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*नावा -जुन्ना*
*(छत्तीसगढ़ी लघुकथा)*
बेटा ! प्रकृति हर बड़ समझदार ये।देख न ,वोहर रुख मन ले सबो जुन्ना पाना मन ल झार दिस न।अब वो जुन्ना पाना मन के जगहा म नावा पाना मन आहीं।
बिल्कुल ददा ! प्रकृति हर निच्चट समझदार ये।अउ हमु मन ल,वोकर अनुशरण करना चाही। देख न मंय तोर देय जम्मो जुन्ना नोट मन ल झर्रा देय हंव।अब तँय प्रकृति महतारी के गोठ ल मानत मोर हाथ म गोंछा भर के नावा नावा नोट मन ल देबे...
बेटा के गोठ पुर नई पाय रहिस फेर बाप हर अपन दार्शनिक बेटा के मुख ल बड़ गहिल ढंग ले देखे के शुरू जरूर कर देय रहिस।
*रामनाथ साहू*
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