Monday, 16 June 2025

लघुकथा) ससुरार

 (लघुकथा)


ससुरार

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ममा गाँव जाये बर तइयार होके जइसे फटफटी ला गली मा निकाले पाये रहेंव ठक ले एक झन रिश्ता मा जीजा मिलगे। मोला देखिच तहाँ ले मुस्कावत बोलिच--

" बन ठन के कहाँ ससुरार जावत हच का जी?" 

 "ससुरार के नाम मत ले जीजा "-- मैं कहेंव।

 "वाह! ससुरार के नाम काबर नहीं-- ससुरार हा तो हम दमाँद मन बर तीरथ धाम बरोबर होथे जी।"

"होवत होही ककरो बर।मोर बर नोहय।मैं तो उहाँ जाबे नइ करवँ।"

"अइसे काबर?"

"मोर ससुर ले रार होगे हे।"

"का के सेती?"

" देख ना जीजा मोर बाई ला डिलीवरी बर अस्पताल में भर्ती करे रहेंव। चालीस-पचास हजार रुपिया लगगे। ससुर हा आवय --देखय तहाँ ले मीठ मीठ सुल्हार के चल देवय फेर पाँच पइसा के सहायता नइ करिस।"

"अच्छा ये बात हे।वो भला काबर रुपिया पइसा देही। बाई तोर,बच्चा तोर- जिम्मेदारी तोर।"

"वाह मोर बाई हा वोकर बेटी आय ना "- बोल के रेंग देंव।


चोवा राम वर्मा 'बादल '

हथबंद,छत्तीसगढ़

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