*छत्तीसगढ़ी संस्कृति के चिन्हारी*
*कहिनी* *// पुरोनी //*
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भाजी ले लेवा ओ भाजी ले लेवा... चिकर-चिकर के खोलबहरा कोचिया गली-खोर म चिकरत भाजी बेचत रहिस।कांवर सींका म दूनों कोती खांड़ी भर के टूकना म भाजी ल चिप-चिप के धरे रहिस अउ कांदा भाजी ल पटकू मा गठिया के टूकनी ऊपर मढ़ाय रहिस अउ कनिहा ला लसकारत रेंगत रहिस।वोकर चिकरई ल सुन के... दाई ओ..दाई ओ येदे गली म भाजी बेचाय आय हे लेबे का ओ ?... रमशिला ह अपन दाई ल पूछिस।का भाजी ये ?... घर भीतर ले छुही खुंटियावत दाई ह नोनी ल पूछिस।दउड़त गली कोती नोनी रमशीला ह जाके भाजी बेचइया ल पूछथे... काय भाजी धरे हस ? लाल भाजी बर्रे भाजी,मुरई भाजी,गोंदली भाजी अउ येदे कांदा भाजी धरे हौं नोनी।बने कोवंर-कोवंर हावे,बारी ले टोर के तुरतेच लानत हौं....खोलबहरा कोचिया कहिस।फेर नोनी रमशीला जाके अपन दाई ल बताइस लाल भाजी,बर्रे भाजी,मुरई भाजी,गोंदली भाजी अउ कांदा भाजी बेचे बर आय हावे।
दाई ह छुही खुंटियावत पोतनी ल छोड़ के सूपा ल धर के धरा-रपटा निकलथे बेचइया के तीर जाके भाजी ल देखे लागथे।अतका म पारा परोस के सेमरतलहिन,सक्तीहिन नगोहिन मन घलो भाजी बिसाय बर आ जाथें।कोनों धान के त कोनों चउर के त कोनों रुपिया-पइसा के बिसावत रहिन।जतका कन चउंर रहीस ओकर हिसाब ले खोलबहरा कोचिया भाजी ल अपन मुठा म निकाल के देवत जाथे वइसनहे धान के घलो अपन हिसाब से देवत जावे।सबो ल थोर-थोर अउ भाजी दे देवै।रमशीला के दाई ह कांदा भाजी अउ चेंच भाजी चउर के बिसा डारीस।
येती फिरतीन घलो ह भाजी बिसाय बर धर लीस।खोलबहरा कोचिया के भाजी के देवइ ल देख के रुंगे बर धर लिस....कसगा एतका कन चउंर दे हंव अउ तैंहा कइसे येतकेच कन भाजी देबे कइसे बनही थोरिक अउ उपरहा *पुरोनी* पुरो न...फिरतिन कहे ल धर लीस।माईलोगन मन कोनों जिनीस ल बिसाय बर उहीच मन जानथे अउ मोलभाव तहं ले कइसनो करके कमेच करके बिसा डारथें अउ रुंग घलो डारथें।फिरतीन के संगे-संग मनटोरा घलो मुड़ी डोलावत हां म हां मिलाय बर धर लीस।बाबूपीला मन कुछू जिनीस बिसाथें त जइसनहा पाथें वइसनहा जेतका म पाथें वोतका मा बिसा डारथे फेर येती घरो म तहं फेर गारी खाबेच करथें।
आजकल जादा देखे म आवत हे तखरी बाट के जघा ल डीजिटल तउले के मशीन आ गे हावे जेमा येको कनीक टेंड़ा नी देवंय।जेला सोन तउल कइथें।अब तो भाजी के संगे-संग छीता पाका,जोंधरी तको ह तउलेच म बेचाय बर धर लीस हावे,नि तो छीता पाका के छोटे बड़े के हिसाब ले बेचइया मन अलग-अलग कुढ़ा बना के बेचें,जोंधरी ल मुठिया के मुताबिक देवैं।अब ये तो जमाना आय हे काय कहिबे अउ काला बताबे।तउलों म कतका बेर कांटा मार देथें कोनों गमेच नी मिलय...बुधारु मनेच मन सोचिस।
