लघु कथा - सोन के अँड़वा
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ए दई मनिहारी दुकान वाला मन आनी - बानी के जिनिस धरे लानथे | अउ घरी- घरी सबो जिनिस ल अलग करके पसरा लगाथें | नान्हे प्रहलाद ह दादू के खंधइया म चढ़ के हटरी गे रहय तव देखे रहय|अपन घर म खेलत - खेलत कहत हे|
दादू हमर बर दू ठन खिलौना लानथे| तेहू ल बिसर डरथन | काय खाके मनिहारी वाला मन आथें के उँकर कोनो समान हर नइ बुले |, नाती प्रहलाद अपन ककादाई ल कहीस|
तव दई कथे नही हीरू समे हर सबो जिनिस ल सरेखे बर सबे मनखे ल सीखा देथे| तोर बाप घलो ननपन म खेले के जिनिस ल गँवा डरय तहन दिन भर खोजत रहय| रोवत रहय, तव तोर दादू च हर फेर खेलवना गढ़ देवय|
तव नइ बेटा हीरू तोर काय खिलौना बिसर डरे हच |
नान्हे प्रहलाद ल दई मया म हीरू कहय| तव प्रहलाद कथे दई मैं अँगना -परछी मं खेलत रहेंव, दौंड़त खनी धारन म टक्कर होगीस तव उहीं धारन के उपर ले गिरे रहीस पिँयर रंग के बाँटी असन गोली ओ, खोलइत म धरे रहेंव| उही हर कोन मेर ढूल गे |
हीरु के गोठ ल सुने मं दई के दूनो आँखी ले टप -टप दू बूँद झरगे| आँसू..... आँखी म झूल गे...... सबो सुरता आघूच म आगे|
कतका महिनत मजदूरी ले डोकरा मोर बर गवन के बछर पुरा होय के समे मोला भेंट म दे रहीन | गरीबी अंकाल म एक नंग ल बेंच के पेज पसिया पी के जिनगी राखे रहेंन अउ हीरू के बाप ल ले दे के भुखमरी ले बचाय रहेन| सँचार करे रहेंन मालिक!तव एक नंग ल धारन के उपर टाँग दे रहेंन| उहू आज टपक गे |
सोंचतेच रहीस के प्रहलाद के तरपंवाँ फेरे दौड़त पीं- पीं करत रहय के काँड़ी मं खुसर गे | अउ दई कथे उँच जा मोर हीरू ....बेटा ,तव प्रलाद हर निहुर के उँचत रहीथे भीतरी काँड़ी मँ खुसरे बाँटी कस गोल मुड़ी के पिँयर पिँयर......दिख जथे...
सोन के अँड़वा |
अश्वनी कोसरे
कवर्धा कबीरधाम( छ ग )
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