मया के डोरी , महतारी के लोरी
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' लोरी ' हर वाचिक परम्परा के गीत आय जेला लोकगीत के रुप मं प्रतिष्ठा मिले हे काबर के छत्तीसगढ़ भर नहीं संसार के पहिली महतारी हर जब अपन लइका ल भुलवारे बर , सुताये बर जौन किसिम ले गुनगुनाए रहिस होही उही हर पहिली लोरी रहिस होही फेर हमन तीर लिखित इतिहास तो है नहीं । हमर दाई , बूढ़ी दाई मन सो सुने लोरी अउ आजकाल के लिखे लोरी मन के चिटिक सुरता कर लेईन ...।
छोटकुन लइका ल तेल चुपरत गावत हे कोनो महतारी ....
" चाकी चाकी लोहरा , तेल ठोंके पोहरा ,
तेल कस चिकनाई , घानी कस मोटाई ।
तेल जावै कोरे कोर , लइका बाढ़य पोरे पोर ।
नोनी / बाबू बाढ़य पोरे पोर .....।
लइकन ल नहवाये के पहिली तेल मालिस करथें तभे तो लइका पोट्ठ होही फेर लइका तो रोबे करही त ओला भुलवारे बर जौन गीत गाए जाथे उही हर तो लोरी कहाथे । लइकन ल नहवा -खोरा के दूध पिया के सुताये के बेरा हो जाथे फेर लइका तो आंखी मूंदे बर तियारे नइ होवयं , रोथें , रिरियाथें त उनला थपकत थपकत महतारी गुनगुनाए लगथे .....
" धीरे बाने आबे निंदिया ,
हांथ बाजै झन गोड़ ।
सोवत बाढ़यै मोर दुलरुआ
देहें कान होवै पोठ । "
लइकन चिटिक अउ बाढ़थें त ओकर बर झुलिया डारे बर परथे , झुलिया झूलत लइकन सुत जाथें ...महतारी काय गावत हे चिटिक सुनिन तो ....
" चंदन के पलना , रेशम के डोरी ,
झुलना झुलावत हे नंद के रानी
सोए हे बाल गोपाल ।
पंइया परय मैया , देवी देवता के ,
आ जा निनी दाई , आ जा न ओ ..।
जुग जुग जियय नंदलाल
कोनो कोनो डहर इही लोरी ल एरकम भी गाए जाथे ......
" चंदन के पलना झुलावै नंदरानी
सोये हे बाल गोपाल ।
पंइयां परत हे महादेव के
जुग जुग जियय नंदलाल ....
आ जा निनी दाई आ जा ना ओ ...। "
मुंहखरा लोरी तो आय ते पाय के शब्द मन थोरिक एती तेती हो जाथें फेर भाव तो एके च आय के लइका निभुर सुत जावय । दुलरुआ के आंखी मं परी दाई सपना आंज देवय । इही मया ल तो हिंदी साहित्य मं सूरदास के सेतिर वात्सल्य नांव मिलिस अउ दसवां रस के आसन मिलिस ।
गोंगइया छोड़ के लइका डगमग डगमग पांव धरत रेंगे लगिस , नान नान गोड़ दौड़े सीख गिस त अंगना छोड़ के खोर- गली मं खेले कूदे धर लिहिस , थक जाथे फेर आंखी मूंद के थिराये नइ चाहय ओला नाना उदिम करके सुताये बर महतारी गाये लगथे ...
" धरती अकास मं बगरे चंदनिया ,
सोवा पर गे हे रात
दाई ददा के रतन बेटा ।
सुन सुन मोर बात
सुत जा राजा बाबू ( बेटा ) सुत जा ना ..।
बिरबिट कारी रात अंधियारी
सुन्ना पर गे हे कोला बारी ।
चिटिक थिरा के मूंद ले आंखी
रात के होथे नींद के पारी
सुत जा राजा बाबू सुत जा ना ...। "
महतारी के हलकनी देखव लइका तो कुछु खाए बर तियार नइये , नइ खाए के नौ ठन ओढ़र ..। नहीं निदान महतारी फेर गुनगुना के भुलवारे लगिस ...गुप्प ले कौंरा मुंह मं भर दिस ...।
" चंदा ममा तरी आ , मोर घर उतरी जा
दार भात सुट ले , मोर बेटा गुट ले ...। "
शिष्ट साहित्य के विकास के संगे संग कवि मन लोरी लिखे बर शुरु करिन हें जेहर सहराये लाइक बात आय । मुकुंद कौशल लिखे हें ...." तरिया ले पानी भर लानौ बाबू , फेर तोला झूला झुलाहौ ना ... "
झुलना झुलाए के ओढ़र मं महतारी अपन दुलौरिन बेटी ल चिरई- चुरगुन , रूख- राई , फल- फूल के चिन्हारी करावत गाये लगथे .....
" झूल झुलना ओ बेटी , झूल झुलना ।
आनी बानी के फूल फूले हे ,
अंगना अउ दुवरिया ।
झूल झुलना ओ ननिया , झूल झुलना .।
कोइली बइठे अमुवा के डारी
मैना रानी बइठे लिमुवा ।
सुवा बइठे बीही के रूख मं
पंड़की बइठे हे पिपरवा ।
झूल झुलना ओ बेटी झूल झुलना ...।
लिखइया .... वसंती वर्मा
पीरा ले जनमे हीरा के महतारी पुरवाही के बिनती करत हे ...हर- हर ,हर - हर झन बोहाबे पुरवाही मोर लइका लटपट आंखी मूंदिस हे , जाग जाही मोर बिनती ल सुन ...
" सोवत हे मोर ललना , पुरवाही धीरे बह ना
तोर आये ले डोलय डारा पाना , ललना उठ जाही मान मोर कहना ।
झरर झरर झन बह ना पुरवाही ....। "
लिखइया ...रामेश्वर शर्मा
संसार के काव्य साहित्य मं गीत विधा के श्री गणेश लोरी से ही होए रहिस काबर के सबले पहिली मया के डोरी महतारी अउ लइका च के बीच मं तो बंधाथे । आज के मशीनी युग मं जिहां लइकन बाजारवादी , उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच बाढ़त पौढ़त हें उनमन ल लोरी के सुरता कराना जरुरी हो गए हे । सबले जुन्ना , सबले मजबूत डोरी होथे महतारी के लोरी ।
सरला शर्मा
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