एक दिन बुधारु अपन घर के जुन्ना कागद अउ किताब ल घरेच के तखरी म छियालीस किलो तउल के तीनठन बोरी म भर के राखे रहिस।एक दिन मोहना रद्दी कागद किताब लोहा टीना वाला आइस त ओला रोकवा के पूछिस....रद्दी कागद किताब के का भाव चलथे ?...बुधारु पुछिस! बताईस बारा रुपया किलो चलत हे,आजकल येखर चलन कम हे तैं कहत हावस त मैं ले लेथंव.... मोहना कहिस।ले दे के कहे बोले म पंदरा रुपिया किलो म मोहना ह तियार होइस।ले सबो कापी किताब ल तउल...बुधारु कहिस।अपन तउले के तखरी निकालिस एक किलो बाट एक डहर अउ एक डहर कापी किताब ला रखिस थोरिक टेंडा़ रखिस,बुधारु धियान से देखत रहिस कुछू नि कहिस।अइसे करके ओहर दू किलो के पासंग बनाइस।तखरी के पलोहा म दू किलो अउ दूसर कोती के पलोहा म रद्दी कागद किताब रख के तउलत गीस।
जम्मो रद्दी कागद किताब ल तउलीस त ओकर तउल म तेईस किलो होइस कोनजनी कइसे ढंग ले तउलीस त बुधारु ओकर तउलईच ल देख के सुकुरदुम होगे।फेर ओला बुधारु कहिस येला मैं छियालीस किलो तउल के बोरी म भरें हौं अउ तोर तउल म कइसे अतेक अधिया गिस......बुधारु पुछिस।ओहर बुधारु के बात ल समझ गीस अउ रोज के तउलइच म अंदाजा लगा डारे रहिस अउ छियालीस किलो होही कहिके बात ल मान के बुधारु ल छियालीस किलो के पइसा तो दे दिस।तोर तउले म अतेक कइसे कमतिया गिस ? ... बुधारु जावत-जावत पूछिस।ओहर अपन के तउले के उदीम ल बताइस... तखरी म कांटा मारे के तरीका येदे अइसनहे तउलथन..... मोहना कहिस।अइसे तो हालचाल हे काय कहिबे आजकल नि जानत रहिबे त भइगे अइसनहे होबेच करथे कतको झन ल तउल म मुरुख बनावत रहिथें।
तइहा हमर घर के बढ़खा दाई ह चना मुर्रा लाई उखरा बेचें त छोट-छोट डब्बा अउ चुरकी म भर के बेचे।एक रुपिया,दू रुपिया पाँच रुपिया के अउ तामी घलो राखे रहीस जेमा जेतका के बिसावैं ओतका के चुरकी नहीं तो डब्बा म भर के दे देवैं अउ एक-दू मूठा अउ डार देवै।एक-दू मूठा जादा देवय तेकर सेथी लेवइया घलो जादा आवंय अउ पर्रा भर चना मुर्रा देखतेच देखत जल्दी बेचा जावत रहिस।उहीच मेर संगी मन संग खेलत रहन त हमन ल खाय बर ओली म एक खबोसा घलो देवय त हमन कहि देवन थोरिक *पुरोनी* पुरो न ओ।अइसन सत वो समे म जादा देखे म मिल जावत रहिस।
तइहा के समे म *सत अउ ईमान* के डहर म रेंगइया मनखे घलो रहीस थोरिक ऊपर कोती ल डरा के मनखे ह काम बुता करे। चुरकी अउ तामी म नापे के बाद एक-दू मूठा अउ काबर देथस ? कहिके एक दिन बड़खा दाई ल मैं हा पूछ पारेंव।ये एक मूठा अउ देथंव येही ल *पुरोनी* कहिथें... बड़खा दाई हाँसत-हाँसत कहिस।लेहे-देहे म कुछू भूल-चूक हो जाय रहिथे तेकर सेथी भूल-चूक ल बरोबरी करे बर पुरोनी देहे पर जाथे।इही पुरोनी परम्परा हमर छत्तीसगढ़ी संस्कृति के चिन्हारी आय।ये परंपरा ह जुन्ना चलागत चलत आत रहिस फेर अब ये *पुरोनी* के चलन ह *भठत* जावत हे अइसे जनावत हे।हमर छत्तीसगढ़ के जुन्ना परम्परा ल कभू नी भूलावन भलुक छत्तीसगढ़ी संस्कृति ल आघू बढ़ाय के उदीम घलो सबोझन जुरमिल के करबो आवौ थोरिक हमर जून्ना संस्कृति के *पुरोनी* पुरो देवौ।
✍️ *डोरेलाल कैवर्त*
*तिलकेजा, कोरबा (छ.ग.)*
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