन तो हो गे।’ 


साहित्यकार ‘फट्ट-ले’ मंतरी के गोड़ ल धर लिस-‘चयन होके रिजेक्ट होना हमर देश के संस्कृति अउ तुँहर डेरी हाथ के काम ये महराज।’ 

मंतरी सोच म पर गे- ‘पहिली तैं मोर गोड़ ल तो छोड़। चुनाव करे बर समिति बइठे हे। उहाँ मोर का चलना हे ? चलतिस त कुछु करतेवँ-धरतेवँ।’ 


कवि देखिस अरे ! दार हँ चुरत- गलत नइ हे। उँहूँ.....फार्मूला बदले जाए। मंतरी के गोड़ ल छोडके ‘सट्ट-ले’ खड़ा हो गे। अपन खाँध म रखे गमछा ल घेंच म फाँद लिस अउ कहिस- 

‘देख नेता जी ! तैं मोर सिधई ल देखे हस। नंगई ल नइ देखे हस। अतेक बेर ले बिनती करत रहेव, त तैं मोला निच्चट लल्लू राम समझ गेस। सहीं म सिधई के जमाना नई हे।’

नेता बोकबाय देखे लगिस - अरे ! ये बइहा का करथे।

ओतके म कवि आगू कहिस- ‘सुन ! पुरूस्कार कहुँ नइ मिलिस न, त मैं तोर डेरौठी म फाँसी लगा के मर जहूँ।’ 


कवि के गोठ सुनके मंतरी के आँखी छितरिया गे। हाथ -गोड़ ल तनिया दिस। ‘स्साले ! जउँहर हो गे यार ! अब तो करेच ल परही।’ 

करही कइसे नहीं - नंगरा देख लँगुरवा भागे। 

मंतरी सोचे असन कहिथे - ‘पुरूस्कार तो देवा देहूँ ! फे....र .....सदस्यमन ल पटाए बर लगही। अइसे करथन, दस उन्कर पन्दरा मोर। का बोलथस ?’


कवि फेर गोड़ ल धर लिस - ‘बीसे के जुगाड़ हे। अतके म गनित बइठारे बर परही। कहत खिसा ले निकालके ओकर गोड़ म रख दिस।’ 

कहिस -‘बने फरिहाके गिन ले।’ 

भागत भूत के लंगोटी सही। 


मंतरी कहिथे - ‘दान के बछिया के दाँत नइ गिने जाय। जा, तोर काम हो गे।........ अउ सुन, चुनाव म देखे रहिबे।’ 

कवि चरणदास अपन चारण कविता ल पोटारे ‘हौ-हौ’ काहत मेंछरावत खिसक लिस।

गठबंधन तो होगे हे।

परिणाम जऊन आही तऊन आही। वोकर बर समिति बइठे हे।

मंतरी चार ठो बदाम अउ कुछ काजू कुतर लिस अउ तनियाके सुतगे। 


धर्मेन्द्र निर्मल 

मो. 9406096346

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