Monday, 16 June 2025

अहिंसा* (छत्तीसगढ़ी लघुकथा) - डाॅ विनोद कुमार वर्मा

 .                  *अहिंसा* (छत्तीसगढ़ी लघुकथा)


                         - डाॅ विनोद कुमार वर्मा 


          स्वामी कृपानंद के प्रवचन रात्रि साढे सात बजे ले चलत रहिस। विषय रहिस- ' अहिंसा परमो धर्मः। ' ओमन सभा ला संबोधित करत सार-रूप मं कहिन कि छोटे ले छोटे प्राणी उपर घलो दया के भावना रखना चाही। ओकर हत्या नि करना चाही, चाहे वह चाँटी जइसन नानकुन जीव ही क्यों न हो। गौ हत्या तो महापाप हवय!

        स्वामी जी व्याख्यान देवत अपन खुले भुजा मन ला बार-बार हथेली ले थपथपावत रहिन, बल्कि ये कहना जादा ठीक होही कि चट्-चट् मारत रहिन! दाई मन अपन लइकामन के पीठ ला थपथपावत रहिन, मगर मया-दुलार ले- आहिस्ता-आहिस्ता, चट्-चट् मारत नि रहिन! ओती स्वामी जी के देखा-देखी कुछ भक्त मन घलो अपन खुले बाँह ला चट्-चट् मारत रहिन! थोरकुन देर बाद प्रश्नकाल के समे ठीक पंखा के सामने बइठे एक भक्त श्रोता सवाल करिस- ' महाराज, प्रवचन देहे के समे आपमन अपन भुजा मन ला बार-बार काबर थपथपावत रहेव ? '

       स्वामी जी मुस्कुरावत तत्क्षण जवाब दीस- ' आपके इहाँ बहुत मच्छर हे। वोही ला भगावत रहेंव! ' -ये सुनके हाॅल मं हाँसी के लहर दउड़ गे। दरअसल वोही भक्त समझत रहिस कि ये हा घलो भक्ति करे के कोई विधि हवय!

          एकर बाद एक अउ श्रोता सवाल करिस- ' गाँधीजी कहे रहिन कि कोई हमार एक गाल मं झापड़ मारही त हमन ला अपन दूसरा गाल दे देना चाही? का एहा अहिंसा माने जाही? '

       स्वामी जी उत्तर दीस- ' अइसन न गाँधी कहे रहिन न ही शास्त्र मन मा लिखे हवय। ' 

          ' त का सुभाष चंद्र बोस के बात सही हे कि कोनो एक गाल मं झापड़ मारही त ओकर दुनों गाल मं झापड़ मारना चाही? ' - तीसर श्रोता सवाल करिस। 

     ' सुभाष बाबू अइसन बिलकुल नि कहे हें! बल्कि ये बात कहे रहिन कि .... तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा! .... मोला ये  समझ मं नि आवत हे कि हर बात बर आपमन दूसर के मुँहु काबर ताकत रहिथॅव? आपमन स्वयं चिन्तन-मनन अउ संयम के मदद ले गाँधी तो निहीं, फेर नेहरू, सुभाष और भगत तो बनिच् सकत हॅव। ओमन घलो आपेमन जइसे हाड़-मांस के इंसान रहिन। .... ओमन कइसन तरह ले अपन जीवन ला जीये रहिन?- एला आपमन ला पढ़ना चाही। मँय अपन प्रवचन मं जउन बात कहे हौं, ओकर सार तत्व ला समझे के आज जरूरत हे। आपमन चिन्तन नइ करव बल्कि चिन्ता करथव अउ दूसर-मन के सुक्ति मं ओकर हल ढूढ़थॅव! अहिंसा उपर संस्कृत मं एक श्लोक हे-

' अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव चः, अहिंसा परम् तपः, अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते। '

      ' ये श्लोक के अर्थ हे कि अहिंसा मनुष्य के परम् धरम हवय, फेर धरम के रक्षा करे बर हिंसा करना ओकर ले घलो श्रेष्ठ हे! '

          चार लइका जउन चौथी-पाँचवीं के छात्र रहिन होहीं- ओमन ला स्वामी जी के बड़े-बड़े बात समझ मं नि आवत रहिस। ओमन सबले आघू दर्री मं बइठे आपस मं धीरे-धीर गोठ-बात करत रहिन।

         ' यदि कोनो मच्छर हमन ला काट लिही त ओला मार देना चाही कि छोड़ देना चाही? '- एक लइका सवाल करिस। 

         ' छोड़ देना चाही। एहा अहिंसा होही। '- दूसर जवाब दीस।

        ' मार देना चाही। एहा हिंसा नि माने जाही। '- तीसर लइका बोलिस। 

        ' प्रश्नोत्तरी खत्म होय के बाद स्वामी जी के बाँही ला देखे चलव। ओमन अपन बाँही ला चट्-चट् मारत रहिन। एकर सही जवाब मिल जाही! '- चौथा लइका बोलिस। 

       प्रश्नोत्तरी समाप्त होय के तुरते बाद चारों लइका-मन कुछु-काँही करके स्वामी जी के आसन के लकठा मं पहुँच गइन। ओमन देखिन कि ऊँकर बाँही मं चार-पाँच मरे मच्छर-मन के संग थोर-बहुत खून चिपके हे अउ कुछ मरे मच्छर आसन के लकठा मं गिरे-परे हे! स्वामी जी मच्छर ला भगावत नि रहिन बल्कि काटने वाला मच्छर-मन ला हथेली ले चट्-चट् मारत रहिन!

          आज लइकामन अपन मन मं उठत सवाल के हल स्वंय ढूढ़ ले रहिन। 

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Short story written by-


           डाॅ विनोद कुमार वर्मा 

व्याकरणविद्,कहानीकार, समीक्षक 


मो-  98263 40331

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